अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
इसके अनुसार हमारे धर्मग्रन्थों में परोपकार को पुण्य और पर-पीडन को पाप बतलाया गया है।
इसी प्रकार से –
पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा।
पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयंकरः॥
इसके अनुसार पाप से व्याधि, वृद्धत्व, दीनता, दुःख और भयंकर शोक की प्राप्ति होती है। यही नहीं, छोटे और बड़े पापों के क्रम से छोटे और बड़े फल प्राणी को भोगने पड़ते हैं। यह फल नरक भोगने के पश्चात् जन्म- जन्मान्तरों में भुगतने पड़ते हैं।
विविध प्रकार के रोग उनके चिह्न हैं ।
शातातपस्मृति (३ और ५) में लिखा है-
महापातकजं चिह्नं सप्तजन्मानि जायते ।
उपपापोद्भवं पञ्च त्रीणि पापसमुद्भवम् ॥
पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये।
बाधते व्याधिरूपेण तस्य जप्यादिभिः शमः ॥
इससे स्पष्ट है कि इस जन्म में पीडा देने वाले विभिन्न रोग पूर्वजन्मों के पापों के परिणाम हैं। शातातपस्मृति आदि में इसका विस्तार से वर्णन है ।
उदाहरणार्थ कुछ वाक्य नीचे दिये जाते हैं-
ब्रह्महा नरकस्यान्ते पाण्डुः कुष्ठी प्रजायते ।
कि कुष्ठी गोवधकारी…
बालघाती च पुरुषो मृतवत्सः प्रजायते ।
गर्भपातनजा रोगा यकृत्प्लीहा जलोदराः ।
प्रतिमाभङ्गकारी च अप्रतिष्ठः प्रजायते।
विद्यापुस्तकहारी च किल मूकः प्रजायते।
औषधस्यापहरणे सूर्यावर्तः प्रजायते ।
(शातातपस्मृति, अध्याय २-३-४) अर्थात् ‘ब्रह्महत्या करने वाला नरक भोगने के अन्त में श्वेतकुष्ठी, गोहत्यारा गलितकुष्ठी, बालकों की हत्या करने वाला मृत-संतान वाला, गर्भपात कराने वाला यकृत्तिल्ली एवं जलोदर का रोगी, मूर्ति खण्डित करने वाला अप्रतिष्ठित, विद्या और पुस्तकों को चुराने वाला गूँगा, ओषधियों को चुराने वाला आधासीसी का रोगी होता है।’
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ शिवनाथसागर के अनुसार ‘चन्दे के द्रव्य को हड़पने वाला गण्डमाल-रोगी, असत्य साक्षी देने वाला मुख-रोगी और रक्तपित्त-रोगी, दूसरों को धोखा देकर अभक्ष्य पदार्थ खिलाने वाला उन्माद-रोगी, कन्या के शील को भङ्ग करने वाला मूत्रकृच्छ्ररोगी, परस्त्रीगामी अश्मरीरोगी, सगोत्रागामी भगंदर-रोगी, गाय- साधु आदि को जल से वञ्चित करने वाला तृषारोगी होता है।’ परंतु हमारे धर्मशास्त्रों में इस प्रकार के स्पष्ट संकेत होने पर भी सामान्यतः मनुष्यों की विचित्र गति है। वे-
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति जन्तवः।
न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥
इसके चरितार्थ करते हैं अर्थात् वे पुण्य का फल (सुख) तो चाहते हैं परंतु पुण्य नहीं करना चाहते और पाप कर्म तो जान-बूझकर करते हैं, परंतु उन पाप कर्मों का फल (दुःख) नहीं भोगना चाहते हैं ।
ऐसे व्यक्तियों को यदि अपने दुष्कृत्यों के प्रति आत्मग्लानि उत्पन्न हो जाती है तो उनके लिये धर्म- शास्त्रों ने प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है।
वेदान्तसार में प्रायश्चित्त की व्याख्या करते हुए सदानन्द ने लिखा है- ‘प्रायः पापं विजानीयाच्चित्तं तस्यैव शोधनम्।’
अर्थात् पापों को क्षालन अर्थात मिटाने अथवा धोने के लिए जो व्रतादि किये जाते हैं, वे प्रायश्चित्त-कर्म कहलाते हैं । प्रायश्चित्त पापकर्म-फल भोग से बचाने वाला अमोघ अस्त्र है। दूसरे शब्दों में पापनाशक कृत्य को ‘प्रायश्चित्त’ कह सकते हैं।
प्रायश्चित्तेन्दुशेखर के अनुसार पाप दो प्रकार के हैं- ‘रहस्यं प्रकाश्यं च।’– ‘छिपे हुए और प्रकट ।’ ऐसे अनेक पापकर्म, जिन्हें पापकर्त्ता के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता, ‘रहस्यपूर्ण’ पाप कहलाते हैं और प्रकाश्य तो सर्वसाधारण को विदित होते ही हैं इनमें रहस्यपूर्ण पाप के प्रायश्चित्त का सम्बन्ध मनुष्य के हृदय से है। यदि उसकी अन्तरात्मा पश्चात्ताप करती है तो वह उसको प्रकट करके उस पाप का प्रायश्चित्त कर सकता है; क्योंकि ‘पापं नश्यति कीर्तनात्’ के अनुसार पाप कहने से नष्ट हो जाता है। अतः उसको गुरु या राजा से कह देना चाहिये। वसिष्ठस्मृतिमें लिखा है-
गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम् ।
इह प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥
अर्थात् ‘गुरु ज्ञानियों का शासनकर्ता है, राजा दुष्टों का शासनकर्ता है और जो इस लोक में गुप्तरूप से पाप करते हैं उनके शासक यमराज हैं।’ इससे स्पष्ट है कि गुप्तरूप से किये गये पाप पर यमराज की दृष्टि रहती है। अतः यहाँ कोई भले ही पाप छिपाये रहें, उनको वहाँ मुक्ति नहीं मिल सकती। वहाँ तो दण्ड मिलेगा ही। अतः पाप को छिपाना नहीं चाहिये; क्योंकि जितने दिन- तक पाप छिपाया जायगा, उसका फल बढ़ता ही रहेगा।
प्रायश्चित्तेन्दुशेखर के वाक्य-
‘आसंवत्सरं प्रायश्चित्ताकरणे पापद्वैगुण्यम्।’ के अनुसार ‘एक वर्ष तक यदि पाप का प्रायश्चित्त न किया जाय तो पाप दुगुना हो जाता है। अतः पाप का प्रायश्चित्त यथासमय करना चाहिये।
इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि सफल प्रायश्चित्त वही है जिसमें दुष्कर्म के प्रति आत्मग्लानि हो जाय और अन्तरात्मा में पश्चात्ताप हो। साथ ही यह स्मरणीय है कि बार-बार पापकर्म करके बार-बार प्रायश्चित्त करने की हस्तिस्नान-जैसी प्रवृत्ति भी शास्त्र- सम्मत नहीं है।
– गोविंद प्रसाद चतुर्वेदी (साभार – गीताप्रेस के परलोक और पुनर्जन्म अंक से)