श्रीमद्भागवत गीता अनुसार, जिस प्रकार से एक बोया हुआ कोई भी बीज एकाएक वृक्ष नहीं बन जाता, उसी प्रकार से उसके अच्छे या बुरे कर्मों के फल भी एकाएक प्राप्त नहीं हो जाते, बल्कि इसमें भी विधाता ने कुछ नियम तय किये हुए हैं कि भले ही किसी व्यक्ति ने आज के समय में पाप कर्म करना बंद कर दिया हो किन्तु पूर्व में किए गये उसके कर्मों का फल उसे तब भी मिल कर ही रहेगा, चाहे वे कर्म अच्छे हों या बुरे। क्योंकि उसके कुछ पाप तो ऐसे होते हैं जो बीज रूप में बचे रहते हैं, जबकि कुछ पाप कई प्रकार के दुखों तथा वेदना आदि के रूप में फलीभूत हो चुके होते हैं।
विधाता ने अच्छे या बुरे कर्मों को लेकर जो नियम बनाये हुए हैं उस विषय पर यहां हम एक सटीक कहानी के माध्यम से भी समझ सकते हैं। कहानी कुछ इस प्रकार से है कि –
किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे। उनके घर के सामने एक सुनार का घर था। सुनार के पास सोना आता रहता था और वह उसे गहनों में गढ़कर देता रहता था। एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया। रात्रि में वहां पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता चल गया। उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था, उसे उठाकर चल दिया। इसी बीच सामने के घर में रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिये उठकर बाहर आये। उन सज्जन को कुछ आशंका हुई तो उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया। पहरेदार ने कहा- तू चुप रह, हल्ला मत कर, इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँगा।
सज्जन बोले – मैं कैसे ले लूँ? मैं चोर थोड़ा ही हूँ। पहरेदार ने कहा- देख, तू अभी समझ जा और मेरी बात मान ले, नहीं तो बहुत पछतायेगा। पर वो सज्जन नहीं माना। तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर-जोर से सीटी बजा दी। सीटी सुनते ही अन्य जगहों पर पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गये। उस पहरेदार ने सबसे कहा कि यह व्यक्ति इस घर से बक्सा चोरी कर के लाया है और मैंने इसको रंगे हाथों पकड़ लिया है। तब उन सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है। सिपाहियों ने उस सज्जन को कानून के हवाले कर दिया। अगले दिन जज के सामने पेशी हुई तो उस सज्जन ने कहा कि- ‘मैंने उस सुनार को नहीं मारा, बल्कि उसे तो पहरेदार सिपाही ने मारा है, और मैंने तो स्वयं ही उस अपराधी को पकड़ा है। सब सिपाही आपस में मिले हुए थे।
उस व्यक्ति पर मुकदमा चला, अन्त में फाँसी का हुक्म हुआ। फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला देखो, सरासर अन्याय हो रहा है! भगवान के दरबार में कोई न्याय नहीं है। मैंने मारा नहीं, लेकिन, मुझे दण्ड हो रहा है और जिसने मारा है, वह बेदाग छूट जाय, जुर्माना भी नहीं, यह तो अन्याय है। जज साहब को लगा कि इस केस की और अधिक जांच होनी चाहिए, हो सकता है कि यह व्यक्ति वास्तव में सच बोल रहा हो। ऐसा विचार करके जज ने गुप्त रूप से एक षड्यंत्रा रचा।
जब साहब के उस षड्यंत्रा के मुताबिक अगली सुबह एक आदमी रोता-चिल्लाता हुआ आता है और कहता है- सरकार मेरे भाई की हत्या हो गयी है। इस हत्या की जांच होनी चाहिये। तब जज ने फांसी की सजा प्राप्त उस कैदी और उसको पकड़ने वाले उसी सिपाही को मरे हुए उस सज्जन की लाश उठाकर लाने का आदेश दिया। दोनों उस आदमी के साथ वहाँ गये, जहाँ लाश पड़ी थी। खाट पर पड़ी उस लाश के ऊपर कपड़ा डला हुआ था, कुछ खून भी बिखरा पड़ा था। सिपाही और कैदी ने खाट को उठाया और ले चले।
सिपाही और कैदी को घटनास्थल पर लाने वाला वह दूसरा व्यक्ति जज साहब को खबर देने के बहाने दौड़कर आगे चला गया। खाट पर लदी लाश को ले जा रहे सिपाही ने कैदी से कहा- ‘देख उस दिन तू मेरी बात मान लेता तो तुझे सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती। अब देख लिया सच्चाई का फल? कैदी ने कहा मैंने तो सच्चाई का साथ किया था। फाँसी हो गयी तो हो गयी। हत्या की तूने और दण्ड भोगना पड़ा मुझे। इसका मतलब भगवान के यहां न्याय नहीं है।
षड्यंत्र के मुताबिक खाट पर पड़ा व्यक्ति मरने का झूठ-मूठ नाटक कर रहा था और उन दोनों की बातें सुन रहा था। सिपाही और कैदी, खाट लेकर जब जज के सामने पहुंचे तो जज साहब ने खाट पर लेटे उस व्यक्ति के ऊपर से खून-भरे कपड़े को हटाया और उसे उठने को कहा। वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी कि रास्ते में सिपाही और कैदी के बीच क्या-क्या बातें हुईं।
सच्चाई सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ। सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया। सिपाही को कैद करने का आदेश दिया गया। परन्तु इसके बाद भी जज साहब के मन में सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने कैदी को एकान्त में बुलाकर कहा कि इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ। लेकिन, सच-सच बताओ कि क्या तुमने इस जन्म में कोई हत्या या इसी प्रकार का कोई बड़ा अपराध किया है? वह व्यक्ति बोला- ‘जज साहब, बहुत समय पहले की एक घटना है। एक दुष्ट था जो छिपकर मेरी स्त्री के पास आया करता था। मैंने उसको भी और अपनी स्त्री को भी कई बार अलग-अलग बुलाकर समझाया, लेकिन, वह व्यक्ति नहीं माना।
एक रात अचानक जब मैं घर पहुंचा तो वह घर पर ही था। मुझे गुस्सा आ गया। मैंने तलवार से उसका गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें उसकी लाश को फेंक दिया। आज तक इस घटना का किसी को पता नहीं लगा। यह सुनकर जज साहब बोले- ‘तुम्हें जो सजा दी गई थी वह समाप्त नहीं होगी और इसी समय तुम्हें फांसी होगी।
जज साहब ने आश्चर्य भरे स्वर में आगे कहा कि- ‘इसके पहले मैं यही भी सोच रहा था कि आखिर मैंने अभी तक कभी बेइमानी नहीं कि, किसी से घूस या रिश्वत नहीं खायी, फिर मैंने तुम जैसे एक निर्दोष व्यक्ति के लिए फांसी का आदेश कैसे लिखा गया?, लेकिन, अब मुझे सन्तोष हुआ कि तुम निर्दोष नहीं हो। जिस प्रकार से उस सिपाही ने पाप किया है उसी प्रकार से तुमने भी जो पाप किया है उसका फल तो तुम्हें भोगना पड़ेगा। इसके बाद उस व्यक्ति के साथ-साथ उस सिपाही को भी फांसी की सजा दे दी गई।
इस कहानी के अनुरूप उस सज्जन ने चोर को पकड़वाकर अपने कर्तव्य का पालन किया। लेकिन, उसको जो दण्ड मिला है, वह उसके कर्तव्य पालन का नहीं, बल्कि इसके पहले उसने जो हत्या की थी, उस हत्या रूपी पाप का फल था। जबकि उसने जो अपने कर्तव्य का पालन किया था उसके कारण उसके उस हत्या-पाप का फल उसको यहीं, इसी जन्म में मिल गया, और उसके परलोक के भयंकर दण्ड पाने से भी छुटकारा हो गया।
कहानी के अनुरूप इस लोक में जो दण्ड भोग लिया जाता है, उसकी थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है और थोड़े में ही छुटकारा मिल जाता है। और यदि उसे इसी जन्म में दण्ड नहीं मिल पाता तो परलोक में उसको इससे भी बड़ा और भयंकर दण्ड भोगना पड़ता।
इस कहानी से हमें इस बात का भी पता लगता है कि मनुष्य के द्वारा किये हुए और पुण्यों का फल उसे कब और कैसे मिलेगा इसके बारे में इंसान स्वयं तय नहीं कर सकते। अर्थात जब तक व्यक्ति के पुण्यों की गिनती अधिक रहेगी, उनका प्रभाव भी बना रहेगा, और उसके वर्तमान पाप का फल भी उसे तत्काल नहीं मिलेगा, चाहे इस जन्म में या अगले किसी भी जन्म में।
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