अजय सिंह चौहान || राजस्थान के झुंझुनू जिले की उदयपुरवाटी तहसील का एक बड़ा गाँव है छापोली। इसी छापोली के राजकुमार ठाकुर सुजान सिंह 7 मार्च 1679 ई. के दिन, अपने विवाह के बाद बारात लेकर लौट रहे थे। मात्र 22 वर्ष के सुजान सिंह किसी देवता की तरह लग रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो देवता अपनी बारात लेकर जा रहे हों।
सुजान सिंहने अपनी दुल्हन का मुख भी नहीं देखा था। शाम होने वाली थी इसलिए रात्रि विश्राम के लिए “छापोली” में पड़ाव डाला गया। कुछ ही क्षणों में उन्हें गायों के गले में बंधे घुंघरुओं की आवाजें सुनाई देने लगी। आवाजें स्पष्ट नहीं थीं, फिर भी वे सुनने का प्रयास कर रहे थे, मानो वो आवाजें उनसे कुछ कह रही थी।
सुजान सिंह ने अपने दाल के गुप्तचरों से कहा, शायद ये चरवाहों की आवाज है जरा सुनो वे क्या कहना चाहते हैं। गुप्तचरों ने सूचना दी कि युवराज ये कोई फौज है जो “देवड़े” पर आई है। वे चौंक पड़े। कैसी फौज, किसकी फौज, किस मंदिर पे आयी है?
जवाब आया “युवराज ये तो औरंगजेब की बहुत ही विशाल सेना है, जिसका सेनापति दराबखान है, उन लोगों ने खंडेला के बाहर पड़ाव डाल रखा है। खबर है कि औरंगजेब की ये सेना कल खंडेला स्थित श्रीकृष्ण मंदिर को लूटने के बाद तोड़ने के लिए जा रही है।
गुप्तचर की बात सुनकर सुजान सिंह के दल के सदस्यों के खुशनुमा चहरे अचानक सख्त हो चुके थे, कोमल शरीर वज्र के समान कठोर हो चुके थे। यानी एक ही पल में सब कुछ बदल गया।
सुजान सिंह के बाराती दल के सदस्यों में सैनिक बहुत कम थे, बाकी सभी बाराती थे। और अपने साथ आये सेना के उन मात्र कुछ लोगों से विचार विमर्श करने लगे। तब उनको पता चला कि उनके साथ तो मात्र 70 लोगों की ही एक छोटी सी एक सेना थी।लेकिन जो बाराती थे वे भी अब लड़ने के लिए तैयार हो गए और सेना में तब्दील हो गए।
शाम धीरे-धीरे रात में बदलती जा रही थी। ऐसे में रात्रि के समय में बिना एक पल गंवाए उन्होंने आस-पास के गांवों से भी कुछ अन्य लोगों को औरंगजेब की सेना से मुक़ाबला करने इकठ्ठा कर लिया। इस प्रकार सुजान सिंह के बाराती दल के सदस्यों में करीब 500 घुड़सवार हो चुके थे।
अचानक सुजान सिंह को डोली में बैठी हुई अपनी पत्नी की याद आयी, जिसका मुख भी वे नहीं देख पाए थे। क्या बीतेगी उसपर जिसने अपना लाल जोड़ा भी ठीक से नहीं देखा हो।
राजकुमार सुजान सिंह तरह-तरह के विचारों में खोए हुए थे। तभी उनके कानों में अपनी माँ को दिए वचन याद आये, जिसमें उन्होंने राजपूती धर्म को ना छोड़ने का वचन दिया था। डोली में बैठी उनकी पत्नी भी सारी बातों को समझ चुकी थी। डोली के तरफ उनकी नजर गयी।
उनकी पत्नी महँदी वाली हाथों को निकालकर इशारा कर रही थी। मुख पे प्रसन्नता के भाव थे। वो एक सच्ची क्षत्राणी के अपने कर्तब्य निभा रही थी, मानो वो खुद तलवार लेकर दुश्मन पे टूट पड़ना चाहती थी, परंतु ऐसा नहीं हो सकता था।
सुजान सिंह ने डोली के पास जाकर डोली को और अपनी पत्नी को प्रणाम किया और कहारों और नाई को डोली के साथ सुरक्षित अपने राज्य भेज देने का आदेश दे दिया और खुद खंडेला स्थित श्रीकृष्ण मंदिर को घेरकर उसकी चौकसी करने लगे।
उस समय वहाँ उपस्थित कई प्रत्यक्षदर्शी लोग कहते हैं कि मानो खुद भगवान् श्रीकृष्ण उस मंदिर की चौकसी कर रहे थे। सुजान सिंह का मुखड़ा भी श्रीकृष्ण की ही तरह चमक रहा था।
अगले दिन, यानी 8 मार्च वर्ष 1679 को दराबखान की सेना आमने सामने आ चुकी थी, महाकाल भक्त सुजान सिंह ने अपने इष्टदेव को याद किया और हर हर महादेव के जयघोष के साथ 10 हजार की संख्याबल वाली मुगल सेना के साथ सुजान सिंह के 500 लोगों ने घनघोर युद्ध आरम्भ कर दिया।
दराबखान को पर हमला करने के लिए सुजान सिंह उसकी ओर लपके और मुगल सेना के 40 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। ऐसे पराक्रम को देखकर दराबखान ने पीछे हटने में ही भलाई समझी। लेकिन ठाकुर सुजान सिंह रुकनेवाले नहीं थे।
जो भी सुजान सिंह के सामने आ रहा था वो मारा जा रहा था। सुजान सिंह साक्षात मृत्यु का रूप धारण करके युद्ध कर रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो खुद महाकाल युद्ध कर रहे थे।
इस बीच कुछ लोगों की नजर सुजान सिंह पर पड़ी।
लेकिन ये क्या? सुजान सिंह के शरीर में सिर तो है ही नहीं…।
सुजान सिंह को इस प्रकार से बिना सिर के घोड़े पर बैठे-बैठे घोर युद्ध करते देख औरंगज़ेब की सेना के लोगों को घोर आश्चर्य हुआ। लेकिन सुजान सिंह के साथियों को यह दृश्य देख कर ये समझते देर नहीं लगी कि सुजान सिंह तो कब के मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं।
और ये जो युद्ध कर रहे हैं, वे सुजान सिंह नहीं, बल्कि उनके इष्टदेव हैं। वहाँ उस युद्धभूमि में उपस्थिन उनके सभी साथियों ने मन ही मन सुजान सिंह को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और अपना शीश झुककर उनके इष्टदेव को प्रणाम भी किया।
सुजान सिंह के रूप में उस युद्धभूमि में उतरे उनके इष्टदेव के हाथों औरंगज़ेब का वह क्रूर सेनापति दराबखान मारा जा चुका था।
मुगल सेना में भगदड़ मच गयी थी, लेकिन सुजान सिंह अब थी घोड़े पर सवार, बिना सिर के ही अपनी तलवार से मुगलों का संहार कर रहे थे।
उस दिन युद्धभूमि में मृत्यु का किस प्रकार से तांडव हुआ होगा, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों की करीब 7 हजार संख्याबल वाली सेना को सुजान सिंह की उस एक छोटी की नौसिखिया सेना और ग्रामीणों ने मिलकर भूमि पर बिछा दिया था। औरंगज़ेब की बची-खुची सेना वहां से जब पूर्ण रूप से भाग गई, तब सुजान सिंह जो सिर्फ शरीर मात्र थे, श्रीकृष्ण मंदिर की और गए।
तमाम इतिहासकार एक स्वर में कहते हैं कि उस समय देखने वालों को राजकुमार सुजान सिंह के शरीर से एक दिव्य प्रकाश के तेज के निकलने का आभास प्रतीत हो रहा था। वह प्रकाश ऐसा था जो विश्मित करनेवाला था, उस प्रकाश के सामने सूर्य की रोशनी भी मन्द पड़ रही थी ।
उस दृश्य को देखकर वहाँ उपस्थित राजकुमार सुजान सिंह के अपने लोग भी घबरा गए थे। सभी एक साथ श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे। घोड़े से नीचे उतरने के बाद सुजान सिंह का वह बिना सिर वाला दिव्य शरीर श्रीकृष्ण के मंदिर की प्रतिमा के सामने जाकर लुढ़क गया।