धृतराष्ट्र ने विदुर जी से पूछा-
शतायुरुक्तः पुरुषः सर्ववेदेषु वै यदा ।
नाप्नोत्यथ च तत् सर्वमायुः केनेह हेतुना ॥
(महाभारत, उद्योगपर्व ३७।९)
अर्थात- ‘जब सभी वेदों में पुरुष को सौ वर्ष की आयु वाला बताया गया है, तो वह किस कारण से अपनी पूर्ण आयु को नहीं पाता !’
उत्तर में विदुर जी ने कहा –
अतिमानोऽतिवादश्च तथात्यागो नराधिप ।
क्रोधश्चात्मविधित्सा च मित्रद्रोहश्च तानि षट् ॥
एत एवासयस्तीक्ष्णाः कृन्तन्त्यायूंषि देहिनाम् ।
एतानि मानवान् घ्नन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तु ते ॥
(महाभारत, उद्योगपर्व ३७।१०-११) ‘राजन्!
अर्थात- ‘आपका कल्याण हो ! अत्यन्त अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिन्ता (स्वार्थ) और मित्रद्रोह – ये छ: तीखी तलवारें देहधारियों की आयु को काटती हैं। ये ही मनुष्यों का वध करती हैं, मृत्यु नहीं।‘
उपर्युक्त छः दोषों की क्रमशः व्याख्या की जाती है- (१) ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित होना; अपनी प्रशंसा सुनना; धन और भोग-सामग्री की बहुलता; मनोकामना पूर्ण होना; अपने द्वारा किसी का हित होना; दूसरों में दोष और अपने में गुण देखना; अपने को बलवान्, विद्वान्, बुद्धिमान्, साधक, त्यागी, महात्मा आदि मानना आदि एक-एक कारण पर ऊँची स्थिति वाले महात्मा तक अभिमान के शिकार हो जाते हैं।
भगवान ने जब कभी अपने भक्त में अभिमान का प्रवेश देखा, तुरंत उसके अभिमान को चूर्ण किया। अभिमानी मनुष्य शीघ्र ही अपनी स्थिति से विचलित तथा पतित हो जाता है। अति अभिमानी पुरुष को भ्रष्ट हुए बिना चेत नहीं होता। ऐसा पुरुष भगवान् के शरण नहीं हो पाता तथा न तो उसमें समता रहती है और न उसे अपने अवगुण-दोष ही कभी दीखते हैं। अभिमानी पुरुष अपने से श्रेष्ठ को भी नीचा देखता है और उसकी अवहेलना करता है। अभिमान के नष्ट होनेपर प्रत्येक स्थिति वाला मनुष्य ऊँची-से-ऊँची स्थिति प्राप्त कर सकता है।
सभी वस्तुओं को प्रभु की समझकर उनके द्वारा तन-मन से दूसरों की सेवा निष्काम भाव से करने पर तथा दूसरों के गुण एवं अपने दोष देखने पर अभिमान दूर हो जाता है। अपने को तुलसीदास जी की भाँति सब ओर से दीन-हीन समझते रहने से भी अभिमान समीप नहीं आता और बहुत बड़ा लाभ होता है।
(२) अधिक बोलने वाला व्यक्ति व्यर्थ की बातें अधिक करता है। वह सत्य का पूर्णतया पालन नहीं कर सकता और ऐसी बातें भी कर बैठता है, जिनका परिणाम बुरा होता है। ऐसा व्यक्ति बुद्धिमानों को प्रिय नहीं होता तथा दूसरों पर उसकी बातों का प्रभाव भी नहीं पड़ सकता। अतः निरर्थक शब्दों का प्रयोग न करके वाणी को संयमित कर तप में लगाना चाहिये।
वाणी सम्बन्धी तप श्रीगीताजी में इस प्रकार कहा गया है-
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
(१७।१५)
अर्थात- ‘जो उद्वेग को न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो वेद-शास्त्रों के पढ़ने का एवं परमेश्वर के नाम जपने का अभ्यास है, वह नि:संदेह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।’ अधिक बोलने की आदत से छुटकारा पाने के लिये अधिक-से-अधिक भगवन्नाम-जप करने का नियम करना चाहिये। इससे दुहरा लाभ होगा।
(३) त्याग के अभाव के कारण ही रावण, दुर्योधन आदिका पतन हुआ। सांसारिक सुखोपभोग मनुष्य की आयु को काटते हैं और उनका त्याग शीघ्र ही शान्तिप्रद और आयुवर्द्धक भी होता है। भगवान् श्रीगीता में कहते हैं-
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
(१२ । १२)
अर्थात- ‘मर्म को न जानकर किये हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सब कर्मों के फल का मेरे लिये त्याग करना श्रेष्ठ है और त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है।’
इस बात को मनुष्य सदैव स्मरण रखें कि हम इस संसार से कुछ लेने के लिये नहीं आये हैं, बल्कि दूसरों को सुख देने के लिये ही आये हैं तथा यह शरीर हमें केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही मिला है, भोगों के भोगने के लिये नहीं ।
यदि किसी वस्तु को ग्रहण करने का हेतु ‘राग’ और त्यागने का हेतु ‘द्वेष’ हो, तो ऐसा त्याग भी निरर्थक ही है। हमें तो शास्त्र को प्रमाण मानकर ही त्याग और ग्रहण करना है । श्रीगीता में भगवान् कहते हैं कि ‘कर्मों को स्वरूप से न त्यागकर उनमें की हुई आसक्तिका त्याग करे और उन शास्त्रसम्मत कर्मों के फल का भी त्याग मेरे (प्रभुके) लिये करे।’ अतः कल्याण के इच्छुक पुरुषों को शास्त्रविरुद्ध कर्मों को स्वरूप से त्यागकर शास्त्रसम्मत कर्मों को अनासक्त एवं निष्काम भाव से करते रहना चाहिये।
(४) क्रोध सभी का एक महान् शत्रु है। इसके वश में होने पर पुरुष धर्म (कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान) – को तथा परिणाम को भूल जाता है, जिससे उसका पतन होता है।
महात्मा विदुरजी कहते हैं-
अव्याधिजं कटुकं शीर्षरोगि पापानुबन्धं परुषं तीक्ष्णमुष्णम् ।
पिबन्त्यसन्तो सतां पेयं यन्न मन्युं महाराज पिब प्रशाम्य ॥
महाभारत, उद्योगपर्व ३६ । ६८)
अर्थात- ‘महाराज ! जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से सम्बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्जनों द्वारा पान करने योग्य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते-उन क्रोध को आप पी जाइये और शान्त होइये।
क्रोधी पुरुष स्वयं सब कुछ करने में असमर्थ रहता है। श्रीगीताजी में भगवान् कहते हैं कि ‘शरीरान्त के पूर्व ही जिसने क्रोध को पूर्णतया जीत लिया, वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है।’ इसके अतिरिक्त क्रोध को ‘नरक का द्वार’ भी कहा गया है इसका तात्पर्य यह कि क्रोधवश हुए मनुष्य को नरक में जाने के लिये अन्य मार्गकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती (क्रोध अकेला ही मनुष्य को नरक में पहुँचाने में समर्थ नरक का द्वार ही है) ।
भगवान् कहते हैं-क्रोध से मुक्त हुआ पुरुष कल्याण का आचरण करता है, जिससे वह मुझे प्राप्त हो जाता है। प्रतिकूलता सहन करने का अभ्यास करने पर ही क्रोध से रक्षा होती है। यदि दूसरा अपने ऊपर क्रोध करे, तो मन में शान्ति रखकर उसे क्षमा कर देना चाहिये।
(५) स्वार्थ सभी अनर्थों का मूल है। लोक में होनेवाले रोमाञ्चकारी युद्धों का कारण स्वार्थ (पृथ्वी, धन या स्त्री) ही है। स्वार्थी मनुष्य स्वार्थसिद्धि के लिये बड़े- से-बड़ा पाप करने में भी लज्जा का अनुभव नहीं करता । इस स्वार्थ के ही कारण आज चारों ओर पापों की वृद्धि होकर घोर अशान्ति ही छायी हुई है।
दूसरे के सुखको देखकर सुखी होने और दुःख देखकर दुःखी होने का अभ्यास करने पर स्वार्थ-दोष का नाश होता है।
हमलोग सच्चे हृदयसे प्रार्थना करें-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥
अर्थात ‘सब सुखी हों, सब नीरोग हों, सब कल्याण को देखें, कोई भी दुःख को प्राप्त न हो ।’
(६) मित्रद्रोही पुरुष को शास्त्रों में ‘अधम’ कहा गया है। ऐसे मनुष्य की निन्दा सभी करते हैं। मनुष्य जीवन में मित्रों का बहुत महत्त्व है। सच्चा मित्र मनुष्य के जीवनमार्ग का एक आश्रय है। मित्रता से एक नयी शक्ति का निर्माण होता है, जिससे शत्रुओं को भी भय होता है। मित्रों ने कई महापुरुषों को अच्छे कार्यों की प्रेरणा और सहायता ० दी है। पतन की ओर अग्रसर होते हुए कई पुरुषों का उत्थान मित्रों ने ही किया है। परंतु जो मित्रद्रोही है, वह कैसे सुखी जीवन यापन कर सकता है। मित्रद्रोह नामक महान् दोष से बचने के लिये स्वार्थत्याग तथा परहित साधन करना परम आवश्यक है। भगवान्ने ‘भक्त को सब भूतों का अद्वेष्टा तथा सबका मित्र’ (अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः…) बतलाया है। अतएव किसी भी प्राणी से द्वेष र्च न करके सबका हितचिन्तन और हित साधन करना य चाहिये। महात्मा विदुरजी ने आयु को काटने वाले जो छः दोष बतलाये हैं, वे सभी प्रायः एक-दूसरे पर ही निर्भर हैं। अतः कल्याण के इच्छुक पुरुषों को यथाशक्ति इन दोषों से बचना चाहिये । यदि छ: में से एक दोष का भी पूर्णतया अभाव हो जाय तो कल्याण-मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
अन्त में महात्मा विदुरजी के कुछ और वचनों का पाठकगण मनन करें-
द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः । प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥
(महाभारत, उद्योगपर्व ३३। ५८)
अर्थात- “राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- ‘शक्तिशाली’ होने पर भी ‘क्षमा’ करने वाला और ‘निर्धन’ होने पर भी ‘दान’ करने वाला।”
गृहीतवाक्यो नयविद् वदान्यः शेषान्नभोक्ता ह्यविहिंसकश्च।
नानर्थकृत्याकुलितः कृतज्ञः सत्यो मृदुः स्वर्गमुपैति विद्वान् ॥
(महाभारत, उद्योग पर्व ३७। १४)
अर्थात- ‘बड़ों की आज्ञा मानने वाला, नीतिज्ञ, दाता, यज्ञशेष अन्न भोजन करने वाला, हिंसा रहित, अनर्थकारी कार्यों से दूर रहने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी और कोमल स्वभाव वाला विद्वान् स्वर्गगामी होता है।’
मार्दवं सर्वभूतानामनसूया क्षमा धृतिः ।
आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणां चाविमानना ॥
(महाभारत, उद्योगपर्व ३९ । ५२)
अर्थात- ‘सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना – ये सब गुण आयु को बढ़ाने वाले हैं – ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ।’
अधर्मोपार्जितैरर्थैर्यः करोत्यौर्ध्वदेहिकम्।
न स तस्य फलं प्रेत्य भुङ्क्तेऽर्थस्य दुरागमात् ॥
(महाभारत, उद्योगपर्व ३९। ६६)
अर्थात- ‘जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलोक साधक यज्ञादि कर्म करता है, वह मरने के बाद उसके फल को नहीं पाताः; क्योंकि उसका धन बुरे मार्ग से आया होता है।’
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
लेखक – श्री राजेंद्र कुमार जी धवन (कल्याण अंक से साभार)