अजय सिंह चौहान || वाराणसी की यह पौराणिक कथा आज भी शत-प्रतिशत प्रासंगिक है क्योंकि आज भी वाराणसी को रम्य यानी सुन्दर और पर्यटन के लायक बनाने के नाम पर सरकार द्वारा कॉरिडोर बना दिए गए हैं और सैकड़ों पौराणिक तथा प्राचीन मंदिरों और अन्य प्रकार के पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया है जो की इसके यानी काशी के स्वभाव और दिव्यता के एकदम विपरीत है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भगवान शिव की काशी एक बार फिर से उजाड़ होने वाली है? क्योंकि काशी नगरी में रहने वालों और जानकारों को संकेत तो कुछ-कुछ ऐसे ही मिल रहे हैं।
एक पौराणिक कथा जो “वायु पुराण” से ली गई है उसके अनुसार विवाह के बाद भगवान शिव अपने ससुराल अर्थात महाराज हिमवान के घर में रहने लगे थे, ताकि देवी पार्वती को हिमालय के एकांत में सुविधाओं से रहित जीवन न जीना पड़े और वो प्रसन्न रह सकें। समय बीतता गया। आखिरकार, एक दिन देवी पार्वती की माता मैना ने स्त्री स्वभाव के अनुरूप उलाहना दे ही दिया कि तुम्हारा पति इसलिए दरिद्र है क्योंकि वह कुछ करता तो है नहीं और हर समय क्रीड़ा-नृत्य आदि में ही लगा रहता है।
माता का उलाहना देवी पार्वती को लग गया और उन्होंने अपने पतिदेव भगवान शिव के पास जाकर कहा कि, “हे देव! अब मैं यहां नहीं रह सकती। आप मुझे अपने घर ले चलिए।“ इसके बाद भगवान् शिव समझ गए की समय आ गया कि देवी पारवती के लिए एक नगरी का निर्माण करना पड़ेगा। इसलिए देवी पार्वती के आग्रह करने के बाद भगवान शिव ने सभी लोकों का निरीक्षण किया और सम्पूर्ण भूमंडल में वाराणसी क्षेत्र को ही एक ऐसा उपयुक्त स्थान माना जहां वे स्वयं भी वैराग्य जीवन जी सकते हैं और देवी पार्वती को भी हिमालय के अतिरिक्त एक अन्य विशेष एवम सबसे प्रिय स्थान मिल सके।
तब भगवान शिव ने देखा कि वाराणसी क्षेत्र तो दिवोदास नामक एक राजा के द्वारा पहले ही से शासित है। इसलिए उन्होंने अपने गणेश्वर क्षेमक, जिसे निकुंभ भी बुलाया जाता है को आज्ञा दी कि वाराणसी जाकर उसे खाली करा दो, और ध्यान रहे कि वहां किसी भी प्रकार की हानि अथवा किसी का अपमान भी न हो सके।
दरअसल, उस समय राजा दिवोदास के शासनकाल में वाराणसी एक बहुत ही सुंदर और रम्य अर्थात पर्यटन स्थल बन चुकी थी किंतु वैराग्यप्रिय शिव जी को तो ये सब बिलकुल भी पसंद नहीं था। इसीलिए वे उसे खाली करवाना चाहते थे ताकि काशी जैसे सबसे प्रिय स्थान पर एकांत और वैराग्य का जीवन जिया जा सके।
भगवान शिव के आदेश पर गणेश्वर निकुंभ वाराणसी आये और वहां के मंकन नाऊ को स्वप्न दिखलाया कि तुम नगरी के किनारे पर मेरी प्रतिमा स्थापित करो। मंकन ने स्वप्न की यह बात अपने राजा दिवोदास से कही, और राजा ने नगर के प्रवेश द्वार पर विधि-विधान पूर्वक ‘गणेश्वर निकुंभ’ की एक प्रतिमा स्थापित कर दी। देखते ही देखते दर्शनार्थी प्रजा की भीड़ बढ़ने लगी और गणेश्वर निकुंभ वहां नित्य पूजित होने लगे।
राजा दिवोदास की प्रधान रानी अर्थात पटरानी सुयशा भी वहां नित्य पूजन को आने लगीं और संतान कामना हेतु एक बड़े पूजन का आयोजन भी किया गया। रानी ने कई बार पूजन किया किंतु उनकी कामना पूर्ण नहीं हुई। मूर्तिस्वरूप विराजित गणेश्वर निकुंभ का विचार था कि यदि रानी की इच्छा पूर्ण नहीं होगी तभी तो राजा क्रोधित होकर कुछ अनर्थ करेगा, और मेरा कार्य भी तभी सिद्ध हो सकेगा।
इस प्रकार मनचाहा वर न मिलने और समय बीतने के पश्चात भी जब रानी की इच्छा पूर्ण नहीं हुई तो राजा दिवोदास क्रोधित हो गया और कहने लगा कि नगरवासियों की तो इसने कई बार इच्छा पूर्ण की है, किंतु मेरे परिवार की एक भी नहीं सुनी, इसलिए इसकी पूजा अब नहीं की जाएगी। मैं इस दुरात्मा के लिए बनवाया गया पूजा स्थल और इसकी मूर्ति को नष्ट करने का आदेश करता हूं। यह विचार कर उस दुरात्मा राजा ने गणेश्वर निकुंभ का पूजास्थल नष्ट करवा दिया।
अपने निवास को भंग होते देख कर गणेश्वर ने राजा दिवोदास को शाप दिया कि – “निरपराध होते हुए भी तुमने मेरे निवास को नष्ट किया है। इसलिए तुम्हारी यह नगरी भी शून्य हो जाएगी।” गणेश्वर निकुंभ के उस शाप के कारण देखते ही देखते वाराणसी नगरी पूरी तरह से उजड़ कर शून्य होती चली गई, जिसके कारण नागरिकों ने वहाँ से पलायन शुरू कर दिया। वाराणसी के मानव शुन्य होते ही वहाँ भूत-पिचासों और राक्षसों का वास होने लगा और अवसर का लाभ उठाते हुए क्षेमक नाम के एक राक्षस ने भी वहाँ अपना डेरा डाल दिया।
वाराणसी नगरी अगले एक हजार वर्षों तक जन रहित हो गई। “शिव पुराण” की कथा के अनुसार जब वाराणसी जन रहित और वैभव से शून्य हो गई, तब वैरागी भगवान शिव वहां आ गए और लिंग स्वरुप स्थापित हो गए। उस शून्या पूरी में भगवान शिव ने दैविक विभूतियों के द्वारा स्वयं को लिंग स्वरुप स्थापित कर दिया और पास ही में महेश्वरी देवी पार्वती के लिए एक भवन का निर्माण भी करवा दिया, ताकि देवी पार्वती दरिद्रता की ग्लानि से दूर रह सकें और भगवान् शिव के पास ही उस महल में निवास कर सकें।
कथा के अनुसार, काशी में अपने लिये भगवान् द्वारा निर्माण कराये भवन को देखकर पार्वती विस्मित होती रहतीं। भगवान् शिव ने एक दिन उनसे कहा कि – “हे देवी! मैं इस स्थान का अब कभी त्याग नहीं करूँगा। यह मुझसे कभी मुक्त नहीं होगा।” और फिर हास्यपूर्ण मुद्रा में भगवान् शिव ने देवी पार्वती से पुन: कहा कि – “मैं अपने इस घर से कहीं नहीं जाऊँगा। अब यही मेरा अविमुक्त स्थान और भवन है। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ। मैं तो सदा यहीं रहूँगा।” और सी प्रकार काशी का नाम “अविमुक्त” पड़ गया।
और इस प्रकार से भगवान्व शिव और माता पार्वती वहाँ तीनों युगों में स्थित रहने लगे। लेकिन, मात्र कलिकाल अर्थात कलियुग में यह काशी पुर अन्तर्हित अर्थात अंदर समाया रहता है। इस प्रकार, ज्ञानवापी में कोर्ट के आदेश के बाद जिस शिवलिंग की प्राप्ति हुई है यह वही लिंग है जो अन्तर्हित है, अर्थात अंदर समाया हुआ है। और इसके एकदम समीप ही में जिस महल का निर्माण किया गया था उस स्थान पर आज भी महल अर्थात मंदिर मौजूद है और उसी में अनादि काल से माता गौरी की पूजा होती आ रही थी, लेकिन मुग़ल आक्रमणों के बाद वह पूजा खंडित हो गई।
दरअसल, पौराणिक तथ्यों के अनुसार काशी इसीलिए उजाड़ हो गई थी क्योंकि वहां बिना कारण ही ‘गणेश्वर निकुंभ’ के एक पूजा स्थल का अपमान हुआ और उसे नष्ट कर दिया गया था। इसके बाद राजा दीवोदास ने वाराणसी पूरी का त्याग कर दिया और अपनी राजधानी के तौर पर गोमती नदी के तट पर एक अन्य नगरी की स्थापना कर डाली।
वाराणसी की वह प्राचीन कथा आज भी शत-प्रतिशत प्रासंगिक है। क्योंकि आज भी वाराणसी को पर्यटन योग्य बनाने के नाम पर आलिशान कॉरिडोर बनाए गए हैं और पूजा स्थलों को एकदम नष्ट कर दिया गया है जो इसके स्वभाव के एकदम विपरीत है। ऐसे में सवाल उठता है कि भगवान शिव की काशी क्या फिर से उजाड़ होने वाली है? क्योंकि काशी नगरी में रहने वालों को संकेत तो कुछ-कुछ ऐसे ही मिल रहे हैं।
हालाँकि, जब शाप के एक हजार वर्ष बीत गए तब राजा दिवोदास के वंशज महाबाहु राजा अलर्क ने उस क्षेमक राक्षस का वध करके वाराणसी पूरी को पुनः अपना निवास स्थान बना लिया था। इस प्रकार वाराणसी में राजा अलर्क का राज स्थापित हुआ और उसकी वंश परंपरा आगे बढती गई और बढ़ते-बढ़ते इस वंश में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों ही वर्ण फलने-फूलने लगे। इस प्रकार काशी के राजवंश में राजा रजि का भी शासन हुआ।
काशी अर्थात वाराणसी पर शासन करने वाले राजा रजि के क्षत्रियत्व बल से देवराज इंद्र भी भयभीत रहते थे। तभी देवासुर संग्राम भी हो गया। दोनों पक्षों ने ब्रह्मा जी से पूछा कि हमारे इस युद्ध में कौन विजय होगा कृपा कर के बताएं? तब ब्रह्मा जी ने कहा कि जिस पक्ष की ओर से राजा रजि शस्त्र लेकर रण भूमि में उपस्थित होंगे, वही विजय होगा। वे त्रिलोकी पर विजय पा सकते हैं। क्योंकि जहां रजि हैं वहीं लक्ष्मी है, वहीं धैर्य तथा शांति है। जहां धैर्य है वहीं धर्म है, जहां धर्म है, वहीं विजय है।