अजय सिंह चौहान || पश्चिम भारत यानी आज के अफगानिस्तान, तुर्की ईरान आदि में ऋज्राश्व नाम के कोई ऋषि थे। जरदस्त्र नाम का उनका एक दौहित्र अर्थात नाती था। वह ब्राह्मणों से द्वेष रखता था। ये बात है मंत्र निर्माण-काल की, अर्थात संभवतः त्रेता युग की।
ब्राह्मणों से द्वेष रखने के कारण वह यहां से पश्चिम दिशा की और चला गया और आज के अरब देशों की भूमि पर रहने लगा। वहाँ जाकर उसने ब्राह्मणों से संबंधित प्रचलित ब्राह्मी लिपि को छोड़कर, विपरीत यानी उल्टे क्रम से लिखी जाने वाली खरोष्ठी भाषा जिसे आज की उर्दू भाषा कहा जाता है उस लिपि की कल्पना की और उसे साकार भी कर दिया। जबकि वहाँ पहले से ब्राह्मी लिपि चलती थी। ब्राह्मी लिपि बाँई ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती है, जबकि खरोष्ठी लिपि दाहिनी ओर से बांई ओर लिखी गई। स्वभाव और प्रकृति के अनुरूप ही खरोष्ठी लिपि शाकद्वीप तथा अन्य देशों में खूब प्रचलित हुई।
आगे चलकर इसी खरोष्ठी लिपि के विकार से अनेक लिपियाँ भी उत्पन्न होती चली गई। जरदस्त्र के अनुयायी लोगों का आचरण भी इसी लिपि के समान विपरीत था इसलिए स्वभावतः उन लोगों में यह जल्दी फैलने लगी। आगे चलकर वहां से कई लोग भारत भूमि पर आए और अपने साथ उस खरोष्ठी भाषा और लिपि को भी लाए।
भारत में भी धीरे धीरे खरोष्ठी लिपि व्यवहार में आने लगी। जबकि यहां पहले से ब्राह्मी लिपि चल रही थी। इस प्रकार यहां दोनों प्रकार की लिपियों का चलन और प्रचार हुआ जिसके कारण धीरे-धीरे ब्राह्मी तथा खरोष्ठी दोनों ही लिपियों में कुछ-कुछ विकृतियाँ आने लगीं।
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हालाँकि इस बात को हजारों वर्ष बीत चुके थे, किन्तु फिर भी खरोष्ठी लिपि भारत भूमि पर उतना प्रभाव नहीं डाल पाई थी जितना की उसने अरब के क्षेत्रफल में विस्तार किया था। क्योंकि देवभूमि होने के कारण भारतीय क्षेत्रफल नकारात्मक स्वभावों और लोगों से दूर रहता था, इसी कारण खरोष्ठी लिपि को यहां पनपने का उचित अवसर नहीं मिल पाया था।
किंतु जैसे जैसे यहां सनातन धर्म से अन्य पंथ निकलने लगे वैसे-वैसे खरोष्ठी लिपि का प्रभाव भी बढ़ने लगा, और भारत भूमि पर इसका आम लोगों के बीच प्रचार-प्रसार और उपयोग तब शुरू हुआ जब चंद्रगुप्त मौर्य के पोते और बिम्बसार के पुत्र सम्राट अशोक ने अपने शाशनकाल में बौद्ध अनुयाइयों को भारत भूमि पर शरण दी और उनका खूब सहयोग भी किया। उसका खामियाजा ये हुआ कि उन बौद्धों के कारण हमारी सीमाएं कमजोर होने लगीं और तभी पश्चिम भारतीय यानी आज के अफगानिस्तान, तुर्की ईरान आदि क्षेत्रों की सीमाओं से खरोष्ठी भाषी अर्थात म्लेच्छ लोग आसानी से भारत में प्रवेश करने लगे और सनातन संस्कृति, भाषा और भूमि पर कब्ज़ा करने लगे। हालाँकि बावजूद इसके आज भी भारतीय भाषाएँ सुरक्षित है, भले ही आज हमारी मूल भाषाओं को वो सम्मान प्राप्त नहीं है।