अमृती देवी || श्रीमद भगवद गीता में कहा गया है कि कर्म का सिद्धांत अत्यंत कठोर है। जहां व्यक्ति के अच्छे कर्म उसे जीवन को प्रगति की दिशा में ले जाते हैं, वहीं उसके बुरे कर्म उसे पतन की ओर ले जाते हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का फल हर एक मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म को प्रधानता देते हुए यहां तक स्पष्ट किया है कि व्यक्ति की यात्रा जहां से छूटती है, या जहां से उसकी आयु समाप्त हो जाती है, अगले जन्म में वह वहीं से प्रारंभ होती है।
तो आईये जानते हैं कि श्रीमद भगवद गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने कर्म के सिद्धांत और उसके फलों को कितनी सरलता से समझा है-
श्रीकृष्ण ने मनुष्य को संदेश दिया है कि कर्म मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं- 1. क्रियमाण, 2. संचित और 3. प्रारब्ध। यहां अगर हम इन तीनों ही कर्मों को विस्तार से जाने तो इनमें से अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ कर्म कहलाते हैं। अर्थात जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं, वे सब केवल मनुष्य जन्म में ही बनते हैं। पशु-पक्षी आदि की योनियों में नहीं। क्योंकि पशु-पक्षी आदि की योनियां तो मनुष्य को उसके कर्मफल भोगने के लिये दी जाती है।
दूसरा है संचित कर्म- संचित कर्म के अनुसार वर्तमान से पहले इस जन्म में किये हुए अथवा भूतकाल के मनुष्य जन्मों में किये हुए जो भी अच्छे या बुरे कर्म संग्रहीत हैं, वे ‘संचित कर्म’ कहलाते हैं। अर्थात यदि किसी व्यक्ति को उसके अच्छे या बुरे कर्मों का फल इसी जन्म में नहीं मिल पाता है तो उसके अगले जन्म में उसे इन सब कर्मफलों को भोगना ही होगा। फिर चाहे किसी भी युग में या काल में उसका जन्म क्यों न हो।
गीता के अनुसार तीसरा प्रमुख कर्म है ‘प्रारब्ध कर्म’। प्रारब्ध कर्म के अनुसार मनुष्य के संचित या संग्रहित कर्म फलों में से जो कर्म फल भोगने के लिये तय किये जाते हैं अर्थात् उसके जन्म, आयु और सुख-दुःख की परिस्थिति के रूप में देने के लिए सामने आते हैं, वे ‘प्रारब्ध कर्म’ कहलाते हैं।
अतः यहां हमें इस बात को जान लेना चाहिए कि परमात्मा के कानून के अनुसार ही हमें अपने पापों का फल कम या अधिक, या फिर आंशिक रूप से भोगना पड़ता है। यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु अनायास या अकाल हो जाती है तो उसके कर्मों का वह फल उसे अगले जन्म में भी भोगना ही पड़ेगा।
मनुष्य को ऐसी आशंका कभी नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो बहुत छोटा या बहुत कम कम था, लेकिन, दण्ड उससे कहीं अधिक भोगना पड़ रहा है। या फिर, जो पाप मैंने किया ही नहीं उसका भी दण्ड मुझे मिल रहा है। तो इसका कारण यही है कि यह प्रकृति का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कभी भी किसी को भी नहीं मिलता। लेकिन, जो भी दण्ड मिलता है, वह किसी-न-किसी पाप कर्म का ही परिणाम होता है।