सत्वगुण के साथ सन्मार्ग पर चलने वाले लोगों के जीवन में बहुत विघ्न बाधाएं आती हैं, जबकि दुष्ट जनों के कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। ऐसा अनुभव आप सभी को भी कभी न कभी हुआ होगा।
यह सवाल ब्रह्मा, विष्णु और शिव के समक्ष भी उपस्थित हुआ कि सच्चे लोगों को तो दुख भोगना पड़ता है और पाखंडी, दुश्चरित्र लोगों का काम बड़े आराम से हो जाता है। चूंकि पिछले जन्म का कर्म इस जन्म का प्रारब्ध है, तो इससे किसी को वंचित भी नहीं किया जा सकता है।
मान लीजिए पिछले जन्म में कोई सच्चरित्र था और इस जन्म में दुष्टता कर रहा है तो भी पिछले जन्म के अच्छे कर्म के कारण इस जन्म में उसे तब तक लाभ मिलता रहेगा जब तक पिछले जन्म का कर्म प्रभावी रहेगा। योग वशिष्ठ और गीता से लेकर सारे सनातन धर्म शास्त्र इसे स्पष्ट करते हैं।
कर्म के विधान को बदला नहीं जा सकता, इसलिए शिव ने इसका एक उपाय सोचा। वराह पुराण में एक कथा आती है कि शिव ने अपने आकाश तत्व से विनायक (गणेश) को प्रकट किया।
फिर शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के साथ चर्चा कर विनायक को सत्पुरुषों के कार्य को निर्विघ्न संपन्न कराने और दुष्टों के कर्म में बाधा उत्पन्न करने का कार्य सौंपा।
पुराण कहते हैं कि इसीलिए कोई भी कार्य आरंभ करने से पूर्व सर्वप्रथम विघ्नों को शांत करने के लिए गणेश का पूजन करना चाहिए। जो व्यक्ति अपने हर शुभ कार्य में गणेश जी की प्रथम पूजा करता है, उसके कार्य में फिर बाधा नहीं आती है।
इस तरह त्रिदेव ने कर्म के सिद्धांत को भी अछूता रखा और गणेशजी को हर मनुष्य के कर्म पर दृष्टि रखने की भूमिका भी सौंप दी।
गणेशजी चूंकि गणों के प्रधान हैं, इसलिए एक तरह से वह हम सभी के वर्तमान कर्मों के द्वारपाल हैं। माता पार्वती द्वारा अपने उबटन से उनके निर्माण या फिर परशुरामजी के साथ उनके युद्ध के आध्यात्मिक महत्व को यदि हम समझें तो वहां भी वह द्वारपाल की भूमिका का निर्वहन करते हुए कभी अपने पिता शिव से तो कभी अपने पिता के प्रिय शिष्य परशुरामजी से युद्ध करते हुए प्रतीत होते हैं।
आजकल हर कोई मुंह उठाकर पुराणों पर या हमारे देवी-देवताओं पर कुछ भी बोल देता है। धर्म के मर्मज्ञ एडवोकेट पी.एन.मिश्रा जी कहते हैं, “हिंदू देवी देवताओं से संबंधित गूढ़ार्थ का जिस व्यक्ति को बोध नहीं उस पर उसे टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा है, “ परोक्ष प्रिया हि देवा:” अर्थात देवता अथवा देवतुल्य विद्वान अपनी बात को प्रच्छन्न रखते हैं । सरलार्थ लेने पर लोग अनर्थ कर बैठते हैं ।”
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आगे एक उदाहरण देकर पी.एन.मिश्रा समझाते हैं, “हठ योग प्रदीपिका में एक श्लोक है जिसमें लिखा है कि जो माता को नहीं मारता, पूँछ सहित गाय को नहीं खाता तथा वारुणी मदिरा नहीं पीता वह योगी नहीं हो सकता। बाद के श्लोक में बताया गया है कि माता करने का अर्थ है ममतारूपी माता को मारना। पूँछ सहित गाय के भक्षण का अर्थ है जिह्वा को तालु के कुहर ( गुहा) में प्रवेश करवाकर खेचरी मुद्रा लगाना । वारुणी का अर्थ है तालू से चिपकी जिह्वा पर सहस्रार से टपकने वाले अमृत रस का पान करना।”
हमारे पुराणों को न समझने वालों ने सीधे-सीधे अर्थ लेकर यही अनर्थ किया है। गणेशजी हमारे वर्तमान कर्मों के प्रहरी हैं, अतः वह प्रथम पूज्य हैं। इसी सरलार्थ को पुराणों में अलग-अलग कथा के जरिए कहा गया है।
आचार्य महेशचंद्र जोशी जी ने ‘गणेश पुराण’ की अपनी भूमिका में लिखा है, “गणपति संज्ञा का प्रथम प्रयोग ऋग्वेद में प्राप्त होता है। ऋग्वेद के 10वें मंडल के संपूर्ण 112 वें सूक्त को गणपति सूक्त के रूप में स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद का ‘गणानां त्वा गणपति हवामहे…’ इस मंत्र के द्रष्टा ऋषि गृत्समद बताए गये हैं।”
आम जनों को वेद समझ में नहीं आएगा, इसीलिए उसकी व्याख्या के रूप में पुराण, उपपुराण और औपपुराणों की रचना हुई। महर्षि वेदव्यास जी ने जैसे अपने अलग-अलग शिष्यों को अलग-अलग वेद पढ़ाया, वैसै ही अपने शिष्य लोमहर्षण सूत जी को पुराणों का ज्ञान दिया। अतः महर्षि व्यास कहते हैं कि जिन्होंने पुराणों का अध्ययन नहीं किया, उससे वेद भी भय खाते हैं कि वह उनके अर्थ का अनर्थ कर देगा।
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