भारत में अति प्राचीन काल से एक कहावत प्रचलित है कि ‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है’ यानी असली भारत गांवों में ही बसता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश की कुल जनसंख्या 121,02 आंकलित की गई है जिसमें 68.84 प्रतिशत आबादी गांवों में वास करती है और 31.16 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 एवं 17 प्रतिशत था। 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। इन आंकड़ों के देखने पर स्पष्ट होता है कि ग्रामीणों का पलायन शहरों की तरफ बहुत तेजी से हुआ है।
इसका सीधा सा आशय इस बात से है कि गांवों से शहरों की तरफ लोगों का पलायन बहुत तेजी से हुआ है। जिस गति से पलायन हुआ है, उससे यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि हमारे विकास की प्रणाली में कोई न कोई खोट अवश्य है। गांवों का ठीक एवं समग्र दृष्टि से विकास हुआ होता तो ग्रामीणों को इतने व्यापक स्तर पर शहरों की तरफ पलायन करने की नौबत नहीं आती।
यह भी अपने आप में एक कटु सत्य है कि पलायन की पीड़ा वही जान सकता है जिसका पलायन हुआ है। पलायन भी अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या है। इसके साथ ही पलायन से अन्य प्रकार की और समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के तौर पर जिस शहर में ग्रामीण लोग पलायित होकर जाते हैं, वहां की स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, परिवहन, आवासीय एवं अन्य तरह की व्यवस्थाएं जनसंख्या के अत्यधिक बोझ के कारण ध्वस्त हो जाती हैं और पलायन की वजह से गांवों में दूसरी तरह की समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
हिंदुस्तान के तमाम गांवों में आज इस कदर पलायन हो चुका है कि गांव के गांव वीरान हो चुके हैं। कई गांवों के तमाम घरों की ऐसी स्थिति है कि उन घरों में कोई दिया-बाती करने वाला भी नहीं बचा है। तमाम घरों में परिवार के नाम पर सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं। इस बात में भी एक तथ्य यह है कि ये वही बुजुर्ग बचे हैं, जिन्होंने अपने बच्चों के साथ शहरों में जाने से बिल्कुल मना कर दिया है। वैसे भी बुजुर्ग पीले पत्तों के समान होते हैं। पेड़ों से टूटकर कब अलग हो जायें कुछ कहा नहीं जा सकता है। इन पीले पत्तों यानी बुजुर्गों को वास्तविक रूप मेें जिस समय सहारे की जरूरत थी, उस समय इनके बच्चे शहरों में दाल-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे थे या अपने उज्जवल भविष्य के लिए शहरों में जाकर बस गये थे।
गांवों से शहरों में लोगों के पलायन से जहां गांवों में मानव शक्ति की कमी होती जा रही है और कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग एवं अन्य सभी तरह के कार्य प्रभावित हो रहे हैं वहीं शहरों की जनसंख्या इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि हर तरह की समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर किसी भी दफ्तर में चले जाइये, भारी जनसंख्या की वजह से लाइनों का तांता ही कम नहीं होता। शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, बिजली एवं अन्य सुविधाएं चरमरा गईं। शहरों की व्यवस्था जब तक थोड़ी सी सुधरती है, तब तक उसी अनुपात में जनसंख्या बढ़ जाती है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि आबादी की अधिकता के आगे शहरी शासन-प्रशासन बिल्कुल बेबस है। गांव छोड़ने के कारण लोगों में संस्कारों एवं संस्कृति में भी कमी आई है। गांवों में लोगों के रहने से कुल देवी-देवता की पूजा-पाठ, रीति-रिवाज, रहन-सहन, परंपराएं, खान-पान एवं संस्कार आदि का विधि-विधान से पालन बहुत अच्छे से हो जाता है, किन्तु शहरों में आने के बाद लाख चाहने के बाद भी लोग इन परंपराओं का पालन नहीं कर पाते हैं।
यदि शहर एवं गांव दोनों को आबाद रखना है तो जनसंख्या का संतुलन बनाना ही होगा, उसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन को किसी भी रूप में रोका जाये। गांवों से पलायन रोकने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि ग्रामीण भारत यानी गांवों का समग्र विकास किया जाये। यह बात भी अपने आप में सत्य है कि जब तक गांवों का समग्र विकास नहीं होगा, तब तक पलायन नहीं रुक सकता।
यही सब वे बातें हैं जिनकी वजह से गावों से लोगों का पलायन होता है। यही वे सुविधाएं हैं जिनकी वजह से गांवों से शहरों की तरफ पलायन हुआ है और जिस दिन ये सारी सुविधाएं गांवों में मिलनी शुरू हो जायेंगी, पलायन होना बंद हो जायेगा। हमारे देश की केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारें गांवों के समग्र विकास को मिशन के रूप में लेकर जितनी तीव्र गति से कार्य करेंगी, उतना ही अच्छा होगा।
हालांकि, गांवों के विकास के लिए केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की तरफ से अनेक प्रकार की योजनाएं एवं कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं किन्तु भ्रष्टाचार की वजह से इन विकास कार्यों एवं योजनाओं का शत-प्रतिशत क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने स्पष्ट रूप से कहा था कि गाांवों के विकास के लिए यदि एक रुपया भेजा जाता है तो नीचे तक मुश्किल से 15 पैसे ही पहुंच पाता है, बाकी धन राशि बीच में ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। देश में जब इस प्रकार की स्थिति हो तो क्या कहा जा सकता है?
इस संदर्भ में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात की जाये तो उन्होंने भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए बहुत सार्थक प्रयास किया है। सब्सिडी के रूप में मिलने वाली कई तरह की सहूलियतें अब सीधे गांववासियों के खातों में दी जा रही हैं। इससे लोगों को बहुत राहत मिल रही है। प्रधानमंत्री जी का स्पष्ट रूप से मानना है कि राष्ट्र के समग्र विकास के लिए गांवों का समग्र विकास बहुत जरूरी है।
गांवों के विकास की दृष्टि से यदि अपने अतीत की बात की जाये तो उस समय एक अवधारणा यह थी कि गांव की सभी जरूरतों एवं समस्याओं का निदान गांवों में ही कर लिया जाये। जिस गांव की ऐसी स्थिति होती थी, वही गांव आदर्श गांव की श्रेणी में आते थे। उस समय गांवों की सीमाएं इसी बात को ध्यान में रखकर तय की जाती थीं कि पूरे गांव का भ्रमण करने के लिए किसी वाहन की आवश्यकता न पड़े। पूरे गांव का भ्रमण आसानी से पैदल कर लिया जाये। इससे आवागमन में पैसे की जरूरत नहीं पड़ती थी और वाहनों की आवश्यकता न होने के कारण पर्यावरण शुद्ध रहता था और प्रदूषण की भीषण समस्सया से गांव बचे रहते थे। इसके साथ-साथ पैदल चलना स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभकारी था।
इन सब बातों का लब्बो-लुवाब यही है कि स्थानीय स्तर पर ही रहकर सभी तरह की जरूरतें पूरी कर ली जायें और सभी तरह की समस्याओं का निदान कर लिया जाये। जरूरतें एवं समस्याएं चाहे जिस भी प्रकार की हों। इसी व्यवस्था को अपनाने एवं उस पर पूरी तरह अमल करने के कारण भारत विश्व गुरु था। वैसे भी देखा जाये तो गांवों में रहने के कारण सब कुछ बचत ही बचत में था। भोजन, दवाई, पढ़ाई एवं अन्य तरह के सभी कार्य गांवों में ही हो जाते थे।
ऐसी स्थिति में अब सवाल यह उठता है कि गांवों का समग्र विकास कैसे हो और गांवों को गांव कैसे बनाया जाये? पहले गांवों में रहने वाले बच्चों को नाना-नानी के घर जाने की खबर ऐसे प्रफुल्लित कर देती थी जैसे वे स्विटजरलैंड जाने वाले हैं। कहने का मतलब यही है कि उस समय संबंधों में कितनी आत्मीयता थी?
गांवों की एक अच्छी बात आज भी यह है कि अपने गांव में बच्चे पिता के नाम से ही जाने जाते हैं और ननिहाल में जाने पर मां के नाम से जाने जाते थे। कुछ समय पूर्व तक गांवों में जब कोई बच्चा अपने ननिहाल जाता था तो वह पूरे गांव का भांजा या नाती हुआ करता था। पूरे गांव के लोग उसके मामा-मामी एवं नाना-नानी हुआ करते थे। वह बच्चा पूरे गांव में स्वच्छंद होकर वैसे ही घूमता था, जैसे अपने मामा-मामी एवं नाना-नानी के घर, परंतु अब एहसास होता है कि गांव भी अब वे गांव नहीं रहे जैसे कि हुआ करते थे। आज हमें इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि गांवों को पुनः गांव कैसे बनाया जाये?
तमाम लोग आज यह कहते हैं कि गांवों में भी धीरे-धीरे वे सारी सुविधाएं उपलब्ध होती जा रही हैं जो शहरों में है किन्तु हमें इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि गांव भी इतने महंगे न हो जायें कि आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाली स्थिति उत्पन्न हो जाये। गांवों का समग्र विकास करना है कि वहां ऐसी मानसिकता का विकास करना होगा, जिससे वहां की सामूहिकता बरकरार रहे। किसी कारणवश जब से लोगों का नियमित रूप से मिलना-जुलना एवं उठना-बैइना कम हुआ है तभी से समस्याओं ने पांव पसारना शुरू किया।
गांवों के समग्र विकास हेतु कृषि में सुधार, कृषि लागत में कमी, गांवों का आर्थिक पुनर्निर्माण, सहकारी विपणन, सहकारी साखा, बीमा व बचत योजनाएं, परिवहन के साधनों का विकास, कुटीर एवं ग्रामीण लोगों को प्रोत्साहन, व्यापारिक मेलों एवं प्रदर्शनियों का आयोजन, बिचैलियों की कमी, पशुओं की नस्लों में सुधार, बेकारी तथा गरीबी दूर करना, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, राजनैतिक जागृति, मुकदमेंबाजी में कमी, विभिन्न सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति, सफाई पर समुचित ध्यान, भूमिहीन किसानों के लिए भूमि, प्राकृतिक आपदाओं से बचाव तथा सहायता, ग्राम पंचायतों के कार्य सहित अन्य अनेक मामलों में गहनता से विचार-विमर्श कर आगे बढ़ना होगा। हालांकि, इनमें तमाम कार्य किसी न किसी रूप में किये जा रहे हैं किन्तु फिर भी जितना बेहतर किया जा सके, उसे करने की आवश्यकता है।
इन सब बातों के अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रामीण भारत का विकास महानगरों के विकास की मानसिकता से न किया जाये। गांवों को गांव मानकर ही विकास किया जाये और यह मानकर चला जाये कि गांव आबाद होंगे तो शहर भी आबाद होंगे और गांव-शहर दोनों आबाद होंगे तो देश आबाद होगा। जिस दिन भारत ऐसी स्थिति में पहुंचेगा, उसी दिन से भारत के पुनः विश्व गुरू बनने की शुरुआत होगी और देश सोने की चिड़िया बनकर फिर से वैश्विक परिदृश्य में चहकेगा।
– सिम्मी जैन