जो लोग वर्णाश्रम-धर्म को अस्वीकार करते हैं,
जो लोग अपने स्वधर्म से पलायन कर चुके हैं,
जो लोग दिन-रात ब्राह्मणों की निन्दा को ही अपना धर्म समझ बैठे हैं, जो लोग स्मार्त परंपरा को त्यागकर स्वेच्छाचार और मनमानी को साधना मानते हैं :—
यही लोग आगे चलकर ढोंगी, फ़र्ज़ी बाबाओं और पाखण्डी गुरुओं के चरणों में गिरते हैं।
शास्त्र-विहीन भक्ति, गुरु-विहीन मार्ग और परंपरा-विहीन आस्था उन्हें सत्य से नहीं, विनाश की ओर ले जाती है।
ऐसे लोग जीवन भर पाखण्ड, अंधविश्वास और भ्रम के दलदल में फँसे रहते हैं, और स्वयं को सनातनी कहलाते हुए भी
नास्तिकों से कहीं अधिक सनातन धर्म को क्षति पहुँचाते हैं।
नास्तिक तो बाहर से वार करता है, पर ये भीतर से धर्म की जड़ों को खोखला कर देते हैं।
याद रखो :—
सनातन धर्म कोई प्रयोगशाला नहीं, ना ही मनमर्जी का खेल है। यह शास्त्र, परंपरा, गुरु और स्वधर्म से जीवित रहता है।
जो इससे विमुख होता है, वही अंततः पाखण्ड का दास बनता है।
प्रस्तुत: पंडित राजकुमार मिश्र