जब से श्री अयोध्या धाम में रामलला गर्भगृह में विराजमान हुए हैं, तब से भारत के विपक्षी दल यही साबित करने में लगे हैं कि धर्म की आड़ में यह एक राजनीतिक कार्यक्रम था इसलिए वे नहीं गये। इसके लिए विपक्षी दलों ने शंकराचार्यों की भी खूब चर्चा की किन्तु यह अलग बात है कि सत्ता में रहते हुए कांग्रेस एवं विपक्षी दलों ने पूज्य शंकराचार्यों एवं साधु-संतों का कभी सम्मान नहीं किया। बहरहाल, जो भी हो किंतु एक बात बिना संकोच के कही जा सकती है कि शासन-प्रशासन में धर्मानुकूल आचरण का पालन नहीं होता है तो अराजकता ही फैलती जाती है। इस बात पर यदि गंभीरता से विचार एवं विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति की बाद से ही हर काल चक्र में किसी न किसी रूप में रामायण एवं महाभारत की घटनाएं घटित होती रही हैं। इस दृष्टि से यदि रामायण की व्याख्या की जाये तो पूर्णरूप से यह धर्म युद्ध था, इसका संबंध नियमों, सिद्धांतों एवं प्रकृति के अनुरूप था। प्रभु श्रीराम के चरित्र, उनकी कार्यप्रणाली, उनके आचार-विचार, रिश्तों की मर्यादा एवं शासन के प्रति उनके कर्तव्यों की व्याख्या है। रामायण से हमें विदित होता है कि प्रभु श्रीराम का जीवन नैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक रूप से सभी के लिए प्रतीक है इसीलिए वह पुरुषोत्तम कहलाये।
कहने का आशय यह है कि जीवन में कदम-कदम पर मर्यादा का पालन होना चाहिए। यदि सभी लोग आज के भी युग में कदम-कदम पर मर्यादा का पालन करने लगें तो भारत सहित पूरे विश्व की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है। इस दृष्टि से यदि महाभारत की बात की जाये तो यह पूर्ण रूप से धर्म की स्थापना के लिए था। अधर्म पर धर्म की विजय के लिए था। तरह-तरह के षड्यंत्रों के माध्यम से पांडवों के विनाश का प्रयास हो रहा था, जबकि विकट परिस्थितियों में रहते हुए भी पांडव कभी धर्म से डिगे नहीं, तब भी उन्हें चैन से नहीं रहने दिया गया। इन्हीं परिस्थितियों के बीच भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया और कूटनीतिक एवं रणनीतिक तरीकों से अधर्मी लोगों एवं उनका साथ देने वालों का विनाश कर धर्म की स्थापना की। महाभारत की व्याख्या करने पर यह भी कहा जा सकता है कि धर्म की स्थापना के लिए साम, दाम, दंड एवं भेद का भी प्रयोग किया गया, किंतु यह सब मात्र धर्म की स्थापना के लिए ही था।
आज की परिस्थितियों में यदि भारत की बात की जाये तो मुगलों एवं अंग्रेजों की लंबी गुलामी के बाद भारत को काफी संघर्ष के बाद आजादी मिली किंतु आजाद होने के तुरंत बाद जिस प्रकार की शासन व्यवस्था देखने को मिली उस परिस्थिति में लोगों को ऐसा लगा कि अंग्रेज भारत को आजाद करके भले ही चले गये किंतु वे अपने प्रतिनिधि के रूप में अपना पिट्ठू छोड़ गये यानी इसे यूं भी कहा जा सकता है कि गोरे अंग्रेज तो चले गये किंतु आचार-विचार, कार्यप्रणाली एवं स्वभाव से गोरे अंग्रेजों की प्रतिमूर्ति भारतीय अंग्रेज अपने प्रतिनिधि के तौर पर छोड़ गये।
यह वही दौर था, जब भारत में कांग्रेस का शासन था। जिस प्रकार मुगलों एवं अंग्रेजों ने भारत की सभ्यता-संस्कृति, शिक्षा एवं समग्र दृष्टि से भारतीयता को बदलने एवं बर्बाद करने का काम किया, ठीक वही काम कांग्रेस ने भारत के आजाद होने के बाद किया। भारतीय जनमानस को अंधेरे में रखकर ऐसी आजादी दिलाई गयी, जिसे भारतीय तो आजादी मानते रहे किंतु वह वास्तव में भारतीय आत्मा के अनुरूप नाम मात्र की भी आजादी नहीं थी। बदलाव सिर्फ इतना ही हुआ कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज यानी भारतीय अंग्रेज शासन में आ गये। इसे आज भी तमाम लोग नाम मात्र की यानी छद्म आजादी ही मानते हैं। सही मायनों में देखा जाये तो अंग्रेजी शासन के दौरान जो कानून थे, उनमें से ही अधिकांश कानून भारतीय संविधान में ले लिये गये। तमाम बदलावों के बावजूद वे कानून आज भी मौजूद हैं जिसका खामियाजा आज भी देश भुगत रहा है।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता वाली मानसिकता के कारण विघटनकारी व विभाजनकारी नीतियों का अनुशरण करते हुए कांग्रेस ने 1979 में श्री मोरारजी देसाई और उसके बाद श्री चरण सिंह व श्री चंद्रशेखर जी के नेतृत्व में चल रही सरकारों को गिरवाया और उसके बाद वर्ष 1996 में तेरह दिन एवं वर्ष 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 13 महीने की सरकार बनी, परन्तु वर्ष 1999 में अटल जी के नेतृत्व में फिर सरकार बनी जो वर्ष 2004 तक चली किंतु यह सरकार मिली-जुली सरकार थी। इस सरकार में पूर्ण बहुमत के अभाव में भाजपा नेतृत्व जो कुछ करना चाहता था, पूर्ण रूप से नहीं कर पाया। अंततोगत्वा अत्यधिक मर्यादित होने के कारण 2004 में अटल सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। अटल सरकार के जाने के बाद देश में दस वर्षों तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार रही जिसने अटल जी के अच्छे कार्यों को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। बहरहाल, वर्ष 2014 में श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में एनडीए की पूर्ण रूप से बहुमत की सरकार बनी। हालांकि, भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल गया था किंतु पार्टी ने एनडीए के सभी सहयोगियों को अपने साथ रखा।
वर्ष 2014 में मोदी जी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार तो बन गयी किंतु स्पष्ट रूप से देखने में मिला कि लंबे समय से कांग्रेस द्वारा बोया गया बीज पूरे देश, हर क्षेत्र, हर गली-मुहल्लों एवं चैराहों तक सड़ने लगा था। इन सड़े बीजों की सफाई ही मोदी जी की प्राथमिकता बना क्योंकि बिना इस सड़े बीजों की सफाई के देश के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। इन सड़े बीजों की यदि व्याख्या की जाये तो ये भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद, परिवारवाद, तुष्टीकरण एवं अन्य रूपों में थे। इन सारी बीमारियों या यूं कहें कि बुराइयों के प्रति संषर्घ या युद्ध ही तो धर्मयुद्ध है। इन्हीं बुराइयों के खिलाफ तो युद्ध रामायण एवं महाभारत में भी देखने को मिलता है। इन बुराइयों से लड़ने में यदि भारत के नेताओं का नाम लिया जाये तो उसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का नाम सबसे ऊपर आता है। उनके साथ इस धर्म युद्ध में वैसे तो पूरा मंत्रिमंडल ही चल रहा है परंतु विशेष रूप से कंधे से कंधा मिलाकर जो योद्धा चल रहे हैं वे श्री राजनाथ सिंह, श्री अमित शाह, श्री नितिन गडकरी एवं श्री योगी आदित्य नाथ हैं। वास्तव में इन पांचों योद्धाओं में देश की जनता अब महाभारत काल के पांडवों का रूप देखने लगी है। मोदी जी के नेतृत्व में आज की सरकार जो कुछ भी कर रही है वह पूरी तरह धर्मसम्मत है। इस दृष्टि से यदि कांग्रेस या ‘इंडी’ गठबंधन की बात की जाये तो वह भाजपा के मुकाबले कहीं टिकती भी नहीं है।
कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए खुले आम जमकर सत्ता का दुरुपयोग किया। सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग एवं सत्ता तंत्र का उपयोग अपने विरोधियों के खिलाफ जमकर किया। राज्यपालों के माध्यम से अपनी राजनीतिक इच्छाओं की पूर्ति कांग्रेसी राज में खूब व्यापक स्तर पर देखने को मिला। देश को वह घटना आज भी याद है जब बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा था तो उत्तर प्रदेश सरकार के साथ भाजपा की राजस्थान एवं हिमाचल प्रदेश की सरकार को भी बर्खास्त कर दिया गया था। अब अगर कांग्रेस पार्टी के लोगों से यह पूछा जाये कि उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त करना तो समझ में आता है किंतु भाजपा की अन्य राज्य सरकारों को किस आधार पर बर्खास्त किया गया? इसे अधर्म नहीं कहेंगे तो क्या कहेेंगे? कांग्रेसी राज में वर्ष 1967 में गौ हत्या के विरोध में धरने पर बैठे साधु-संतों पर गोलियां चला दी गईं। साधु-संतों पर गोलियां चलवाना किस रूप में धर्मसम्मत है? राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बार-बार प्रतिबंध लगाना कहां से उचित कहा जा सकता है? इसी देश में रोजा इफ्तार की पार्टियों में कांग्रेसी एवं सेकुलर नेता खूब सज-धज कर जालीदार टोपी पहन कर जाते थे तो वे धर्मनिरपेक्ष कहे जाते थे किंतु जब कोई नेता किसी मंदिर में जाता था तो उसे सांप्रदायिक करार दे दिया जाता था। अपने धर्म के अनुरूप यदि कोई जीवन जिये तो वह सांप्रदायिक कैसे हो गया? कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि कांग्रेसी राज में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग मापदंड थे। मोदी जी जब अपने धर्म के अनुरूप आचरण करने लगे तो तमाम सेकुलर कहने लगे कि प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ऐसा करना उन्हें शोभा नहीं देता। यहां प्रश्न यह उठता है कि रोजा इफ्तार में प्रधानमंत्री जायें तो सेकुलर हैं किंतु दूसरे धर्म के आयोजन में जायें तो सांप्रदायिक कैसे? आखिर इस प्रकार के दोहरे मापदंड देश कैसे झेल सकता है?
वर्षों सत्ता में रहकर जिन लोगों ने भ्रष्टाचार किया, आज उन्हें जेल जाना पड़ रहा है तो तिलमिला रहे हैं। ईडी किसी भ्रष्ट के खिलाफ पूछताछ करती है तो विपक्षी दल कहते हैं कि सरकार बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है। सीबीआई जब किसी मामले में जांच करती है तो विपक्षी कहते हैं कि हमें परेशान किया जा रहा है। आखिर ‘सांच को आंच किस बात की’ यानी यदि किसी व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाया जायेगा तो उसका माामला अदालत में ही नहीं टिक सकता है। आखिर धर्म क्या कहता है? धर्म तो यही कहता है कि शासन-प्रशासन भ्रष्टाचार, व्यभिचार, जातिवाद, परिवारवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद एवं अन्य बुराइयों से मुक्त हो। यदि इस धर्म युद्ध में प्रधानमंत्री मोदी जी धर्मानुरूप आचरण कर रहे हैं तो सभी दलों को उसका स्वागत करना चाहिए क्योंकि साफ-सुथरा शासन-प्रशासन देना सिर्फ मोदी जी की ही नहीं बल्कि हर राजनेता की जिम्मेदारी है।
इस धर्म युद्ध में यदि मोदी जी भारी पड़ रहे हैं तो इसमें उनका गुनाह ही क्या है? आज जो कुछ देखने को मिल रहा है, यह उनके धर्मानुरूप आचरण के कारण ही संभव हुआ है। देश की जनता यदि उन्हें इसी रूप में देखना चाहती है तो वे जन आकांक्षाओं को कैसे नकार सकते हैं? कांग्रेस पार्टी यदि वर्षों पुरानी बनाई अपनी लकीर पर ही चलना चाहती है तो इस संबंध में उसे ही सोचने की जरूरत है। वैसे भी, परिवर्तन सृष्टि का नियम है। परिवर्तन को सदैव सहज रूप में स्वीकार करना चाहिए मगर इतनी सी बात को स्वीकार करने के लिए कांग्रेस पार्टी एवं विपक्षी दल तैयार नहीं हैं।
मोदी जी आज जो कुछ भी कर रहे हैं, दैवीय शक्तियों की कृपा से ही कर पा रहे हैं। सही अर्थों में यदि देखा जाये तो मोदी जी सिर्फ माध्यम हैं, करने एवं करवाने वाली तो दैवीय शक्तियां ही हैं। महाभारत युद्ध के दौरान पितामह भीष्म एवं गुरु द्रोणाचार्य पांडवों एवं कौरवों सभी के लिए पूज्यनीय, श्रद्धेय एवं आदरणीय थे किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उनका भी काम तमाम करवाया क्योंकि उनका दोष मात्र इतना ही था कि जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तो वे मूकदर्शक बन कर बैठे रहे। यदि ये दोनों योद्धा चाहते तो द्रौपदी का चीर हरण नहीं होता। दैवीय शक्तियों के दरबार में तो छोटे से छोटे गुनाह का लेखा-जोखा होता है जिसका भुगताान सभी को करना ही पड़ता है। धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाली कांग्रेस एवं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल उस समय बिलकुल खामोश थे जब कश्मीर में हिंदुओं का कत्लेआम हो रहा था और उन्हें घाटी से भगाया जा रहा था, इसी बात को जब मोदी जी ने डंके की चोट पर पूरे देश एवं दुनिया में रखना शुरू किया तो धर्मनिरपेक्ष लाबी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। जो जनता भ्रम में थी, उसकी भी समझ में आ गया कि वास्तव में सांप्रदायिक तो कांग्रेस पार्टी ही है।
पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में हिंदुओं, सिखों, जैनियों एवं अन्य अल्पसंख्यकों पर जुर्म होते रहे किंतु कांग्रेस पार्टी एवं सेकुलर लाबी अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने में ही रही। उन्हें इस बात की जरा भी आशंका नहीं थी कि बहुसंख्यक समाज को उनकी असली धर्मनिरपेक्षता समझ में आ गई तो क्या होगा? तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है’ किंतु मोदी जी ने ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ की बात कही। वास्तव में जिसकी नजर में सभी लोग बराबर हैं, वही इस तरह की बात कर सकता है। मोदी जी ने ही देशवासियों को बताया कि धर्मनिरपेक्षता को यदि सबसे अधिक कहीं करारी चोट लगी है तो वह कश्मीर ही है जबकि यह सर्वविदित है कि यहां लंबे समय तक तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादियों का ही शासन रहा है। आखिर इस सच्चाई से जनता कब तक अनभिज्ञ रहती? जैसे-जैसे लोगों की समझ में बातें आती गईं, वैसे-वैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लाबी का बोरिया-बिस्तर बंधता गया।
इस बात के लिए लोगों को क्यों नहीं प्रेरित किया गया कि यदि सौ हिंदुओं के बीच एक मुस्लिम सुरक्षित रह सकता है तो सौ मुस्लिमों के बीच एक हिंदू क्यों नहीं सुरक्षित रह सकता है? धर्मनिरपेक्ष लाबी ने इन घटनाओं पर सदैव पर्दा डालने का ही कार्य किया है किंतु यह सब कब तक चलेगा? प्रभु श्रीराम, भगवान श्रीकष्ण, महावीर स्वामी एवं दैवीय शक्तियों ने कभी किसी विशेष जाति, क्षेत्र एवं संप्रदाय के लिए कार्य करने की बात नहीं की। उन्होंने सबको अपना माना, सबके लिए काम किया। इससे बड़ी महत्वूर्ण बात यह है कि रामायण एवं महाभारत यही सिखाती है कि कमजोर एवं लाचार की मदद करनी चाहिए। प्रभु श्रीराम ने सुग्रीव की मदद इसी भाव से की। इस प्रकार यदि देखा जाये तो वर्तमान दौर में भारत की राजनीति पूरी तरह धर्म-अधर्म के बीच केंद्रित है। मोदी जी पूरी तरह धर्म युद्ध की ओर अग्रसर हैं और उसी तरफ रहेंगे भी। ऐसे में उनका पलड़ा भारी रहना स्वाभाविक है। इस धर्म युद्ध में दैवीय शक्तियां निश्चित रूप से उनके साथ हैं तो उन्हें अपने लक्ष्य प्राप्ति तक कोई डिगा नहीं सकता।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर), (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)