जो कोई भी कांग्रेसी और कम्युनिस्ट इतिहासकार या अन्य कोई भी व्यक्ति यदि शाहजहां को श्रेय देते हैं कि भारत को सोने की चिड़िया बनाने में शाहजहां का सबसे बड़ा योगदान है तो उन्हें यह भी जान लेना चाहिए की उसी शाहजहाँ का राजगद्दी पर बैठना भारत के इतिहास में बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। क्योंकि शाहजहाँ का राजगद्दी पर बैठना उसके स्वभाव और हत्या के उत्तेजनापूर्ण वातावरण में ही हुआ था।
चूंकि शाहजहाँ उस समय राजधानी दिल्ली से दूर था, जब उसका पिता जहाँगीर मरा था, इसलिए उसके ससुर आसफखान के बेटे देवरबख्श को, उसकी अनुपस्थिति में, नाममात्र का बादशाह घोषित कर दिया।
उधर, लाहौर में, शाहजहां के पिता यानी जहांगीर की 20वीं और अंतिम विधवा बेगम नूरजहां ने मौका मिलते ही अपने चापलूस शहरियार को बादशाह घोषित कर दिया। बस फिर क्या था, दोनों प्रतिस्पर्धी उम्मीदवारों की सेनाएं लाहौर से छ: मील दूर एक स्थान पर भिड़ गईं। शाहजहां के आदेश पर पराजित शहरियार को हरम से घसीटकर लाया गया और तीन दिन बाद उसकी आंखें फोड़ दी गईं।
शाहजहां द्वारा अपने अन्य सौतेले भाई शाहजादा दानियाल के दो छोटे बच्चे तहिमुरास और होशंग को भी कालकोठरियों में धकेल दिया गया था। इसके बाद शाहजहाँ ने अपने ससुर को आदेश दिया कि कठपुतली बादशाह यानी खुद के भतीजे देवरबख्श सहित उसके सभी प्रतिद्वन्द्वियों को जान से मार डाला जाय। इस प्रकार की दर्जनों हत्याओं के बाद के वातावरण में शाहजहाँ ने आगरा में, 6 फरवरी, सन् 1628 ई. को राजगद्दी पर कब्जा किया और फिर अपनी राजधानी को दिल्ली लेकर आ गया।
अपने चेचक के दागोंवाले मुख के समान ही दागी शासक शाहजहाँ के लगभग 30 वर्षीय शासन में 48 लड़ाइयां हुई थीं। अनवरत युद्ध-कार्य से ग्रस्त ऐसे शासनकाल को किसी भी प्रकार शांतिपूर्ण और स्वर्णिम काल तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता है। इसे, इस प्रकार का वर्णित करने में मुगल इतिहास के अध्यापकों व प्राध्यापकों और लेखकों को या तो अपने व्यावसायिक कर्तव्यों की घोर अपेक्षा करने का अथवा जानबूझकर अच्छा बादशाह पेश करने का अपराधी पाया जाना चाहिए।
(पी एन ओक द्वारा लिखित पुस्तक “दिल्ली का लाल किला लाल कोट है” के पेज 171 से)