भारत सहित पूरी दुनिया ने तकनीकी के क्षेत्र में काफी विकास किया है। तकनीकी की बढ़ती प्रगति ने पूरी दुनिया को नजदीक ला दिया है। निष्पक्ष रूप से यदि विश्लेषण किया जाये तो कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया एक बस्ती या यूं कहें कि कालोनी में तब्दील हो चुकी है। ऐसा लिखने के पीछे मेरा आशय इस बात से है कि टेक्नोलाजी के दौर में आधुनिक मशीनों के माध्यम से हम क्षण भर में किसी से बात कर सकते हैं और आनलाइन किसी से मुलाकात भी कर सकते हैं। अपनी किसी बात को यदि हम सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित करना चाहें तो उसमें भी कोई देर नहीं लगती। कम्युनिकेशन की दृष्टि से ये सभी बातें बहुत अच्छी हैं। सोशल मीडिया के द्वारा लोग अनगिनत लोगों से जुड़े भी हैं किन्तु क्या हम लोगों ने कभी इस बात पर विचार किया कि इन सब आधुनिक संसाधनों के बावजूद हम अकेले क्यों हैं? कभी-कभी तो कुछ लोगों को ऐसा कहते हुए भी सुना जा सकता है कि अंतिम समय यदि चार लोग कंधा देने वाले मिल जायें तो वह भी बहुत किस्मत की बात होगी। कहने के लिए तो यह लाइन बहुत छोटी है किंतु इसमें बहुत गहरा रहस्य छिपा हुआ है।
हमारी प्राचीन सभ्यता-संस्कृति में इस तरह की बात कोई सोचता भी नहीं था कि हमें अपने अंतिम समय में चार लोग कंधा देने वाले नहीं मिलेंगे। प्राचीन सभ्यता-संस्कृति में यदि लोगों द्वारा कही गई बातों पर गौर करें तो ऐसा कहने वाले बहुत से लोग मिल जायेंगे कि यदि आप ने चार लोगों को अंतिम समय में कंधा दिया होगा तो आप को भी निश्चित रूप से अंतिम समय में कंधा देने वाले मिल जायेंगे। बहरहाल, यह सब तो कहने-सुनने का मामला है किंतु इसके पीछे जो संदेश दिया दिया गया है, उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि किसी न किसी रूप में घर, परिवार एवं समाज में जुड़े रहना चाहिए जिससे व्यक्ति ऊर्जा से भरपूर रहता है। हमेशा मिलते-जुलते रहने से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास
होता है।
आज का दौर यानी कलयुग का प्रथम चरण ही लोगों को सर्वदृष्टि से परेशान कर रहा है। यदि इस बात की कल्पना अभी से की जाये कि यदि कलयुग का अंतिम चरण आयेगा तो वातावरण कैसा होगा? कहने का आशय यही है कि जब अभी इस हद तक का निराशावादी माहौल है तो कलयुग का अंतिम चरण निश्चित रूप से बेहद भयावह होगा। इन सबसे बचने के लिए मात्र एक ही रास्ता है कि सबके सुख-दुख में सदैव शरीक हुआ जाये और आवश्यकता पड़ने पर सबकी मदद की जाये। यह बात भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि दूसरों की मदद करने की शक्ति या यूं कहें कि अवसर ऊपर वाला सबको नहीं देता। ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि जिसे भी ऊपर वाले ने दूसरों की मदद की शक्ति या यूं कहें कि अवसर प्रदान किया है तो उसे निश्चित रूप से करना चाहिए। किसी की मदद सिर्फ अर्थ से ही नहीं बल्कि अन्य तरीकों से भी की जा सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई बुजुर्ग या अपाहिज किसी सरकारी हास्पिटल में अपने ईलाज के लिए पर्ची बनवाने हेतु लाइन में लगा हो और उसके मन में यह चिंता बैठी हो कि पता नहीं कितनी देर में मेरी पर्ची बन पायेगी, ठीक उसी समय कोई आकर यह कह दे कि चलिये आप आराम करिये, आप की पर्ची मैं बनवा दूंगा तो उस बुजुर्ग या अपाहिज को कितना शुकून मिलेगा। यह सब लिखने का मेरा आशय मात्र इतना ही है कि मदद किसी की मात्र अर्थ से ही नहीं बल्कि तमाम तरीके से की जा सकती है।
हमारे समाज में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि हम किसी को चाहे कितना ही निरर्थक क्यों न समझ लें किंतु कुछ न कुछ काबिलियत ईश्वर सबको देता है।
कभी-कभी देखने में आता है कि जिसे परिवार में सबसे निकम्मा समझ लिया जाता है, दुख की घड़ी में अकसर वही सबके काम आता है। कुदरत का कुछ ऐसा विधान है कि वह सभी को कुछ न कुछ अवश्य देता है। कुछ न कुछ रिक्त स्थान सभी के जीवन में छोड़ देता है। इसी रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सभी को एक दूसरे की जरूरत होती है इसलिए हमारी प्राचीन जीवनशैली में कहा जाता था कि सभी से मिलते-जुलते रहना बेहद जरूरी है इसीलिए मिलने-जुलने के लिए तमाम उपाय एवं बहाने ढूंढ़े जाते थे। हमारी प्राचीन जीवनशैली में जन्म से लेकर मृत्यु तक विधिवत 16 संस्कारों की व्यवस्था की गई है। इसका अभिप्राय यही है कि व्यक्ति कभी अपने आप को अकेला न समझे और उसे इस बात का ज्ञान रहे कि सुख-दुख एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों घूम-फिर कर सभी के जीवन में आते हैं। किसी को भी इस बात का गुमान न रहे कि उसके साथ सदैव अच्छे दिन ही रहेंगे। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो घर-परिवार, मोहल्ला, समाज, राष्ट्र, सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनैतिक दल कोई भी हो सभी में मिलने-जुलने की विधिवत व्यवस्था की गई है। आज के दौर में भले ही यह आसानी से कह दिया जाये कि पैसा फेंको और तमाशा देखो किंतु प्राचीन जीवनशैली पर विचार किया जाये तो कदम-कदम पर लोगों का जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधारित था क्योंकि उस समय पूंजीवाद का बोलबाला नहीं था। वह धार्मिकता एवं नैतिकतावादी युग था। ठेकेदारी प्रथा नहीं थी।
इस बात की व्याख्या की जाये तो प्रभु श्रीराम के जीवन से हमें बहुत अधिक प्रेरणा मिलती है। अपने पिता के निर्देश एवं सौतेली माता कैकेई की इच्छा के अनुरूप तो वे वन में अपनी पत्नी सीता एवं छोटे भाई लक्ष्मण के साथ ही गये थे किंतु उनके मिलने-जुलने के स्वभाव के कारण उनका काफिला बढ़ता गया और उन्होंने लंका के प्रतापी एवं बलशाली राजा रावण को हराने में सफलता प्राप्त की। प्रभु श्रीराम के साथ यदि हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जामवंत, नल-नील, निषाद राज, विभीषण एवं अन्य लोग नहीं होते तो क्या वे लंका पर विजय प्राप्त कर सकते थे।
कुछ लोग यह बात आसानी से कह देते हैं कि वे तो साक्षात नारायण थे, वे कुछ भी कर सकते थे किंतु कुछ करने के लिए उन्हें भी तो किसी को माध्यम बनाना पड़ता है। माध्यम भी उसे ही मिलता है, जिसका स्वभाव एक दूसरे से मिलने-जुलने का होता है। महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन मोह-माया में उलझ गये तो उन्हें उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन, तुम युद्ध करो या न करो, किंतु जिनके लिए तुम शोक कर रहे हो उनका अंत निश्चित है, वे सब मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन को गीता का उपदेश देने में इसलिए कामयाब हो पाये कि दोनों लोगों का स्वभाव एक दूसरे से मिलने-जुलने का था। दोनों लोग यदि अपने आप में ही मस्त रहने वाले होते तो श्रीकृष्ण भगवान न तो अर्जुन को उपदेश दे पाते और न ही अर्जुन को ज्ञान प्राप्त होता।
भारतीय जीवनशैली की बात की जाये तो वह पूरी तरह एक दूसरे पर आधारित है यानी घर-परिवार से लेकर समाज तक सब की भूमिका निर्धारित रही है। उदाहरण के तौर पर पहले जब घरों में बच्चे पैदा होते थे तो दाई आती थी, वही बच्चों का नार या नाल काटती थी। बड़े होने पर बच्चे के मन में यह भाव रहता था कि यही मेरी दूसरी मां है। इसी बहाने बच्चा अपनी दूसरी मां यानी दाई की इज्जत करता रहता था और इसी रिश्ते के आधार पर उस दाई से हमेशा मिलता-जुलता रहता था और उसके दुख-सुख में अपनी सहभागिता निभाना अपना परम कर्तव्य समझता था।
जब किसी का अंतिम संस्कार होता था तो चिता को अग्नि देने के लिए डोम को बुलाना ही पड़ता था। किसी भी तरह की पूजा-पाठ में ब्राह्मणों की उपस्थिति अनिवार्य है। किसी भी पूजन में कुंवारी कन्याओं की उपस्थिति बेहद शुभ मानी जाती है। पितरों के तर्पण में जो भी कर्म-कांड होते हैं, उसे करवाने के लिए कुछ लोगों की जिम्मेदारियां निर्धारित हैं। इस प्रकार देखा जाये तो समाज का ताना-बाना इस तरह बुना हुआ है कि लोगों का एक दूसरे से मिलना-जुलना सदैव बना रहे, कोई अपने आप को अकेला एवं असहाय न समझे, सभी लोग एक दूसरे के पूरक बन कर रहें। हमारी प्राचीन जीवनशैली में आपस में मिलने-जुलने के सभी साधन एवं सूत्र मौजूद हैं। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि लोग उस पर अमल करें। आज की आभासी यानी झूठी दुनिया से निकल कर वास्तविक दुनिया में आयें।
भारतीय जीवनशैली में जितने भी रीति-रिवाज, व्रत-त्यौहार, एवं परंपराएं बनाई गई हैं, उन सभी का मकसद यह है कि लोग एक दूसरे से जुड़े रहें। लोगों के जीवन में ऊबन एवं बोरियत न हो, कोई अपने आप को निराशा में फंसा न पाये। वर्षभर क्रम से आने वाले त्यौहारों की वजह से लोगों के जीवन में खुशियों का संचार होता रहे। इन त्यौहारों के माध्यम से बच्चे जब सबसे मिलते थे तो उनमें संस्कारों का आदान-प्रदान होता था। किसी के जीवन में पूर्णता कैसे आये, यह लोगों के बीच रहकर ही संभव है। हमारे समाज में एक कहानी प्रचलित है कि एक राजा किसी समय बहुत मजबूत एवं सर्वदृष्टि से संपन्न थे किंतु कुछ समय बाद उनके पास कुछ भी नहीं रहा। राजा बहुत उदास एवं निराश थे, उसी वक्त उन्हें याद आया कि अच्छे दिनों के समय में एक ऋषि ने उन्हें एक पर्ची दी थी और कहा था कि राजा साहब जीवन में जब आपका सबसे बुरा समय आये तो इस पर्ची को खोलना, उससे आपको समाधान मिलेगा। राजा ने उस पर्ची को खोला तो उसमें लिखा था कि जब वो दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे यानी जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। इतना पढ़ने के बाद राजा के मन में उत्साह का संचार हुआ और उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना प्रारंभ किया और पुनः अपना पुराना गौरव वापस प्राप्त कर लिया।
इसका सीधा सा आशय यह है कि हमारी प्राचीन जीवनशैली में किसी भी विपरीत स्थिति से निकलने का रास्ता मिल जाता था। ऐसा इसलिए संभव हो पाता था कि उस समय लोग एक परिवार के रूप में रहते थे, एक दूसरे से मिलते-जुलते रहते थे। मिलने-जुलने से समस्याओं का समाधान मिलता था। एक दूसरे से दुखः बांटने से समस्या का समाधान संभव है? आज का मेडिकल जगत जिन छोटी-छोटी बीमारियों को बहुत बड़ा बनाकर पेश करता है, प्राचीन काल में वही बीमारियां दादी-नानी के नुस्खों से ठीक हो जाया करती थीं। जबसे लोगों का मिलना-जुलना छूटा तभी से विधवा आश्रम, बाल आश्रम, अनाथ आश्रम और वृद्धा आश्रम आदि की जरूरत पड़ने लगी है। मिलने-जुलने की कमी के कारण समाज में संस्कारहीनता की स्थिति उत्पन्न हुई।
सामाजिक एवं राजनैतिक दल भी एक दूसरे से मेल-मिलाप बढ़ाये रखने के लिए अनवरत विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम करते रहते हैं, इसका आशय यही है कि किसी न किसी रूप में लोग आपस में जुड़े रहें। व्यक्तिगत संपर्क, पारिवारिक कार्यक्रम, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, सतसंग, धार्मिक एवं सामाजिक आदि तरह के कार्यक्रम इसलिए जरूरी हैं कि इसी बहाने लोगों का एक दूसरे का मिलना-जुलना बना रहेगा।
इस दृष्टि से यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बात की जाये तो वह बहुत बेहतरीन कार्य कर रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मजबूती का सबसे बड़ा आधार यही है कि उसने तमाम तरह के कार्यक्रमों की बदौलत भारतीय सभ्यता-संस्कृति को मजबूत करने का कार्य किया। इन्हीं कार्यक्रमों की बदौलत सामाजिक समरसता की भावना और अधिक बलवती होती जा रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सुबह की एक घंटे की शाखा राष्ट्र में राष्ट्रवाद एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना को निरंतर मजबूत करने का कार्य कर रही है। सुबह की शाखा में जाने वाले बच्चों के बारे में कहा जाता है कि वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने एवं राष्ट्र को आगे ले जाने में निरंतर लगे रहते हैं।
प्राचीन काल से ही भारत में प्रजातंत्र का बोलबाला रहा है। आक्रमणों और अन्य शक्तियों द्वारा भारत को गुलाम बनाने का असफल प्रयास केवल और केवल इसी बात से संभव हो पाया क्योंकि यहां क्षेत्रीय स्तर पर चैपालों के माध्यम से आपसी मेल-मिलाप, सुख-दुःख की चर्चा, धर्म पर सतसंग, आपसी सद्भावना, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार आदि के बहाने से एक दूसरे से मिलने और वार्तालाप करने की पद्वति जीवित रही अनादिकाल से यही भारत के प्रजातंत्र की शक्ति रही है। शायद, इसीलिए नरेंद्र मोदी जी ने वर्ष 2014 में ‘चाय पर चर्चा’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सत्ता हासिल करने में सफलता प्राप्त की थी परंतु आज के दौर में तकनीकी विकास के चलते हमारे वे सभी सामाजिक, पारंपरिक और आपसी वार्तालाप, आपसी मेल-मिलाप, मिलते-जुलते रहने के अवसर इत्यादि के अभावों के कारण दूरियां बढ़ती जा रही हैं जबकि तकनीकी विकास के कारण भौगोलिक दूरियां कम हो रही हैं, लेकिन उसका भी लाभ नहीं मिल पा रहा है इसीलिए हमें अपनी उसी परंपरागत चैपाल परंपरा को एक बार फिर से जीवित करने की आवश्यकता है जहां पर हुक्का-पानी, शतरंज, ताश, सांप-सीढ़ी जैसे खेलों के माध्यम से समाज सचेत रहकर विभिन्न विषयों पर चर्चाएं करता रहता था और उम्र तथा जाति बंधनों से मुक्त होकर अपने आपको जीवंत महसूस करता था।
आज के दौर में सोशल मीडिया के माध्यम से हजारों-लाखों लोगों से जुड़े रहने के बावजूद जब कोई डिप्रेशन का शिकार होता है तो डाॅक्टर उसे लोगों के बीच उठने-बैठने और मिलने-जुलने की सलाह देते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यदि मिलने-जुलने की आदत डाल ली जाये तो निश्चित रूप से जीवन सार्थक बना रहेगा इसलिए बिना किसी संकोच के मिलने-जुलने का बहाना ढूंढ़ते रहना चाहिए। निश्चित रूप से इसी एक लाइन में जीवन का सूत्र छिपा हुआ है। वक्त रहते जो इस अमल कर ले, उसका जीवन नीरस होने से बचा रहेगा, अन्यथा जैसा चल रहा है, वैसा तो चलता ही रहेगा। अब तय हम सभी को करना है कि वास्तव में करना क्या है? मेरा तो बिना किसी संकोच के यह कहना है कि इस रास्ते पर आने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। द
– सिम्मी जैन (दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।)