मानव में प्रकृति ने सोचने-समझने, मनन एवं तर्क करने की जो बुद्धि के रूप में ज्ञानेन्द्रियों से सुशोभित की है, उसी के चलते मानव जाति अपनी औलाद या औलादों को अपने से दूर नहीं करना चाहती। एक कारण तो मोहवश हो सकता है और दूसरा कारण, मां-बाप अपने आखिरी दिनों में भी अपने बच्चों को अपने समक्ष रखना चाहते हैं इसलिए भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व रहा है, नैतिक शिक्षा का वर्चस्व रहा है जिसमें मां-बाप अपने बच्चों को अपने परिवार के सदस्यों एवं गुरुओं के माध्यम से संस्कार देते और दिलवाते हैं जिसे प्रारंभिक नैतिक शिक्षा का नाम दिया गया है। नैतिक शिक्षा से बालकों में एकता, आंतरिक दृढ़ता, सदाचार, निष्ठा और अपने नियमों पर अटल रहने वाले व्यक्तित्व का चरित्र निर्माण करते हैं। अहिंसा, संयम, करुणा इत्यादि से पूर्ण करने, क्रोध, मान, भाग्य, लोभ जैसे अवगुणों से दूर रहने का व्यक्तित्व निर्माण करते हैं।
भारत में देखने में आ रहा है कि आज परिवार विघटन के साथ-साथ पाश्चात्य प्रभाव में इतना लिप्त होते जा रहे हैं कि पारिवारिक जीवन की सुख-शांति हेतु आपसी सहयोग, त्याग, विश्वास, मैत्री और आपसी स्नेह भाव में कमी आती जा रही है। नास्तिकता आस्तिकता पर हावी होती जा रही है। हो सकता है कि इसमें आर्थिक मजबूरियां हों, प्रतिकूल परिस्थितियां हों या नगरों के प्रति अधिक रुझान या सरकारों, सामाजिक समझौतों के रूप में पारिवारिक विघटन, विवाह विच्छेद जैसे अन्य कारण हों। प्रकृति द्वारा निर्मित और निर्धारित भारत में वृद्धाश्रम जैसे संस्थाओं में दिनों-दिन वृद्धि होती जा रही है जबकि वृद्धाश्रम में रहने वाले व्यक्तियों में अनेकों बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं, असहनीय पीड़ा उत्पन्न होती है, प्रत्यक्ष में न दिखने वाली समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
अभी हाल ही में मेरे समक्ष दो निम्नलिखित ऐसे उदाहरण आये जिन्होंने मुझे झकझोर कर रख दिया। उनमें से एक कुछ इस प्रकार से है –
न्यायालय में एक मुकदमा आया, जिसने सभी को झकझोर दिया। अदालतों में प्राॅपर्टी विवाद व अन्य पारिवारिक विवाद के केस आते ही रहते हैं मगर ये मामला बहुत ही अलग किस्म का था।
एक 70 साल के बूढ़े व्यक्ति ने अपने 80 साल के बूढ़े भाई पर मुकदमा किया था। मुकदमा कुछ यूं था कि ‘मेरा 80 साल का बड़ा भाई, अब बूढ़ा हो चला है, इसलिए वह खुद अपना ख्याल भी ठीक से नहीं रख सकता मगर मेरे मना करने पर भी वह हमारी 110 साल की मां की देखभाल कर रहा है। मैं अभी ठीक हूं, इसलिए अब मुझे मां की सेवा करने का मौका दिया जाय और मां को मुझे सौंप दिया जाय’।
न्यायाधीश महोदय का दिमाग घूम गया और मुकदमा भी चर्चा में आ गया। न्यायाधीश महोदय ने दोनों भाइयों को समझाने की कोशिश की कि आप लोग 15-15 दिन रख लो।
मगर कोई टस से मस नहीं हुआ, बड़े भाई का कहना था कि मैं अपने स्वर्ग को खुद से दूर क्यों होने दूं। अगर मां कह दे कि उसको मेरे पास कोई परेशानी है या मैं उसकी देखभाल ठीक से नहीं करता तो अवश्य छोटे भाई को दे दो। छोटा भाई कहता कि पिछले 40 साल से अकेले ये सेवा किये जा रहा है, आखिर मैं अपना कर्तव्य कब पूरा करूँगा।
परेशान न्यायाधीश महोदय ने सभी प्रयास कर लिये, मगर कोई हल नहीं निकला। आखिर उन्होंने मां की राय जानने के लिए उनको बुलवाया और पूंछा कि वह किसके साथ रहना चाहती हैं?
मां कुल 30 किलो की बेहद कमजोर सी थीं और बड़ी मुश्किल से व्हील चेयर पर आई थीं। उन्होंने दुखी मन से कहा कि मेरे लिए दोनों संतान बराबर हैं। मैं किसी एक के पक्ष में फैसला सुनाकर, दूसरे का दिल नहीं दुखा सकती। आप न्यायाधीश हैं, निर्णय करना आपका काम है। जो आपका निर्णय होगा, मैं उसको ही मान लूंगी।
आखिर, न्यायाधीश महोदय ने भारी मन से निर्णय दिया कि न्यायालय छोटे भाई की भावनाओं से सहमत है कि बड़ा भाई वाकई बूढ़ा और कमजोर है। ऐसे में मां की सेवा की जिम्मेदारी छोटे भाई को दी
जाती है।
फैसला सुनकर बड़ा भाई जोर-जोर से रोने लगा और कहा कि इस बुढ़ापे ने मेरे स्वर्ग को मुझसे छीन लिया। अदालत में मौजूद न्यायाधीश समेत सभी रोने लगे।
कहने का तात्पर्य यह है कि अगर भाई-बहनों में वाद-विवाद हो तो इस स्तर का हो। ये क्या बात है कि ‘माँ तेरी है’ की लड़ाई हो और पता चले कि माता-पिता ओल्ड एज होम में रह रहे हैं। यह पाप है।
हमें इस मुकदमे से ये सबक लेना ही चाहिए कि माता-पिता का दिल दुखाना नहीं चाहिए।
इसी प्रकार से एक अन्य कहानी कुछ इस प्रकार से है कि –
एक बाप अदालत में दाखिल हुआ। ताकि अपने बेटे की शिकायत कोर्ट में कर सके। जज साहब ने पूछा, आपको अपने बेटे से क्या शिकायत है? बूढ़े बाप ने कहा कि मैं अपने बेटे से उसकी हैसियत के हिसाब से हर महीने का खर्च मांगना चाहता हूं।
जज साहब ने कहा कि वो तो आपका हक है। इसमें सुनवाई की क्या जरूरत है? आपके बेटे को हर महीने खर्च देना चाहिए।
बाप ने कहा कि मेरे पास पैसों की कोई कमी नहीं है लेकिन फिर भी मैं हर महीने, अपने बेटे से खर्चा लेना चाहता हंू। वो चाहे कम का ही क्यों न हो?
जज साहब आश्चर्य चकित होकर बाप से कहने लगे कि आप इतने मालदार हो तो आपको बेटे से क्यों पैसे की क्या आवश्यकता है?
बाप ने अपने बेटे का नाम और पता देते हुए, जज साहब से कहा कि आप मेरे बेटे को अदालत में बुलाएंगे तो आपको बहुत कुछ पता चल जाएगा। जब बेटा अदालत में आया तो जज साहब ने बेटे से कहा कि आपके पिता जी आपसे हर महीने खर्च लेना चाहते हैं। चाहे वह कम क्यों न हो?
बेटा भी जज साहब की बात सुनकर आश्चर्य चकित हो गया और कहने लगा कि मेरे पिता जी बहुत अमीर हैं, उनके पास पैसे की भला क्या जरूरत है?
जज साहब ने कहा यह आपके पिता की मांग है और वे अपने में स्वतंत्र हैं। पिता ने जज साहब से कहा कि आप मेरे बेटे से कहिए कि वह मुझे हर महीने 100 रुपए देगा और वो भी अपने हाथों से और उस पैसे में बिल्कुल भी देरी न करे। फिर जज साहब ने बूढ़े आदमी के बेटे से कहा कि तुम हर महीने 100 रुपए बिना देरी के उनके हाथों में दो। ये आपको अदालत हुक्म देती है।
मुकदमा खत्म होने के बाद जज साहब बूढ़े आदमी को अपने पास बुलाते हैं। उन्होंने बूढ़े आदमी से पूछा कि अगर आप बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछूंगा। आपने बेटे के खिलाफ यह केस क्यों किया आप तो बहुत अमीर आदमी हो और ये इतनी छोटी सी कीमत।
बूढ़े आदमी ने रोते हुए कहा कि जज साहब मैं अपने बेटे का चेहरा देखने के लिए तरस गया था। वह अपने कामों में इतना व्यस्त रहता है। एक जमाना गुजर गया, उससे मिला नहीं और न ही बात हुई, न आमने-सामने और न फोन पर। मुझे अपने बेटे से बहुत मोहब्बत है इसलिए मैंने उस पर ये केस किया था ताकि हर महीने मैं उससे मिल सकूं और मैं उसको देख कर खुश हो लिया करूंगा। ये बात सुनकर जज की भी आंखों में आंसू आ गए।
जज साहब ने बूढ़े आदमी से कहा कि अगर आप पहले बताते तो मैं उसको नजर अंदाज और ख्याल न रखने के जुल्म में सजा करा देता।
बूढ़े बाप ने जज साहब की तरफ मुस्कराते हुए देखा और कहा कि अगर आप सजा कराते तो मेरे लिए ये दुख की बात होती क्योंकि सच में उससे मैं बहुत मोहब्बत करता हूं और मैं हरगिज नहीं चाऊंगा, मेरी वजह से मेरे बेटे को कोई सजा मिले या उसे कोई तकलीफ हो।
इस कहानी से यहां हमें ये प्रेरणा मिलती है कि मां-बाप को आपके पैसे की जरूरत नहीं है, उनको आपके समय की जरूरत है।
हालांकि, आज के युग में आधुनिक कहे जाने वाले भारत में नैतिक शिक्षा का अभाव, प्राथमिक शिक्षा का गिरता हुआ स्तर, पाश्चात्य जगत का बढ़ता प्रभाव, अपनी संस्कृति और संस्कार को त्याग कर दूसरों से अपनी होड़, दया, करुणा का न होना, पैसा ही सब कुछ का भाव उत्पन्न होना इत्यादि कारणों से परिवारों के विघटन के साथ-साथ अस्वस्थ, अशांत और स्वार्थवश वातावरण पनपता जा रहा है जो कि किसी भी राष्ट्र के उत्थान और उसकी प्राचीनता को बनाए रखने के लिए किसी भी स्तर से नहीं स्वीकारा जा सकता है और न ही उचित ठहराया जा सकता है।
किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति हस्तांतरण का आधार शिक्षा ही होती है चाहे वह नैतिक, धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक हो। शताब्दी पुरुष राष्ट्रपिता गांधी ने भी लिखा है- ‘‘संस्कृति ही मानव जीवन की आधारशिला और मुख्य वस्तु आपके आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार की छोटी से छोटी बात में व्यक्त होनी चाहिए इसीलिए आने वाले समय में प्रकृति अनुरूप नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से ओत-प्रोत समाज का उत्थान कर एक सशक्त राष्ट्र को प्राचीनता के अनुरूप बनाया जा सकेगा, और बनाना चाहिए।
– श्वेता वहल