मोहम्मद कासिम से प्रारम्भ होने वाले 1100 वर्षों के विदेशी शासन के कुछ काल-खंडों को हमारे इतिहास -ग्रंथ आतुरता से ‘स्वर्ण-युग’ की संज्ञा दे देते हैं। जबकि यह सत्य का बिल्कुल उलटा है। इस कालखंड को तो हम किसी भी न्यायोचित रूप में सामान्यतः अच्छा कालखंड भी नहीं कह सकते, जिस अवधि में इस देश की माटी के सपूतों को क्रूरतापूर्वक मारा गया हो, उनकी हत्या की गयी हो, उनको फाँसी पर चढ़ाया गया हो, उनकी सम्पत्ति को बिना किसी कारण अथवा संकोच के हड़प कर लिया गया, न्याय को धार्मिक मदान्धता के भरोसे चलाया जाता था; विद्रोह अकाल और युद्धाग्नि सदैव प्रज्वलित रहते थे।
उस अवधि को सहनशीलता का युग भी कैसे कहा जा सकता है जिसमें एक विदेशी सम्राट् की अधीनता में इस देश के असहाय बहुमत का अधिकांश द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझा जाता रहा है, और निपट दीनावस्था में जीवन-यापन करने का, जीवन की कुछ घड़ियाँ व्यतीत करने का उसका अधिकार शेष रह गया हो?
1100 वर्षों की इस सम्पूर्ण अवधि को हृदयच्छेदी अवधि कहा जाना चाहिये।।इस सत्य को अस्वीकार करने का अर्थ क्रूर-हृदय विदेशियों को कोमल एवं शिष्ट देशीय शासकों के समान मानना, परपीड़न को सहनशीलता मानना, नरमेधों को पितृ-प्रेम सम संरक्षण समझना, अकाल को आधिक्य, निर्धनता को समृद्धि, न्यूनता को विपुलता, बलात्कार और लूट-खसोट को सम्मान और व्यवस्था, जब्ती को सम्पत्ति की सुरक्षा और धार्मिक-हठवादिता को आराधन, पूजन की स्वतंत्रता मानना होगा। अतः भारतीय इतिहासग्रन्थों में न केवल आवश्यक संशोधन करने हैं, अपितु अनेक स्थलों पर इनके, निष्कर्षों को पूर्ण रूप में सुधारना और उलटा करना पड़ेगा।
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