भविष्यमहापुराण के चौथे खण्ड के दसवें अध्याय के कलियुगीय इतिहाससमुच्चय के अनुसार, माता सती के द्वारा यज्ञस्थल पर देह त्यागने के बाद राजा दक्ष प्रजापति के उसी यज्ञ को नष्ट करने के लिए क्रोधित होकर भगवान शिव ने “वीरभद्र” का रुद्र रूप धारण किया, जिसमें वीरभद्र के उस रुद्र रूप के अनुसार उनके तीन मस्तक, तीन नेत्र तथा तीन चरण थे। यज्ञ भंग होने के पश्चात ब्रह्मा जी ने रुद्र की स्तुति कर उनको शांत किया और सूर्य के तुलाराशि में होने पर स्वयं ब्रह्मा जी ने रुद्र को 17 दिनात्मक चन्द्रमण्डल में स्थापित कर दिया। उसके पश्चात वे अपने सप्तलोक अर्थात सातवें लोक को प्रस्थान कर गए। तब चन्द्ररूपी रुद्र ने सातों लोकों पर (भूः, भुवः, स्वः महः, जनः, तपः व सत्यलोक) अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
ब्रह्मा जी द्वारा दिए गये इस सम्मान को देखकर वीरभद्र अर्थात भगवान शिव के अंश अवतार रुद्र अत्यन्त हर्षित हो गये और अपनी देह का एक अंश भैरवदत्त के यहाँ भेज दिया। वह उनके यहाँ पुत्र रूप से अवतार लेकर घोर कलिकाल में “शंकराचार्य” के नाम से पृथिवी पर प्रसिद्ध हो गया।
शंकराचार्य नाम वाले उस गुणी और ज्ञानी बालक ने ब्रह्मचारी होकर शांकरभाष्य की रचना की तथा शैवमार्ग का प्रदर्शन किया। वह मार्ग त्रिपुण्ड्र, चन्दन, रुद्राक्षमाला तथा पंचाक्षर मन्त्र के रूप में शैवगण के लिये मंगलकारी शंकराचार्य निर्मित है। इस प्रकार शंकराचार्य जी वीरभद्र अर्थात भगवान शिव के अंश अवतार हुए।
कुछ लोगों को लग रहा होगा कि माता सती के द्वारा यज्ञस्थल पर देह त्यागने और वीरभद्र के अंश अवतार की घटना के समय और आधुनिक समय में बहुत अधिक अंतर है और इस परंपरा में तो करीब ढाई हजार वर्षों का ही इतिहास बताया जाता है। तो उनको ये जान लेना चाहिए कि मात्र चतुर्युग की घटनाओं, मन्वन्तरों की घटनाओं को ही नहीं बल्कि कल्पों की घटनाओं को भी अधिकतर सनातन के पुराण ग्रंथों में आजतक जस की तस संजो कर रखा है और आज भिन्न कथाओं की कड़ियां एक दूसरे से जस की तस जुड़ती हैं।
यहां यह आवश्यक नहीं है कि हर एक घटना जिनका उल्लेख हम अभी के युग में पढ़ रहे हैं वे केवल अभी के अथवा इसके पिछले युग में ही घटित हुई होती हैं। असल में तो कई पौराणिक घटनाएं ऐसी हैं जो युगों ही नहीं बल्कि मन्वन्तरों और कल्पों तक से ली गई हैं। अर्थात हर एक चतुर्युग, मन्वंतर और कल्पों में घटने वाली घटनाएं लगभग समान होती है।
इस आधार पर शंकराचार्य परंपरा मात्र इसी कलयुग की नहीं बल्कि पिछले कई कलियुगों, चतुर्युगों, मन्वन्तरों और कल्पों से लगातार चली आ रही है। और वीरभद्र के रूप में अर्थात भगवान शिव के अंश अवतार रुद्र का हम साक्षात दर्शन कर पा रहे हैं। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार साक्षात सूर्य देवता हर किसी को, हर युग में अपनी रोशनी के रूप में ऊर्जा देते आ रहे हैं।
इसके अलावा वायु पुराण में भी लिखा है कि त्रिकालदर्शी वह माना जाता है जो किसी भी चतुर्युगी, मन्वंतर अथवा कल्प की घटना को अगले मन्वंतर अथवा अगले चतुर्युग के लिए जस की तस मानकर चलता है और उनका उल्लेख करता है। जैसे भविष्य पुराण की घटनाएं जो पिछले कलियुग में अथवा पिछले से भी पिछले चतुर्युग में घटित हो चुकी है वही घटनाएं जस की तस वर्तमान में भी घटित होती है और इन सब को जानने वाला अथवा विस्तार से बताने वाला ही त्रिकालदर्शी माना जाता है।
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