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सुनाने से अधिक सुनने की आदत डालनी होगी…

admin 19 May 2024
habit of listening
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एक बहुत पुरानी कहावत प्रचलित है कि ‘स्पीच इज सिल्वर, बट साइलेंस इज गोल्ड’ यानी बोलना यदि चांदी के समान है तो सुनना सोने की तरह है। वैसे भी, बिना सुने न तो किसी व्यक्ति को समझा जा सकता है, न ही किसी अन्य विषय को। जो लोग किसी भी रूप में न्याय करने या निर्णय देने की स्थिति में होते हैं, उन्हें पहले ठीक ढंग से सबकी बातों को सुनना होता है। सबकी बातें सुनकर ही निर्णयकर्ता किसी निर्णय पर पहुंच पाते हैं। भारत सहित पूरे विश्व के न्यायालयों या पंचायतों में या अन्य किसी निर्णय करने वाली इकाइयों या शक्तियों की बात की जाये तो सबसे पहले पक्ष-विपक्ष की पूरी बातें विस्तृत रूप से सुनते हैं। इसके लिए चाहे लोगों को बार-बार बुलाना पड़े तो अदालत की तरफ से लोगों को बार-बार बुलाया जाता है। पूरी तरह सबकी बातें सुनने के बाद ही न्यायाधीश किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर निर्णय सुनाते हैं। वास्तव में देखा जाये तो बिना सारी बातें सुने न्यायाधीश किसी निर्णय पर पहुंच ही नहीं सकते हैं।

सुनाने की प्रवृत्ति सिर्फ वहां होती है जहां सिर्फ सिखाने का कार्य होता है। उदाहरण के तौर पर स्कूल, काॅलेज या ऐसी कोई भी जगह जहां सिखाने का काम होता है, मगर इन स्थानों पर भी विद्यार्थियों या यूं कहें कि शिक्षार्थियों की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए शिक्षकों को सुनना भी पड़ता है। इस प्रकार देखा जाये तो शिक्षक किसी न किसी रूप में छात्रों के साथ संवाद करते रहते हैं। संवाद की प्रक्रिया में शिक्षक अपनी सुनाते हैं तो छात्रों की सुनते भी हैं। छात्रों से संवाद के बाद ही शिक्षक इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्होंने जो कुछ भी पढ़ाया या बताया है, शिक्षार्थियों ने उसे किस हद तक ग्रहण किया है। इस पूरी प्रक्रिया में एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि बिना संवाद के न तो किसी को समझा जा सकता है और न ही कुछ समझाया जा सकता है।

आज समाज में जितनी भी संस्थाएं एवं राजनीतिक दल हैं, उनमें भले ही सुनाने की प्रवृत्ति हावी होती जा रही है किंतु जब तक सुनने को प्राथमिकता नहीं दी जायेगी, तब तक किसी समाधान तक नहीं पहुंचा जा सकता है। सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र की बात की जाये तो यहां भी कुछ इसी प्रकार की प्रवृत्ति ज्यादा पनपती जा रही है, सुना कम एवं सुनाया ज्यादा जा रहा है। सामाजिक संस्थाएं चलाने वाले अपनी बातें तो टीम के समक्ष पूरे जोर-शोर से कह देते हैं किंतु जब सुनने की बात आती है तो नेतृत्व की तरफ से आना-कानी होने लगती है। यदि सुना भी जाता है तो मात्र उन्हीं बातों को सुना जाता है, जो उन्हें अच्छी लगती हैं किंतु कुशल संगठनकर्ता एवं नेतृत्वकर्ता कहते हैं कि किसी भी विषय पर खूब चिंतन-मनन करो, संवाद करो, सबकी सुनो, अंत में जो निर्णय लेना हो, अवश्य लो, किंतु सुनो सबकी परन्तु आज देखने में आ रहा है कि ऐसे कुशल संगठनकर्ता एवं नेतृत्वकर्ता नहीं के बराबर हैं।

धार्मिक क्षेत्र में आज जितने सत्संग, भागवत कथा, रामकथा, हनुमान कथा, शिव महापुराण कथा, गौ कथा सहित अन्य धार्मिक कार्यक्रमों में व्यासपीठ की तरफ से सुनाने की परंपरा तेजी से बढ़ी है। हो सकता है कि ऐसी प्रवृत्ति बहुत अच्छी हो, किंतु इस संबंध में यदि आम जनता भी संवाद के मामले में कुछ आगे बढ़ना चाहती है तो उसे भी अवसर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इसका तरीका अलग-अलग हो सकता है किंतु किसी बात को गहराई से जानना तो सभी चाहते हैं, किंतु वर्तमान दौर में ऐसा हो नहीं पा रहा है। इस दृष्टि से यदि राजनैतिक क्षेत्र की बात की जाये तो यहां सुनाने वाली बीमारी या यूं कहें कि प्रवृत्ति और अधिक तेजी से पनपती जा रही है क्योंकि राजनैतिक क्षेत्र में जो भी लोग कार्य कर रहे हैं उनमें से अधिकांश को लगता है कि वे ही सबसे अधिक बुद्धिमान एवं समझदार हैं। दूसरों को सुनाना उनका नैतिक कर्तव्य है। वैसे भी जब किसी व्यक्ति को यह लगने लगता है कि वह अपने विषय का मास्टर हो चुका है तो वह उस विषय पर अन्य किसी से कुछ सुनने की आवश्यकता महसूस नहीं करता, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि किसी भी विषय के माहिर से माहिर व्यक्ति को यह भी जानने का प्रयास करना चाहिए कि वास्तव में उसने जो कुछ भी कहा है, वह अन्य लोगों की पकड़ में कितना आया है? इस बात का पता तभी चलेगा जब वह अन्य लोगों की सुनेगा या उनसे संवाद करेगा।

किसी भी ज्ञानी से ज्ञानी व्यक्ति को भी इस बात का भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वे जो कुछ भी कह रहे हैं, उसे लोग अच्छा एवं सर्वदृष्टि से ठीक मान रहे हैं, निश्चित रूप से इस विषय में सावधानी बरतने की जरूरत है। राजनीतिक दलों में पहले जो कुशल संगठक एवं नेतृत्वकर्ता होते थे, वे किसी भी मामले में किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले संगठन के छोटे-से-छोटे कार्यकर्ता से संवाद करते थे, सुझाव लेते थे जिससे उन्हें जमीनी हकीकतों का ज्ञान हो सके, तब जाकर अंतिम निर्णय लिया करते थे। कुछ कुशल संगठनकर्ता तो यहां तक कहते हैं कि किसी भी विषय में पक्ष-विपक्ष, संतुष्ट-असंतुष्ट एवं तटस्थ यानी सभी लोगों की राय लेनी चाहिए। कहने का आशय यह है कि संवाद के दौरान किसी न किसी बात पर निश्चित रूप से सभी का ध्यान आकर्षित हो जाता है और सभी लोगों को लगता है कि यह बात या सुझाव बहुत अच्छा है, इसका समावेश होना चाहिए किंतु आजकल देखने में आता है कि राजनैतिक दलों के साथ अन्य संगठनों में ऐसी स्थिति बनी हुई है कि यदि कोई बिना मांगे कुछ सुझाव देना चहता है तो उसे दुखी या असंतुष्ट मान लिया जाता है।

पहले आम जनता में जाकर किसी भी मामले की जानकारी लेनी होती थी तो यह कार्य कार्यकर्ताओं के माध्यम से कराया जाता था किंतु अब वह काम मोटा पैसा देकर सर्वे कंपनियों के द्वारा कराया जाता है। अब यह सोचने वाली बात है कि वर्षों से संगठन का कार्य करता हुआ आम जनता में घिसा एव ंरगड़ा कार्यकर्ता जो फीडबैक दे सकता है, क्या वह काम सर्वे कंपनियां कर सकती हैं? आज राजनीतिक दलों के कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बड़ी-बड़ी पी.आर. कंपनियां बन चुकी हैं और वे इस काम के द्वारा मोटा पैसा कमा कर मालामाल हो रही हैं और राजनीतिक क्षेत्र एवं संगठनों में कार्य करते हुए अनगिनत लोग अपना सब कुछ गंवा चुके फांका-मस्ती के शिकार हो चुके हैं यानी दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हैं। वर्षों तक एक ही विचारधारा से जुड़े रहने के कारण उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इस उम्र में वे जायें कहां? अंत में वे यह मानकर अपने को संतुष्ट कर लेते हैं कि शायद उनके भाग्य में यही लिखा है। वास्तव में भारतीय सभ्यता-संस्कृति हमें यही सिखाती है कि जब परिस्थितियां अपने अनुकूल न हों तो ईश्वर पर आश्रित हो जाना चाहिए यानी सब कुछ ईश्वर पर ही छोड़ देना चाहिए। वास्तव में आम व्यक्ति के पास इसके अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। जहां तक ईश्वर की बात की जाये तो उसके पास सबका हिसाब-किताब होता है। वक्त देखकर वह सभी का वक्त बदलता है, सभी को मौका देता है, बस धैर्य इतना ही रखना होता है कि वक्त को भी थोड़ा वक्त देने की जरूरत होती है, क्योंकि ईश्वर ने सभी के लिए कुछ न कुछ सोच रखा है। उचित समय पर वह जरूर मिलेगा।

भारत में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से लेकर आज तक छोटे बच्चों से लेकर बड़े बच्चों की कक्षाओं में जब कोई बच्चा शिक्षक को संकोची स्वभाव का दिखता है तो शिक्षक उस बच्चे को खड़ा करते हैं और कहते हैं कि यह सोचकर बोलो कि यहां कोई नहीं बैठा है, यदि कोई बैठा भी है तो तुमसे बुद्धिमान एवं समझदार कोई नहीं है। शिक्षक द्वारा प्रोत्साहित किये जाने के बाद बच्चे की झिझक समाप्त हो जाती है और वह खुलकर बोलने लगता है। शिक्षक का मकसद मात्र इतना होता है कि बच्चे का सर्वांगीण विकास हो सके। इस बीच यदि कोई दूसरा बच्चा हंस देता है तो शिक्षक उस बच्चे को भी खड़ा कर देते हैं और उसकी भी झिझक दूर करवाते हैं। इसी तरह एक-एक करके सभी बच्चों को शिक्षक द्वारा खड़ा करके बोलवाया जाता है, जिससे उसकी झिझक दूर हो सके किंतु इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षक में भी सुनने की आदत होनी चाहिए, यही हमारी गुरुकुल पद्वति की विशेषताएं भी रही हैं। यदि शिक्षकों में सुनने की आदत नहीं होगी तो वे सिर्फ सुनाने का ही काम करेंगे।

आज देश में वर्तमान स्थिति की बात की जाये तो कमोबेश प्रत्येक क्षेत्र में ऐसी स्थिति बनी हुई है कि लोग सिर्फ सुनाना चाहते हैं, सुनना किसी को पसंद नहीं है। सुनाने वालों को लगता है कि जैसे सुनने वाले एकदम से मूर्ख हैं। श्रोताओं को मूर्ख समझकर सुनाने वाले यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि उन्होंने जो कुछ बोला है, क्या सामने वालों ने ग्रहण किया? आखिर इस बात का पता कैसे लगेगा कि वक्ता द्वारा जो कुछ भी बोला गया है, श्रोताओं द्वारा कितना ग्रहण किया गया है? इस बात की जानकारी के लिए कोई न कोई तंत्र होना ही चाहिए किंतु इसके लिए थोड़ा दिल बड़ा करने की जरूरत है। कुंठित मानसिकता से यह काम नहीं हो सकता है।

समाज एवं संगठन का विकास किसी भी क्षेत्र में करना है तो सुनने एवं सुनाने दोनों तरह का काम करना होगा। संसद या राज्यों की विधानसभाओं में यदि कोई विषय आता है तो उस पर सभी दलों या पक्षों की बात सुनी जाती है। सभी की बातें सुनने के बाद संबंधित मंत्री या आवश्यकता पड़ने पर गृहमंत्री, प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री वक्तव्य देते हैं, ऐसा इसलिए संभव हो पाता है कि पक्ष-विपक्ष सभी एक दूसरे की बातें सुनते हैं तो सुनाते भी हैं। राजनैतिक दलों में पहले के श्रेष्ठ संगठक या कुशल नेतृत्वकर्ता सदैव दोतरफा संवाद को प्राथमिकता देते थे। उनका स्पष्ट रूप से मानना होता था कि जब तक कार्यकर्ताओं की बातें नहीं सुनी जायेंगी, तब तक कोई निष्कर्ष नहीं निकल सकता है क्योंकि कार्यकर्ता ही कार्यक्रमों के माध्यम से कार्य को गति देते हैं। वैसे भी, संगठन को यदि गति देनी है तो बिना कार्यकर्ताओं की सलाह-मशविरा के संभव नहीं है।

राजनीतिक दल एवं सामाजिक संगठन समय-समय पर संवाददाता सम्मेलनों का आयोजन इसीलिए करते हैं कि वे पत्रकारों एवं मीडिया के माध्यम से अपनी बात आम लोगों तक पहुंचा सकें और पत्रकारों द्वारा पूछे गये सवालों के माध्यम से जो सुझाव एवं फीडबैक मिले, उसे भी समाहित कर अपने कार्य एवं विचारधारा को और अधिक परिष्कृत एवं परिमार्जित कर सकें किंतु यह सब तभी संभव है जब सुनने वं सुनाने दोनों तरह का काम होगा। देश में कई प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपना यानी प्रधानमंत्री आवास जनता के लिए सदैव खुला रहा। चैधरी चरण सिंह जैसे प्रधानमंत्री तो यहां तक कहते थे कि हम लोग यानी सत्ता में बैठे लोग फरियाद सुनने वाले हैं जबकि फरियादी का कोई वक्त नहीं होता। फरियादी तो अपनी फरियाद लेकर कभी भी आ सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो समय-समय पर प्रधानमंत्री आवास में लोगों एवं कार्यकर्ताओं से मिलते थे और उनसे फीडबैक लिया करते थे। इस दृष्टि से यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की बात की जाये तो वे बहुत ही बेहतरीन कार्य कर रहे हैं।

विगत दस वर्षों से बिना कोई छुट्टी लिये राष्ट्र एवं समाज के लिए प्रतिदिन 18 घंटे कार्य करना कोई आसान बात नहीं है। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। नरेंद्र मोदी जी जब किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में जाते हैं तो वहां भी आम जनता एवं कार्यकर्ताओं से मिलते हैं। पंद्रह अगस्त को लाल किला मैदान में बच्चे उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न होते हैं। कार्यकर्ताओं एवं आम लोगों से फीडबैक लेने की बात की जाये तो इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का कोई जवाब ही नहीं है। सोशल मीडिया के दौर में फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, वाट्सअप एवं अन्य संचार माध्यमों से जो भी फीडबैक आता है, उस पर प्रधानमंत्री जी की अनवरत नजर होती है। उनके भाषणों में अकसर ऐसा देखने-सुनने को मिलता भी रहता है। किसी भी माध्यम से आ रहे फीडबैक की जानकारी लेने में श्री नरेंद्र जी, उनका तंत्र एवं कार्यालय बेहद सतर्क रहता है।

सुनने-सुनाने की दृष्टि से यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बात की जाये तो संघ के आद्य सरसंघचालक परम पूज्य डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने सुबह की शाखा से लेकर विभिन्न कार्यक्रमों में सुनने-सुनाने दोनों को प्राथमिकता दी। संघ के कार्यक्रमों में अकसर देखने को मिलता है कि वहां जितना सुनाया जाता है, उससे अधिक सुना भी जाता है। डाॅ. हेडगेवार जी ने भगवा ध्वज को ही परम पूज्य इसलिए बनाया कि यह पदवी भविष्य में यदि किसी व्यक्ति को दे दी गई तो वह तानाशाह एवं अनैतिक भी हो सकता है किंतु भगवा ध्वज के माध्यम से इस प्रकार की कोई संभावना नहीं है। डाॅ. हेडगेवार जी की दूरदर्शी सोच आज व्यावहारिक दृष्टि से बेहद सच साबित होती दिख
रही है।

सुनने-सुनाने की दृष्टि से देखा जाये तो देश में जब कोई बड़ी घटना घटित होती है तो उस पर सभी लोग अपना मत व्यक्त करते हैं, उसके बाद कुछ लोगों द्वारा यह बात कह दी जाती है कि इस संबंध में माननीय प्रधानमंत्री जी जवाब यानी वक्तव्य दें। उपरोक्त सभी बातों का यदि मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सुनाने से अधिक सुनने की प्रवृत्ति बढ़ानी होगी, क्योंकि जब आम लोग बोलते हैं तो उससे जनता-जनार्दन की आवाज निकलकर बाहर आती है। चाहे कोई राजनैतिक दल हो या सामाजिक संगठन सभी को बड़ा दिल दिखाते हुए इस बात पर अमल करने की जरूरत है क्योंकि सुनने की भी एक सीमा होती है। एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब लोग सुनना बंद कर देंगे, तब सुनाने वाले क्या करेंगे, इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वक्त पर संभल लिया जाये, अन्यथा बहुत देर हो जायेगी।

– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)

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