‘स्तूयतेऽनेनेति स्तोत्रम्’
अर्थात – ऋक् मन्त्रों के गान सहित जो देव स्तुति की जाती है उसे स्तोत्रम् कहते हैं।
ष्टुञ+ष्ट्रन्, स्तुतिः, गुण कर्मादिभिः प्रशंसने इत्यमरः।
जिससे गुण, कर्म आदि कहे जाएं वे स्तोत्र या स्तुति कहे जाते हैं, ऐसा अमरकोष में कहा गया है। स्तोत्र शब्द की रचना ष्टुञ+ष्ट्रन से मिलकर हुई है। जिसका सामान्यतः अर्थ स्तुति होता है। आधुनिक परिवेश में देवतापरक स्तुति के लिए प्रयुक्त की गयी छन्दोंबद्ध वाणी ही स्तोत्र के नाम से अधिगृहीत की जाती है।
स्तोत्र पाठ करते समय साधक को कुछ विशेष सावधानियां बरतनी चाहिए। यहां शास्त्रों में वर्णित कुछ तथ्य हैं जो कि स्तोत्र पाठ करते समय ध्यान में रखने चाहिए –
१ – स्तोत्र हिन्दी या संस्कृत में हों तो यथासम्भव मूल पाठ को ही पढ़ना चाहिए। उनका अनुवाद पढ़ने से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता।
२ – हम ईश्वर के सामने बालक के समान हैं और यही भाव मन में रखकर स्तोत्र पाठ करना चाहिए बालक यदि त्रुटियां करता है तब भी वह क्षम्य है, अतः हम भी इसी भावना को लेकर पाठ करें।
३ – शुद्ध होकर, शुद्ध आसन बिछाकर सामने उस देवता का विग्रह या मूर्ति रखकर स्तोत्र पाठ करें, यदि यह सम्भव नहीं हो तो आँख बन्द कर संबंधित देवता का ध्यान मानस में करके, फिर पाठ करना चाहिए।
४ – पाठ शुद्धता अति आवश्यक है अतः यथासम्भव स्तोत्र का पाठ शुद्ध रूप में करें, यदि संस्कृत का ज्ञान न हो तो किसी संस्कृत जानने वाले विद्वान् से वह स्तोत्र दो तीन बार सुनकर शुद्ध पाठ ज्ञात कर लें और इसके बाद ही उसका पाठ करें।
५ – स्तोत्र पाठ गेय रूप में करें, अर्थात् यदि स्तोत्र को गाया जा सके तो गाकर ही पाठ करना चाहिए।
६ – पाठ करते समय क्रोध, आलस्य, निद्रा, तन्द्रा या अन्य व्यवधान नहीं होने चाहिए। जब हम प्रफुल्ल चित्त हो तभी हमें स्तोत्र पाठ करना चाहिए।
७ – स्तोत्र पाठ करते समय हमारे वस्त्र स्वच्छ और पवित्र ही पहनने चाहिए ।
८ – स्तोत्र पाठ हर बार सात्विक भाव से ही करें और इस बात का ध्यान रखें कि हम जो कुछ बोल रहें हैं, वह सत्य और प्रामाणिक रूप से बोल रहे हैं।
९ – स्तोत्र का पाठ करने वाले साधक को उस स्तोत्र का अर्थ ज्ञात होना चाहिए, बिना अर्थ ज्ञात किये मात्र तोते की तरह पढ़ने से कोई लाभ नहीं होता।
१० – स्तोत्र पाठ में मधुरता होनी आवश्यक है। उतावली में या समय की न्यूनता के कारण जल्दी-जल्दी स्तोत्र पाठ पूरा करना किसी भी दृष्टि से अनुकूल नहीं है।
११ – स्तोत्र पाठ करते समय मुंह में कोई अन्य वस्तु नहीं होनी चाहिए और पाठ करते समय किसी प्रकार का नशा या व्यसन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
१२ – स्तोत्र पाठ प्रारम्भ करने के बाद तब तक आसन से नहीं उठना चाहिए जब तक वह स्तोत्र पूरा न हो जाय।
१३ – स्तोत्र पाठ सरल चित्त से करना चाहिए। मन में किसी प्रकार का अहंभाव लेकर स्तोत्र पाठ करना वर्जित है।
१४ – यदि हम सही रूप में, सही स्वर में तथा सही भावना से स्तोत्र पाठ करें तो स्तोत्र पाठ का तुरन्त प्रभाव होता है। स्तोत्र पाठ में यद्यपि त्रुटि क्षम्य है फिर भी यथासम्भव त्रुटि न हो, तो ज्यादा अच्छा है।
१५ स्तोत्र पाठ करते समय यदि सामने दीपक और अगरबत्ती प्रज्वलित हो तो अनुकूल रहता है।
१६ – स्तोत्र पाठ करते समय उस स्तोत्र की भावना, मधुरता और रम्यता में पूरी तरह डूब जाना चाहिए। एक प्रकार से साधक को उस स्तोत्र का ही एक भाग बन जाना चाहिए। जब तक साधक स्तोत्र और संबंधित देवता से एक रूपता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसका लाभ पूरी तरह प्राप्त नहीं हो पाता।
१७ – अधिकतर स्तोत्र संस्कृत में हैं अतः साधक को पहले संस्कृत का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए।
१५ – मन ही मन स्तोत्र पाठ करना वर्जित है। स्तोत्र पाठ उच्चारण के साथ करना चाहिए।
१९ – नित्य नियमित रूप से स्तोत्र पाठ करने पर वह मन्त्र स्वरूप हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देने लग जाता है, अतः स्तोत्र का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
२० – स्तोत्र पाठ सुखासन में बैठकर किया जाना चाहिए । इसके अलावा यदि साधक किसी अन्य आसन में बैठकर पाठ करना चाहे तो कोई हानि नहीं हैं।
२१ – स्तोत्र पाठ करते समय सामने संबंधित देवता का चित्र, अगरबत्ती, दीपक व जल का पात्र हो तो ज्यादा अनुकूल रहता है, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार अग्नि (दीपक), वरुण (जल पात्र) की साक्षी में ही स्तोत्र पाठ होना चाहिए।
२२ स्तोत्र पाठ प्रातः सांय या रात्रि किसी भी समय किया जा सकता है। इसके लिये कोई विशेष समय निश्चित नही होता। जब भी मन में तरंग उठे, जब भी स्तोत्र पाठ करने की इच्छा जाग्रत हो, जब भी प्रभु के समीप बैठने की भावना बने, तभी बैठकर स्तोत्र पाठ किया जा सकता है, परन्तु अपवित्र शरीर से या अपवित्र स्थान पर बैठकर स्तोत्र पाठ करना वर्जित है।
२३ – स्तोत्र पाठ करते समय या इससे पूर्व भारी भोजन नहीं करना चाहिए। शरीर को स्वच्छ व हल्का बनाये रखना अनुकूल रहता है।
२४ – कलियुग में स्तोत्र पाठ ही श्रेष्ठतम विधान माना गया है, परंतु अपने हाथ से लिखे स्तोत्रों का पाठ न करें।
२५ – स्तोत्रों का मानसिक पाठ न करें, मुख से उच्चारण कर सुमधुरस्वर से पाठ करना प्रशस्त है, स्तोत्र कण्ठस्थ न हो तो शुद्ध पुस्तक से पाठ करना चाहिये।