
अजय सिंह चौहान || भविष्य पुराण के ब्रह्मपर्व में छत्तीसवें अध्याय के अनुसार, कश्यप ऋषि ने सर्पों को (latest research on snakes from Puranas) लक्षण, विष, जाति, स्थान, रूप तथा ऐसे ही अन्य अनेक प्राकृतिक गुणों के आधार पर चार वर्णों में विभाजित करने को परिभाषित किया है। अर्थात मनुष्य की ही भांति सर्पों में भी उनके गुणों के आधार पर चार वर्ण होते हैं, जिनमें सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा वैश्य और चतुर्थ है शुद्र वर्ण। इससे हमें ज्ञात होता है की सर्प प्रजाति के जीवों में भी मनुष्य की भाँती वर्ण व्यवस्था होती है। और जहां वर्ण व्यवस्था होती है वहाँ उनकी जीवनचर्या और उनके कर्म भी उसी के आधार पर होते हैं। लेकिन इससे भी पहले हमें यह जान लेना चाहिए की पौराणिक कथन के अनुसार सर्प कुल कितने प्रकार के या कितने तरह के होते हैं।
भविष्य पुराण के ब्रह्मपर्व के छत्तीसवें अध्याय में लिखा है की जब गौतम ऋषि ने कश्यप ऋषि से सर्पों के विषय में सम्पूर्ण जानकारी चाही तो उन्होंने बताया कि –
चतुःषष्टिः समाख्याता भोगिनो ये तु पन्नगाः । अदृश्यास्तेषु षट्त्रिंशदृश्यास्त्रिंशन्महीचराः॥ ५६ ॥
विंशच्च स्त्रग्विणः प्रोक्ताः सप्त मण्डलिनस्तथा । राजीवन्तो दश प्रोक्ता दर्व्यः षोडश पञ्च च ॥ ५७ ॥
दुन्दुभो डुण्डुभश्चैव चेटभश्चेन्द्रवाहनः । नागपुष्पसवर्णाख्या निर्विषा ये च पन्नगाः ॥ एवमेव तु सर्पाणां शतद्विनवति स्मृतम् ॥ ५८ ॥
अर्थात – सर्प कुल ६४ तरह के होते हैं। जिसमें ३६ अदृश्य और २८ दिखलाई पड़ने वाले होते हैं। इनमें से २० मालाधारी, ७ मण्डली, १० प्रकार के राजिल तथा २१ तरह के दर्वी सर्प होते हैं। इनमें से नागपुष्प वर्ण वाले सर्प विषरहित होते हैं। इनके अलावा दुदुंभ, डेड़हा, चेटभ, इन्द्रवाहन आदि भी शामिल हैं। अदृश्य सापों के विषय में कहा जाता है की ये सर्प (latest research on snakes from Puranas) कुछ ऐसी प्रजाति के होते हैं जो मिटती, पत्थर, पेड़-पौधे, पानी या अन्य वनस्पतियों में छुप कर या अदृश्य होकर रहते हैं और आसानी के किसी को दिखाई नहीं देते। अदृश्य सर्प भारतीय महाद्वीप में तो बहुत कम लेकिन अन्य कई द्वीपों और महाद्वीपों पर बहुतायत में पाए जाते हैं। इसी प्रकार से ये सभी वर्णों वाले सर्प हर द्वीप पर पाए जाते हैं।
भविष्य पुराण में उल्लेख है कि –
श्वेता कपिलाक्षैव ये सर्पास्त्वनलप्रभाः । मनस्विनः सात्त्विकाश्च ब्राह्मणास्तै बुधैः स्मृताः ॥३८॥
रक्तवर्णाः सुबर्णाभाः प्रवालमणिसन्निभाः । सूर्यप्रभास्तथा विप्रस्ते क्षत्रिया भुजङ्गमाः ।। ३९॥
नानाविचित्रराजीभिरतसीवर्णसन्निभाः । बाणपुष्पसवर्णाभा वैश्यास्ते वै भुजङ्गमाः ॥४०॥
काकोदरनिभाः केचिद्ये च अञ्जनसन्निभाः। काकवर्णा धूम्रवर्णास्ते शूद्राः परिकीर्तिताः॥ ४१ ॥
अर्थात – देखने में जो श्वेत-कपिल, अग्निवत् कान्ति वाले सर्प होते हैं वे मनस्वी यानी बुद्धिमान तथा सात्विक सर्प (latest research on snakes from Puranas) होते हैं अतः इनको विद्वतजन ब्राह्मण वर्ण का सर्प बतलाते हैं। इसी प्रकार से देखने में जो सर्प रक्तवर्ण, स्वर्ण वर्ण, प्रवाल वर्ण, मणिवत्, सूर्य कान्ति के समान होते हैं ऐसे सर्प क्षत्रिय वर्ण के सर्प हैं। इसके अलावा तीसरे वर्ण में जो सर्प चित्र-विचित्र रेखा तथा अलसी पुष्प अथवा बाणपुष्पवत् चितकबरे होते हैं वे वैश्य वर्ण के सर्प होते हैं। और चौथे वर्ण के सर्प दिखने में काक यानी कौए के पेट सी चमक अथवा रंग में काले, धुएँ के सम्मान रंग वाले एवं काकवर्ण सर्प शूद्र वर्णिय सर्प होते हैं।
पुराणों में स्पष्ट बताया गया है कि, यदि इन सर्पों को मारा न जाए और उन्हें शुद्ध तथा स्वच्छंद प्राकृतिक वातावरण मिलता रहे तो जिस प्रकार मनुष्य के लिए कलियुग में 100 वर्षों की आयु निर्धारित की हुई है उसी प्रकार से इन सर्पों की आयु भी 120 वर्ष तक निर्धारित की हुई है। हालाँकि, यदि हम गूगल में देखते हैं तो “जन्तुविज्ञान” हमें स्वछंद वातावरण में रहने वाले सर्पों की आयु को 50 वर्षों से अधिक नहीं बताता, और यह भी उनका केवल एक अनुमान ही है। जबकि पुराणों में इनकी आयु 120 वर्ष तक लिखी हुई है।
पुराणों में हमें सर्पों की आयु के साथ मृत्यु के भी ऐसे आठ कारण जानने को मिलते हैं जिनमें मोर, मनुष्य, चकोर, गाय के खुर, बिल्ली, नकुल, शूकर तथा बिच्छू से बच जाने पर ही इनकी आयु १२० वर्ष होती है। हालाँकि वर्तमान समय में इनके लिए खतरों की संख्या और भी हो चुकी है। पुराणों से ही हमें यह भी मिलता है की 25 दिन की आयु वाला सर्प प्राणघातक हो जाता है। जबकि छठे मास में यह केंचुली बदलने में सक्षम हो चुका होता है। (latest research on snakes from Puranas)
सर्पं के जो अण्डे सुवर्ण केतकी तथा कमल के समान होते हैं, उनसे नागिन उत्पन्न होती है। जबकि जो अण्डे शिरीष पुष्पवत् होते हैं, उनसे नपुंसक नाग का जन्म होता है। छठे मास में अण्डे फूट जाते हैं तथा सात दिनों में वे कृष्णवर्ण हो जाते हैं।
पुराण के अनुसार-
सप्ताहे तु ततः पूर्णे दंष्ट्राणां चाधिरोहणम् । विषस्यागमनं तत्र निक्षिपेच्च पुनः पुनः॥ १७ ॥
एवं ज्ञात्वा तु तत्त्वेन विषकर्मारभेत वै। एकविंशतिरात्रेण विषदंष्ट्रा सुजायते ॥ १८ ॥
अर्थात – सात दिन के होते ही इनके दाँत उग आते हैं और उनमें विष की थैली बनने लगती है। यह जानकर वे डसने में सक्षम हो जाते हैं। हालाँकि इनके विषदन्त २१ दिनों बाद ही डसने के योग्य दृढ़ हो पाते हैं।
पुराण में आगे लिखा है कि-
पादानां चापि विज्ञेये द्वे शते द्वे च विंशती। गोलोमसदृशाः पादाः प्रविशन्ति क्रमन्ति च ॥ २० ॥
सन्धीनां चास्य विज्ञेये द्वेशते विंशती तथा । अंगुल्यश्चापि विज्ञेया द्वे शते विंशती तथा ।। २१ ॥
अकालजाता ये सर्पा निर्विषास्ते प्रकीर्तिताः । पञ्चसप्ततिवर्षाणि आयुस्तेषां प्रकीर्तितम् ॥ २२ ॥
अर्थात – गोरोमवत् यानी गाय के रोम के आकार के इनके 240 ऐसे सूक्ष्म पैर भी होते हैं जो रेंगते समय बाहर निकल आते हैं। जबकि प्राणी विज्ञान इसको एक दम नकारता है और मानता है की सर्पों के पैर नहीं होते। लेकिन हमारे पुराण इसको स्पष्ट रूप से लिखते हैं। इसके अलावा इनकी देह में 220 संधियां अर्थात जोड़ के समान स्थान होते हैं जहां से ये अपने शरीर को मोड़ लेते हैं या घुमा लेते हैं। अर्थात यही संधियाँ इनके घुमावदार कुंडली मार कर बैठने में या छुपाने में सहायक होती है। इसी तरह सर्पों की 220 अंगुलियों भी होती हैं किन्तु साधारण आंखों से हमें ये बिलकुल भी दिखाई नहीं देते।
भविष्य पुराण में यह भी स्पष्ट लिखा है कि सर्प के दांतों में सदेव विष नहीं रहता बल्कि इनकी दाईं आंख के पास की ग्रंथि में विष रहता है। सर्प यदि क्रोधित हो जाता है तो यह विष उसके मस्तिष्क तक भी पहुंच जाता है। वहां से धमनी द्वारा नाड़ियों में, और नाड़ियों से दांतों में पहुंच जाता है। इसके अलावा प्रायः ऐसे अन्य आठ कारण हैं जिनके कारण सर्प किसी को डंस सकता है- जैसे दबने से, शत्रु के प्रति क्रोध से, भयग्रस्त होने से, मदमत्तता के कारण, भूख से व्याकुल होकर, विष ज्वाला के कारण, पुत्ररक्षार्थ और कभी-कभी काल से प्रेरित होकर भी सर्प डस लेते हैं।
कश्यप ऋषि इस विषय में आगे बताते हैं की, सर्प यदि डसने के बाद पेट के बल उल्टा हो जाए तथा अपनी दाढ़ को वक्र या टेढ़ा करने लगे तब समझना चाहिए की उसने दब जाने के कारण अपनी आत्मरक्षा में काटा है। इसी प्रकार से सर्प के काटने पर यदि गहरा घाव हो जाए तो समझना चाहिए की उस सर्प ने शत्रुता के कारण डंसा है। और यदि सर्प के काटने पर एक दांत का चिन्ह स्पष्ट दिख रहा हो तो उस सर्प ने डरकर डंसा है। यदि किसी सर्प के डसने से दांत की रेखा समान लगे तो समझना चाहिए की वह मस्त अथवा मतवाला सर्प होगा।
आश्चर्य है कि इतनी सटीक तरह से हमारे पुराणों ने सर्प के हर पहलू पर अपनी दृष्टि कुछ इस प्रकार से डाली है कि आधुनिक विज्ञान भी अब तक इसको ठीक से नहीं जान पाया कि एक सर्पिणी का दंश अर्थात काटने का प्रभाव रात्रि में सबसे अधिक होता है, जबकि नर सर्प के काटने का प्रभाव दिन के समय में सबसे अधिक होता है। इसी प्रकार से किसी नपुंसक सर्प के काटने का प्रभाव सायंकाल सबसे अधिक होता है। यानी इसी प्रकार से इन सर्पों में लिंगों की भी पहचान की जा सकती है।
पुराण में लिखा है कि-
यस्य सर्पेण दष्टस्य दंशमङ्गुष्ठमन्तरम्। बालदष्टं विजानीयात्कश्यपस्य वचो यथा ।।४२।।
यस्य सर्पेण दष्टस्य देशं द्व्यङ्गुलमन्तरम्। यौवनस्थेन दष्टस्य एतद्भवति लक्षणम्॥ ४३॥
यस्य सर्पेण दष्टस्य सार्धं द्व्यङ्गुलमन्तरम्। वृद्धदष्टं विजानीयात्कश्यपस्य वचो यथा ।। ४४।।
अर्थात – कश्यप ऋषि आगे बताते हैं की अंगुष्ठमात्र की दूरी से काटने वाला बालक सर्प, दो अंगुल से काटने वाला युवा सर्प तथा ढ़ाई अंगुल की दूरी से काटने वाले सर्प वृद्ध होते हैं।
सर्पों में वर्ण के आधार पर इनके डसने और उसके प्रभाव के देखें तो ब्राह्मण सर्प के डसने से शारीर में दाह या जलन तथा मनोविकार, भूलने या आत्मविस्मृति वाली मूर्छा होती है और चेहरा सांवला पड़ने लगता है। जिस प्रकार से एक ब्राह्मण समाज में किसी को अकारण हानि नहीं पहुंचाता उसी प्रकार से ब्राह्मण वर्ण के सर्प द्वारा डसने से रोगी को अधिक हानि नहीं होती। इसके प्राकृतिक उपचार में अश्वगंधा, चिडचिडा तथा शराब एवं म्योड़ी को गाय के घी में मिश्रित कर पिला दें और मालिश भी कर दें, इसी प्रकार से एक क्षत्रिय सर्प के काटने से रोगी के शारीर में कम्पन, मूर्च्छा होने लगती है और व्यक्ति अपनी सुध खोने लगता है। यानी यह भी ठीक उसी प्रकार से है जैसे कोई शत्रु एक क्षत्रिय योद्धा को देख कर कांपने लगता है और अपनी शक्ति को भी भूल जाता है। इसमें पीड़ित आँखों की पुतलियों से ऊपर की और देखने लगता है। इसके प्राकृतिक उपचार के रूप में मदार की जड, चिडचिडा, प्रियंगु (मालकंगनी), इन्द्रवारुणी को गाय के घी में मिलकर पीड़ित को पिलाने और मालिश करने से तुरंत लाभ मिलता है।
इसके अलावा, वैश्य जाति के सर्पदंश में रोगी के मुख से लार टपकती है। वह अचेत हो जाता है और धीरे-धीरे वह भयानक मूर्च्छा में जाने लगता है, स्वयं को भूलने लगता है। इसके प्राकृतिक उपचार में रोगी को मिश्रित अश्वगंधा, गुग्गुलु के साथ शिरीष, मदार, पलाश, श्वेत अपराजिता को गोमूत्र में मिलाकर पिलाया जाता है। इसी तरह एक शुद्र वर्णीय सर्प के डसने पर रोगी क्रोधित, कम्पित, तथा शीत ज्वाराक्रांत यानी ठण्ड लग कर बुखार से पीड़ित होता है। उसके अंगों में चुनचुनाहट होने लगती है। इसके प्राकृतिक उपचार में कमल, लोध, कमल मधु, छोटे कमल का केसर, महुआ का रस, शहद तथा श्वेत अपराजिता के सामान भाग को ठन्डे जल में पीसकर पिला दें। यदि रोगी इसे पीने में सक्षम नहीं हो तो उसकी आँखों में काजल की तरह लगा दें और उसके हाथ पैरों के तलवों में इससे मालिश भी कर दें।
भोजन की आदतों में भी ये सर्प ठीक मनुष्यों की वर्ण व्यवस्था की भाँती ही व्यवहार करते हैं। ब्राह्मण सर्प पूर्वाह्न में यानी दिन के पहले भाग में भोजन की तलाश में विचरण करने निकलता है, क्षत्रिय सर्प मध्याह्न या दोपहर के समय में, वैश्य सर्प अपराह्न यानी दोपहर के बाद के समय में और शुद्र सर्प संध्याकाल में भोजन की तलाश में विचरण करने निकलते हैं। यदि पुराणों और अन्य कई सनातन शास्त्रों के आधार पर देखें तो वर्ण के आधार पर आज भी मनुष्य जाति में भोजन की यही प्रक्रिया होती है।
यहां एक और भी आश्चर्य होता है कि इन सर्पों का भोजन भी इसी प्रकार से होता है जैसे मानव के अपने वर्णों में होता है। अर्थात ब्राह्मण सर्प का भोजन मुख्यतः पुष्प होता है किंतु यदि उसे पुष्प भी न मिलें तो वह वायु पर आश्रित होकर भी एक दिन या इससे भी लम्बा समय गुजार सकता है। इसी प्रकार से क्षत्रिय सर्प का मुख्य भोजन मुख्यतः मूषक होता है और वैश्य सर्पों का मुख्य और प्रमुख भोजन मंडूक अर्थात मेंढक होता है। जबकि शुद्र सर्प सर्वभक्षी होते हैं।
इसी प्रकार से भविष्य पुराण में उल्लेख है कि –
अग्रतो दशते विप्रः क्षत्रियो दक्षिणेन तु वामपार्श्वे सदा वैश्यः पचाई शुद्र आदशेत्॥ ३१ ॥
मदकाले तु सम्प्राप्ते पीड्यमाना महाविषाः। अवेलायां दशन्ते वै मैथुनार्ता] भुजङ्गमाः ॥ ३२४ ॥
पुष्पगन्धाः स्मृता विप्राः क्षत्रियाश्चन्दनावहाः। वैश्याश्च घृतगन्धा वै शूद्राः स्युर्मत्स्यगन्धिनी ॥ ३३॥
वासं तेषां प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः। वापीकूपतडागेषु गिरिप्रस्रवणेषु च। यसन्ति ब्राह्मणाः सर्पा ग्रामद्वारे चतुष्पथे ॥ ३४ ॥
अर्थात – सर्पों की पहचान है कि यदि कोई सर्प किसी मनुष्य को डसता है तो उससे भी इनके वर्णों की पहचान हो सकती है। जैसे कि – ब्राह्मण सर्प अपने शत्रु को सामने से डसता है, क्षत्रिय सर्प दाहिने से, वैश्य सर्प बाएं से और शुद्र सर्प पृष्ठ से डसता है। हालाँकि यदि कोई भी सर्प काम से यानी कामोत्तेजना से पीड़ित होता है तो वह असमय भी डस सकता है।
इसके अलावा इन सर्पों की कुछ अलग और सबसे महत्वपूर्ण पहचान भी है जिसमें इनके निवास और भोजन से इनको पहचाना जा सकता है। जैसे- ब्राह्मण सर्प की गंध फूलों जैसी होती है, क्योंकि वह सात्विक आहार लेना पसंद करता है। इसी प्रकार से चंदन सी गंध क्षत्रिय सर्पों की होती है, क्योंकि क्षत्रिय की पहचान भी यही होती है। वैश्य सर्पों की गंध घृत अर्थात घी जैसी और शुद्र सर्पों की गंध मत्स्यगंध के समान होती है।
इसी प्रकार से –
आरामेषु पवित्रेषु शुचिष्यायतनेषु च। वसन्ति क्षत्रिया नित्यं तोरणेषु सरःसु च।। ३५ ।।
श्मशाने भस्मशालासु पलालेषु तटेषु च। गोष्ठेषु पथि वृक्षेषु विप्र वैश्या वसन्ति च ।। ३६॥
अविविक्तेषु स्थानेषु निर्जनेषु वनेषु च। शून्यागारे श्मशाने च शूद्रा विप्र वसन्ति ॥ ३७ ॥
अर्थात – सर्पों के वर्ण की पहचान इनके निवास स्थान के आधार पर भी की जाती है। जैसे ब्राह्मण सर्प को हमेशा बावली, नदी, कूप अर्थात कुएं, तालाब, पहाड़ी, झरने तथा ग्राम्यमार्गों यानी गाँवों के रास्तों के आसपास, चौराहों के आसपास देखा जाता है, क्योंकि इन्हीं स्थानों पर उसे सात्विक भोजन मिल सकता है। जबकि क्षत्रिय सर्पों को हमेशा बाग़-बगीचों, स्वस्छ नगर या गांव के आसपास या किसी भी स्वच्छ नगर के प्रवेश द्वारों और तालाबों आदि में देखा जा सकता है, क्योंकि क्षत्रिय सर्पों का भोजन भी इन्हीं हिस्सों में सबसे अधिक पाया जाता है। इसी प्रकार से वैश्य सर्प के निवास को श्यमशान, राख, पलाल (धान या घास का सुखा भाग), गौशालाओं के आसपास और वृक्षों पर देखा जा सकता है। जबकि शुद्र सर्प के निवास को गंदे स्थानों तथा निर्जन वन, शून्यगृह यानी खाली घरों और खंडहरों में देखा जा सकता है। सर्पों का निवास स्थान भी ठीक उसी प्रकार से होता है जैसा की वर्ण के आधार पर हम मनुष्यों में आज भी देखते हैं।
इसी प्रकार से सर्पों के डंसने के प्रकार और उससे होने वाले घाव तथा उनके विष और उस विष के लक्षणों के आधार पर ही इन सर्पों के वर्णों की पहचान की जाती है और प्राचीन काल से लेकर आज तक के हमारे परंपरागत ग्रामीण वैद्यों के द्वारा पीड़ितों का सफल उपचार किया जाता रहा है।
साथ ही इसके दंश के उपचार में कुछ ऐसे मंत्रों का भी उल्लेख पुराणों में दिया हुआ है जिनको आज हम अंधविश्वास और अज्ञानता मांनते है, किंतु इन्हीं मंत्रों के माध्यम से प्राचीनकाल में सर्पदंश का उपचार भी किया जाता था और कई क्षेत्रों में तो आज भी इन्हीं मन्त्रों के माध्यम से इलाज़ होता आ रहा है। आज का हमारा तथाकथित पढ़ा-लिखा समाज भले ही स्वयं के जीवन को विज्ञान के हवाले कर चुका है लेकिन एक समय था जब हमारे पूर्वज पूर्ण रूप से प्रकृति और पर्यावरण पर ही आश्रित हुआ करते थे। इसीलिए वे पूर्ण स्वस्थ और लम्बी आयु के अधिकारी होते थे।
शीघ्र ही मेरा प्रयास रहेगा की मैं पुराणों से लेकर इसी प्रकार की अन्य अनेकों तथ्यात्मक जानकारियों को भी सामने लेकर आऊं जिनको विज्ञान या तो महज इसलिए नकार देता है क्योंकि यह उसकी पहुँच से बाहर होती हैं या फिर वो हमारे पुराणों में वर्णित इसी प्रकार के जानकारियों से परिपूर्ण खजाने को नकार कर अपनी ही एक थ्योरी को सत्यापित करने का प्रयास करता है।
वन्दे विष्णु
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