अजय सिंह चौहान | सनातन हिंदू धर्म, एक ऐसी अनंत नदी है जिसकी धारा सहस्राब्दियों प्रवाहित होती आ रही है, क्योंकि सनातन हिंदू धर्म सदेव ही स्वतंत्र और आत्मनिर्भर रहा है। यह वह धर्म है जो अपने अस्तित्वकाल से ही वेदों की ऋचाओं में बसता है, उपनिषदों की गहराई में उतरता है और पुराणों के साथ-साथ रामायण-महाभारत की कथाओं में जीवंत होता है। इसमें देवताओं की पूजा ही नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है, कर्म, धर्म, मोक्ष का चक्र आदि सबसे प्रमुख हैं। लेकिन आज, यह प्राचीन वटवृक्ष सरकारों और नेताओं की जड़ों में उलझता नजर आता है। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या यह ऐतिहासिक मजबूरी है, राजनीतिक षड्यंत्र, या कोई सामाजिक कमजोरी है? इस लेख में हम इस प्रश्न की गहराई में उतरेंगे, विभिन्न दृष्टिकोणों को छूते हुए और एक सुंदर लेकिन विचारोत्तेजक चित्रण करेंगे।
ऐतिहासिक जड़ें: औपनिवेशिक विरासत से सरकारी नियंत्रण तक –
अगर हम आधुनिक काल की बात करें तो सनातन धर्म की निर्भरता की कहानी ब्रिटिश काल से शुरू होती है, जब औपनिवेशिक शासकों ने हिंदू मंदिरों को राजस्व का स्रोत बनाया और दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में भी यह विरासत जारी रही। आज, हजारों हिंदू मंदिर राज्य सरकारों के नियंत्रण में हैं, जबकि अन्य धर्मों के पूजा स्थल पूर्णतया स्वतंत्र हैं। यह विरोधाभास धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा पर सवाल उठाता है। मंदिरों की आय, जो करोड़ों में है, सरकारों द्वारा उपयोग की जाती है, वो भी कभी सामान्य विकास के नाम पर तो कभी राजनीतिक स्वार्थलाभ के लिए। उदाहरणस्वरूप, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में मंदिरों की संपत्ति पर सरकारी कब्जा एक ऐतिहासिक अन्याय है, जो हिंदू समाज को अपनी धरोहर से वंचित करता है।
यह निर्भरता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक है। प्राचीन काल में प्रत्येक राज्य और उनके राजा प्रथम पंक्ति के धर्म रक्षक हुआ करते थे, बावजूद इसके वे धर्म को तनिक भी नियंत्रित नहीं करते थे। आज के लगभग हर एक राजनेता और उनकी पार्टियाँ, संगठन आदि सभी धर्म को राजनीतिक हथियार बनाते हैं। अपने फाइदे के खातिर पार्टियों और नेताओं के द्वरा आज़ राष्ट्रवाद की लहर में हिंदुत्व को राष्ट्रीयता से जोड़ा जा रहा है, जबकि दूसरी ओर, यही लोग धर्म को राजनीतिक दलों की दया पर छोड़ देते हैं। आरएसएस जैसे संगठन तो सनातन को केवल एक ‘हिंदू जीवन शैली’ के रूप में परिभाषित करते हैं, लेकिन क्या इससे हमारा धर्म राजनीतिक एजेंडे से अलग हो पाता है?
हिंदू धर्म में राजनीतिक हस्तक्षेप: वोट बैंक से वैचारिक संघर्ष तक –
आधुनिक भारत में सनातन धर्म राजनीति की गिरफ्त में आ गया है। नेता चुनावों में राम मंदिर, गौ रक्षा या हिंदू एकता आदि का सहारा लेते हैं, लेकिन इससे हिंदू धर्म आत्मनिर्भर नहीं, बल्कि निर्भर होता जा रहा है।
ऐसी तमाम सर्वे रिपोर्ट बताती हैं जिनके अनुसार अधिकांश हिंदू और मुस्लिम दोनों ही इस बात को खुल कर मानने लगे हैं कि नेताओं को धर्म में कुछ हद तक हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन यह हस्तक्षेप अक्सर एकतरफा होता है। और यह एकतरफा हस्तक्षेप हर बात हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण रखते हुए ही दिखता है, जबकि सरकार अल्पसंख्यक धर्मों को सब्सिडी देती है, जो हिंदू समाज को असमानता की भावना से भर देता है।
‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की आलोचना करने वाले कहते हैं कि यह हिंदुओं को ‘भारत भूमि के मूल धर्मी और मूल निवासी’ मानकर अन्यों पर श्रेष्ठता थोपता है, जबकि समर्थक इसे विदेशी आक्रमणों से रक्षा का माध्यम बताते हैं। दक्षिण भारत में द्रविड़वाद और चर्च का गठजोड़ सनातन को ‘आर्यन’ आक्रमण की उपज बताकर कमजोर करने की कोशिश करता है। उधयनिधि स्टालिन जैसे नेता सनातन को ‘ब्राह्मणवादी’ बताकर हमला करते हैं, जो राजनीतिक विभाजन को बढ़ावा देता है। इससे हिंदू समाज नेताओं पर निर्भर हो जाता है, कभी सुरक्षा के लिए तो कभी पहचान के लिए।
शोसल मीडिया और सामाजिक मीडिया पर अब धीरे-धीरे ये बहस और तीखी होती जा रही है कि हिंदू धर्म कब तक संवैधानिक नेताओं, पार्टियों और प्रशासन तंत्र पर निर्भर रहेगा? जहाँ एक तरफ एक यूजर कहता है, “कोई भी धर्म राज्य संरक्षण के बिना नहीं टिक सकता,” और हिंदू मंदिरों की लूट का जिक्र करता है। जबकि दूसरा यूजर ‘सनातन बोर्ड’ की मांग करता है, ताकि मंदिरों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए। हालाँकि ऐसे संदेश दर्शाते हैं कि हिंदू समाज में जागृति तो है, लेकिन एकता की भी कमी है जो इसे नेताओं की दया पर छोड़ देती है।
सरकारों और नेताओं पर सनातन धर्म की निर्भरता की एक बड़ी वजह हिंदू समाज की कुछ आंतरिक कमजोरियां भी हैं। जातिवाद, क्षेत्रीय विभाजन और वैचारिक मतभेद ने इसे बिखरा दिया है। जहां इस्लाम और ईसाई धर्म में केंद्रीकृत संस्थाएं हैं, वहां हिंदू धर्म में गुरुओं और संतों की विविधता है, लेकिन कोई एकीकृत संरचना नहीं। परिणामस्वरूप, कानूनी लड़ाइयों, शिक्षा या सांस्कृतिक संरक्षण के लिए हिंदू समाज सरकारों पर निर्भर हो जाता है।
हम देख रहे हैं की आर्थिक रूप से, मंदिरों की आय का उपयोग स्वयम हिंदू समाज के उत्थान के लिए नहीं हो रहा है। इस विषय पार एक विचारक कहते हैं, “हिंदू इकोसिस्टम बनाये जाएँ, ताकि मंदिरों की आय से हिंदुओं के लिये विश्वविद्यालय, उद्यमी और थिंक टैंक आदि बनाए जाए।” लेकिन वर्तमान में, मंदिरों की यह आय सरकारी खजाने में जाती है, जो हिंदू समाज को ही कमजोर बनाती है। तमाम प्रकार की भारत विरोधी और हिंदू विरोधी ताकतें जैसे — मुल्ला, मिशनरी, मीडिया, मार्क्सवादी, वामपंथि और दक्षिणपंथी ताकतें लगातार सनातन को नष्ट करने की साजिश रचते हैं, और हिंदू नेता इनके सामने झुकते नजर आते हैं।
धर्मनिरपेक्षता का दिखावा करने वाले, जो समानता का वादा करते हैं, वास्तव में सनातन को मिटाने का हथियार बन चुके हैं। उनकी नीतियाँ हिंदू त्योहारों को न केवल नियंत्रित करती हैं, बल्कि अपमानित भी करतीं हैं। जबकि उनकी वही धर्मनिरपेक्षता, हिंदुओं के अलावा अन्य धर्मों को छूट देती है। इसका परिणाम ये देखने को मिलाता है कि अधिकतर हिंदू युवा अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। इन्हीं सब का परिणाम ये निकलता जा रहा है कि सनातन धर्म धीरे-धीरे राजनीतिक दलों की दया पर टिका है।
राजनीति के कंधों पर सनातन हिंदू धर्म की बढ़ती निर्भरता एक चेतावनी है। यह वह फूल है जो अपनी जड़ों से कटकर मुरझा रहा है। लेकिन आशा की एक किरन तब नज़र आती है जब ‘सनातन बोर्ड’ जैसी पहल से मंदिरों को मुक्त किया जा सकता है। हिंदू समाज को एकजुट किया जा सकता है, और धर्म को राजनीति से अलग रखा जा सकता है। यदि हिंदू जागृत हों, तो यह धर्म फिर से अपनी प्राचीन गरिमा पा सकता है।