जैसे ही पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे आये, देश और दुनिया की उन तमाम सैक्युलर और वामपंथी विचारधारा के चेहरे खिल गये जो शुरूआत से ही अपने उस अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे पर कायम थे, कायम हैं और आगे भी अपने उसी एजेंडे पर कायम रहेंगे कि किसी भी प्रकार से बंगाल को एक नये देश के रूप में मान्यता दिलवा दी जाये।
आम आदमी के लिए भले ही इन चुनावों के नतीजे एक राज्य के विधानसभा के तौर पर रहे हों। आम आदमी के लिए भले ही ये चुनाव देश के किसी न किसी राज्य में हर साल आयोजित होने वाले चुनावों में से ही एक रहा हो। भले ही इसके नतीजों में तृणमूल कांग्रेस को जीत मिली हो। लेकिन, न सिर्फ इस जीत के मायने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बड़ा असर छोड़ने वाले हैं बल्कि देश के इतिहास में भी ये एक नया अध्याय जोड़ने वाला है।
पश्चिम बंगाल विधानसभा की ये जीत अगर तृणमूल की बजाय भाजपा को मिली होती तब भी उसके मायने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वही होते जो आज तृणमूल की जीत पर हो रहे हैं। क्योंकि ये जीत उसी प्रकार से है जैसे किसी अंतर्राष्ट्रीय युद्ध में दो पड़ौसी देश लड़ते हैं और उनमें से एक जीत जाता है और दूसरा देश आत्मसमर्पण कर देता है। सीधे-सीधे कहें तो पश्चिम बंगाल के इस बार के विधानसभा परिणामों में राष्ट्रवाद नहीं बल्कि एक देश की हार हो चुकी है।
अंतर्राष्ट्रीय युद्धों में भी जिस प्रकार से हारने वाले किसी देश के सैनिकों को बंदी बनाया जाता है उसी प्रकार से इस समय बंगाल के वे लोग जो सीधे-सीधे राष्ट्रवाद के पक्ष में और तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ दिख रहे थे यकीन मानिए कि बंगाल में अब तक तो उन राष्ट्रवादियों की पहचान कर भी ली गई होगी। फिर चाहे वो राज्यपाल महोदय हों या फिर विपक्ष में बैठने वाले नये नवेले एमएलए ही क्यों न हों। तो फिर आम आदमी की औकात ही क्या रह जाती है। यानी एक बार फिर से सन 1947 जैसा रक्तपात से भरा पलायन ही अब एक मात्र रास्ता बचता है।
आज अगर राष्ट्रवाद और हिंदुत्ववाद जैसे इक्का-दुक्का मुद्दे और विचारधारा खुद राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी केन्द्र या राज्य सरकारों की शरण में होते हुए भी सुरक्षित नहीं रह पा रहे हैं तो फिर पश्चिम बंगाल में कैसे इसकी सांसे सही सलामत रह पायेंगी, अब तो ये सोचने वाली बात ही नहीं रही।
पश्चिम बंगाल के इन विधानसभा नतीजों के बाद वहां के मीडिया की स्थित की बात करें तो यहां हम सीधे-सीधे ये भी कह सकते हैं कि हिंदुत्व का या राष्ट्रवाद का साथ देने वाले ऐसे तमाम पत्रकार या फिर मीडिया घराने भी इससे अछूते नहीं रहने वाले हैं, तो फिर बंगाल से बाहर के यानी बाहरी मीडिया की तो औकात ही क्या है।
सबसे बड़ा सवाल तो ये उठता है कि अगले कुछ ही दिनों या महीनों के भीतर पश्चिम बंगाल में जो स्थिति उत्पन्न होने वाली है उसका अंदाजा लगाना बंगाल के बाहरी लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी। जबकि राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी विचारधारा को मानने वाले पश्चिम बंगाल के उन कुछ इक्का-दुक्का बचे निवासियों के लिए इस चुनाव से पहले जो आम बात हुआ करती थी वह अब खास होने वाली है।
अगले पांच सालों तक समस्या तो इस बात की रहेगी कि पश्चिम बंगाल से अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसियां भी अब रक्तपात और आगजनी से भरे उन आंकड़ों को बाहर नहीं भेजने वाली है जिनसे वहां की असली तस्वीर का आंकलन हो सके। क्योंकि हो न हो इस बार के चुनाव परिणाम उन्हीं समाचार एजेंसियों की देन हैं जिन्होंने वहां अपने-अपने तरीकों और लोगों के सहारे अंतर्राष्ट्रीय ताकत झौंकी। आखिरकार वे लोग भी तो इसे विभाजनकारी एजेंडे वाला चुनाव मान कर चल रहे थे।
ऐसे में अगर हम अपने ही देश के मीडिया की बात करें तो ममता बनर्जी ने जिस प्रकार से जीत की हैट्रिक लगाई है उसको देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं बल्कि भारतीय मीडिया के तमाम न्यूज चैनलों और अखबारों में भी उसी रात और अगली सुबह जो स्थान दिया है उसको देखते हुए ये बात तो तय है कि ममता दीदी को न सिर्फ भविष्य में प्रधानमंत्री पद की प्रबल दावेदरी के लिए बल्कि एक नये देश की जनक के तौर पर भी पहचान मिल सकती है।
ये अलग बात है कि भाजपा की ओर से खूब मेहनत की गई थी। ये भी सच है कि भाजपा के पास वहां खोने को कुछ भी नहीं था। ये भी सच है कि भाजपा के छोटे-बड़े हर सदस्य ने वहां जोर लगाया। लेकिन, ये भी सच है कि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में भी वो करिश्मा कर दिखाया जिसके लिए उसकी नींव रखी गई थी और जिसके लिए वह जानी जाती है।
कांग्रेस के वो करिश्मे जो उसने कभी कश्मीर में दिखाये थे, अब बंगाल में दिखा रही है। ये भी सच है कि कांग्रेस की देश के विभाजन वाली करतूतें केरल, पंजाब और महाराष्ट्र में भी असर दिखाने लगी हैं। दरअसल, कांग्रेस ऐसी कोई कसर बाकी रखना ही नहीं चाहती है जिसके लिए उसकी नींव पड़ी थी।
हालांकि, फिलहाल ये मानना अभी बहुत बड़ी बात हो सकती है कि देश की राजधानी दिल्ली भी भविष्य में एक नये देश के रूप में उभर सकती है। लेकिन, कांग्रेस के वो करिश्मे जो उसने कभी कश्मीर में दिखाये थे, अब बंगाल में दिखा रही है। जल्द ही दिल्ली को भी भारत से बाहर निकाल कर अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में कोई कसर छोड़ने वाली नहीं है।
ऐसे में याद आता है वह बयान जो भाजपा के सांसद गिरिराज सिंह जी ने सन 2018 में दिया था। यदि किसी को याद नहीं है तो बता दूं कि श्रीमान गिरिराज सिंह जी ने ट्वीट कर कहा था कि सन 2047 तक भारत का एक और बंटवारा हो सकता है।
उस समय गिरिराज सिंह जी का वह बयान भारतीय मीडिया के हर अखबारी पन्ने पर और हर टेलीविजन चैनल पर विवादित और सुर्खियां बटोरने वाले केंद्रीय मंत्री के तौर पर ऐसे चलाया गया था जैसे गिरिराज सिंह ने देश के बंटवारे का प्रस्ताव रख दिया हो और संविधान को एक दम नकारा बता दिया हो। लेकिन, किसी ने उस बयान के पीछे के उस तलब को समझने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। क्योंकि वो उनका एजेंडे में नहीं है।
गिरिराज सिंह जी की गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने भविष्य को पढ़ लिया था। तभी तो उन्होंने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर ऐसा कहने की हिम्मत दिखाई थी कि सन 1947 में धर्म के आधार पर ही देश को बांटा गया था, और वैसी ही परिस्थिति एक बार फिर से सन 2047 तक निर्मित की जा रही है। आजादी के बाद से लेकर अब तक के इतने वर्षों में जनसंख्या 33 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ हो चुकी है। इस जनसंख्या में विभाजनकारी ताकतों का विस्फोट तो और भी भयावह है।
सैक्यूलर जमात के लिए गिरिराज सिंह जी का बयान भले ही विवादित रहा हो। हालांकि, ये भी सच है कि जिस पार्टी के वे नेता हैं, वही पार्टी खुद भी हिंदुत्व के नाम पर सत्ता में दोबारा ना सिर्फ केन्द्र में बल्कि देश के अन्य कई राज्यों में उभर कर आई है। अफसोस तो इस बात का है कि वही भाजपा अब धीरे-धीरे सैक्युलर वाले रास्ते पर गति पकड़ती जा रही है।
लेकिन, गिरिराज सिंह जी का वह बयान और वह पूर्वाभास झूठा साबित होने वाला नहीं है। ये भी सच है कि भाजपा को पश्चिम बंगाल में बड़ी सफलता हासिल हुई है। लेकिन, ये भी सच है कि अब न तो भाजपा और ना ही कांग्रेस गिरिराज सिंह जी के उस पूर्वाभास से बचाने वाली है।
सोचने वाली बात है कि आखिरकार भारत एक बार फिर से सन 1947 वाली उस स्थिति में कैसे पहुंच रहा है? क्या किसी ने जानबुझ कर देश के खिलाफ इतनी बड़ी शाजिस रची होगी या फिर उस पवित्र संविधान की गलती है या उस पवित्र संविधान का पालन करने वालों की?
वर्तमान दौर में सैक्युलर और राष्ट्रवाद जैसे दो ही शब्द हैं जो इस देश की जनता के लिए समस्या बने हुए हैं? दोनों ही शब्दों का विष्लेषण अपने-अपने तौर पर सही है।
भले ही दुनिया मानती रहे कि भाजपा का लक्ष्य पश्चिम बंगाल में अपने आधार को मजबूत करना रहा है। लेकिन, सच तो ये भी है कि भाजपा का लक्ष्य न सिर्फ अपने आधार को, बल्कि देश की उस भूमि को भी बचाने पर रहा ही होगा।
आज भले ही पश्चिम बंगाल में भाजपा का 200 प्लस का सपना पूरी तरह से टूट चुका है। लेकिन, यकीन मानिए कि अगले पांच सालों के बाद भाजपा को इसी बंगाल में 200 प्लस के लिए बालाकोट की स्ट्राइक और उरी की स्ट्राइक जैसी तैयारी भी करनी पड़ सकती है। और अगर आज उसे बहुमत नहीं मिल पाया है तो समझ लो कि अगले पांच साल बाद तो वहां कोई पानी पिलाने वाला भी नहीं बचेगा।
अगर मैं खुद अपनी बात करूं तो मेरी बदकिस्मती है कि मैं अपने जीवन के अब तक के सफर में पश्चिम बंगाल की उस पावन धरती पर कदम नहीं रख पाया हूं। और ये उसी प्रकार से है जिस प्रकार से राज्यसभा में अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में गुलामनबी आजाद ने कहा था कि वो उन खुशकिश्मत लोगों में हैं जो उस धर्म या संप्रदाय विशेष के होते हुए भी अभी तक पाकिस्तान की धरती पर कदम नहीं रख पाये हैं।
लेकिन, गुलामनबी आजाद के विचारों से अलग, मेरी अपनी हार्दिक इच्छा है कि इसके पहले की मुझे वहां जाने के लिए पासपोर्ट और वीजा लेना पड़े, मैं एक बार वहां अवश्य ही जाना चाहूंगा।
बाहरी बनाम बंगाली के नाम पर लड़ा गया इस बार का चुनाव राज्य के बाहर के लोगों के लिए नहीं बल्कि एक प्रकार से विदेशी और बंगाली के नाम पर भी देखा जाना चाहिए। और आज अगर विदेशी और बंगाली के नाम पर इसके नतीजों को नहीं आंका गया तो वो दिन दूर नहीं जब गिरिराज सिंह जी का वो बयान सच साबित हो जाये।
ऐसे में डर इस बात का है कि कलयुग में होने वाला भगवान विष्णु के उस अवतार को अभी हजारों वर्ष बचे हैं और भारत भूमि के पास अब मात्र 50-60 या फिर 70 या 80 वर्ष ही बचे हैं। तो फिर जब हिन्दू ही नहीं रहेगे तो उन्हें भगवान कौन मानेगा और कौन से देश की धरती पर उनका जन्म होगा? किसके लिए वे लड़ेंगे जब न राष्ट्र बचेगा और न राष्ट्रवाद और ना ही कोई सनातनी।
– अजय सिंह चौहान