पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में वादों का दौर बहुत तेजी से चल रहा है। कभी कोई लोक-लुभावन घोषणा सुनने को मिल रही है तो कभी कोई। एक से बढ़ कर एक घोषणाएं आये दिन सुनने को मिल रही हैं किन्तु इन घोषणाओं को कैसे पूरा किया जायेगा, इस बात का ब्यौरा रखने के लिए कोई दल तैयार नहीं है। यदि कोई दल इन लोक-लुभावन घोषणाओं से बचना भी चाहे तो उसका बच पाना मुश्किल है क्योंकि उसे लगता है कि लालच के कारण वह दल चुनावी रेस में कहीं पीछे न रह जाये। वास्तव में यदि देखा जाये तो इस प्रकार की जितनी लोक-लुभावन घोषणाएं हो रही हैं इससे चुनाव भले ही जीत लिया जाये किंतु इससे लोकतंत्र किसी भी प्रकार से मजबूत होने वाला नहीं है क्योंकि चुनाव ठोस कार्यों की रूपरेखा बनाकर नहीं लड़े जा रहे हैं।
चुनाव जीतने के बाद लोक-लुभावन योजनाओं को कैसे पूरा किया जायेगा, इस बात की जानकारी राजनीतिक दलों को विस्तृत रूप से देनी चाहिए किन्तु धीरे-धीरे समय बदल रहा है। वादे करके भूल जाओ, अब ऐसा नहीं चलेगा यानी यदि कथनी-करनी में अंतर होगा तो धीरे-धीरे मुश्किल खड़ी होती जायेगी। राजनीति में अकसर देखने को मिलता है कि कहा जाता है कुछ और होता कुछ और है। प्रत्याशियों के चयन की बात की जाये तो राजनीतिक दलों के पास प्रत्याशी चयन का कोई ठोस मापदंड नहीं है। दिन-प्रतिदिन गिरावट दर गिरावट देखने को मिल रही है।
सामाजिक परिवेश की बात की जाये तो पूरे वातावरण में ऐसा माहौल बना हुआ है कि पार्टी उन्हें ही प्रत्याशी बनाती है जिनके जीतने की संभावना अधिक होती है जबकि अकसर यह देखने को मिल जाता है कि क्षेत्र में यदि किसी प्रत्याशी ने एक दिन भी काम नहीं किया होता है तो भी उसे प्रत्याशी बना दिया जाता है अैर वह चुनाव जीत भी जाता है। ऐसे में यह बात बिल्कुल बेमानी हो जाती है कि पार्टियां सिर्फ चुनाव जीतने वालों को ही अवसर देती हैं किन्तु मजबूत प्रत्याशी की आड़ में किसी के साथ नाइंसाफी भी हो जाती है।
लोकतंत्र एवं चुनाव में गरीब से गरीब व्यक्ति की रुचि बढ़े, इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि योग्य का ही चुनाव किया जाये। इस संबंध में कुल मिलाकर मेरे कहने का आशय यही है कि भविष्य में प्रत्याशी चयन हो या कोई अन्य मामला, मानकों में हेरा-फेरी नहीं चलेगी। वास्तव में यह अपने आप में बिल्कुल सत्य है कि मानकों में यदि कोई हेरा-फेरी करता है तो कुछ दिन वह भले ही चल जाये किन्तु उसका भविष्य बहुत उज्जवल नहीं रह पाता। धीरे-धीरे उसे पतन के रास्ते पर जाना ही पड़ता है।
चुनावी मौसम में आम जनता को लुभाने के लिए वायदों की भरमार हो रही है जिससे चुनाव में जीत हासिल की जाये किन्तु वर्तमान दौर में यह बात बेहद जोरों से चर्चा में है कि आखिर इन वायदों को कैसे पूरा किया जायेगा? अल्पकाल के लिए कोई भी दल अपने मकसद में भले ही कामयाब हो जाये किन्तु लंबे समय तक यदि किसी भी दल को टिकना है तो कथनी को करनी में बदलना ही होगा।
उदाहरण के तौर पर आज यदि भारतीय जनता पार्टी की बात की जाये तो उसके नेता राष्ट्रवाद एवं अंत्योदय यानी समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के उत्थान की बात पहले से करते रहे हैं तो आज भी उस पर कायम हैं। राम मंदिर के मामले में भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं कार्यकर्ता अकसर यह नारा लगाते आये हैं कि रामलला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनायें। भाजपा ने अपने वायदे पर अमल करते हुए राम मंदिर निर्माण के मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं को दूर कर मंदिर का निर्माण प्रारंभ करवा दिया।
जनसंघ के संस्थापक सदस्य एवं जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का सपना था कि राजनीति एवं सेवा के केन्द्र में सदैव समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति ही होना चाहिए। आज भारतीय जनता पार्टी निश्चित रूप से उनके सपनों को साकार करने में लगी है।
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों में पारदर्शिता, घोषणा पत्रों पर अमल, विचारधारा की कसौटी पर खरा उतरना, नीतियों एवं उसके क्रियान्वयन में एकरूपता, नेताओं के आचरण एवं आम जनता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में खरा उतरना ही होगा। वैसे भी देखा जाये तो यह अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि कथनी- करनी में अंतर न चला है, न चलेगा।
हिन्दुस्तान की सनातन संस्कृति ऐसे तमाम गौरवशाली उदाहरणों से भरी पड़ी है, जब राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि एवं अन्य विभूतियां अपने वचन पर कायम रहीं, इसके बदले भले ही उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। त्रेता युग में चक्रवर्ती राजा दशरथ के बारे में एक कहावत सर्वविदित है कि ‘प्राण जाय, पर वचन न जाये’ यानी राजा दशरथ ने रानी कैकेयी को दिये गये अपने वचन को पूरा करने के एवज में अपने प्राण भले ही त्याग दिये किन्तु उन्होंने अपना वादा पूरा करके जगत में एक मिसाल कायम कर दी।
यह सब घटित तो हुआ त्रेता युग में किंतु उसकी चर्चा आज भी हो रही है। प्रभु श्रीराम जैसा आज्ञाकारी पुत्र जिससे राजा दशरथ ने स्वयं कहा कि तुम मेरे आदेशों को मानने के लिए उस तरह बाध्य नहीं हो, जैसा कि मैं रानी कैकेयी के प्रति अपने वचनों के लिए हूं इसलिए ‘हे पुत्र तुम बगावत करके मेरे आदेशों को मानने से इनकार कर दो किन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने पिता के आदेशों का अक्षरशः पालन कर समस्त संसार में पितृभक्ति एवं पिता के सम्मान की एक ऐसी मजबूत रेखा खींच दी, जिस पर चल पाना हर पुत्र अपना सौभाग्य समझता है। रामायण की बात की जाये तो भरत, लक्ष्मण, सीता, उर्मिला सहित अन्य लोगों ने संस्कार, मर्यादा एवं अन्य मामलों में समाज को दिशा देने का काम किया।
आज समाज सेवा के लिए नेताओं को इस दल से उस दल में भटकते देखा जा रहा है किन्तु उन भटकते हुए नेताओं को देखकर यही लगता है कि बिना चुनाव लड़े या यूं कहें कि बिना विधायक, सांसद या मंत्री बने समाज सेवा नहीं हो सकती है क्या? समाज सेवा को ध्यान में रखते हुए यदि हम अपने अतीत में जायें तो मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम एवं भगवान श्रीकृष्ण न तो कभी राजा बने और न ही किसी रूप में राजकाज को प्रभावित किया और सब कुछ त्यागने के बावजूद उन्होंने मजबूत सेना तैयार की और समाज के दीन-दुखियों, पीड़ितों एवं वंचितों की मदद करते हुए एवं उन्हें अपने साथ लेते हुए न सिर्फ समाज का कल्याण किया बल्कि उस समय के आतताइयों का संहार भी किया। इन सारे मामले में एक बात महत्वपूर्ण यह है कि इन्होंने कभी अनीति, अनैतिकता एवं अधर्म का मार्ग नहीं चुना। सदैव सत्य मार्ग पर चलते रहे। धर्म युद्ध में इन लोगों ने यदि किसी को किसी भी रूप में कोई वचन दिया तो उसका अक्षरशः पालन किया।
आज एक बात सर्वत्र सुनने को मिलती रहती है कि यदि जनता ईमानदार, चरित्रवान एवं अच्छे लोगों को चुनने लगे तो सभी समस्याओं का समाधान अपने आप हो जायेगा। अब सवाल यह है कि अच्छे लोगों का मापदंड क्या है? जाति, धर्म, संप्रदाय, गोत्र एवं घर-परिवार के मूल्यांकन के आधार पर जन प्रतिनिधियों का चुनाव किया जायेगा तो सही-गलत की पहचान कैसे हो सकती है? सही-गलत या अच्छे-बुरे की पहचान तभी हो सकती है जब हम किसी का मूल्यांकन इंसानियत एवं मानवता के आधार पर करें। भारत की सनातन संस्कृति में विश्व कल्याण की बात कही गई है। ऐसे में कोई यह कहे कि यदि मैं चुनाव जीत गया तो अपनी बिरादरी एवं अपने गोत्र के लोगों के लिए अमुल-अमुक कार्य करूंगा तो ऐसे में राष्ट्र एवं समाज के कल्याण की भावना कैसे भलीभूत होगी?
चूंकि, आज के दौर में यह कहावत चरितार्थ होती दिख रही है कि अच्छी बातों का प्रचार-प्रसार बहुत धीरे-धीरे होता है और बुरी बातें बहुत तेजी से प्रचारित हो जाती हैं। वैसे भी आज के समाज में यह बात सही साबित होती जा रही है कि झूठ की जुबान बहुत लंबी होती है। किसी एक ही क्षेत्र के प्रत्याशियों के बारे में यह चर्चा होने लगे कि कोई नागनाथ है तो कोई सांपनाथ, इसमें से किसका चुनाव किया जाये, यानी यदि जनता की नजर में समग्र दृष्टि से कोई भी प्रत्याशी परिपूर्ण न मिले तो ऐसी स्थिति में जनता क्या करें? यह बात कहने एवं सुनने में बहुत अच्छी लगती है कि लोकत्रांत्रिक व्यवस्था का मतलब जनता का शासन, जनता के लिए, जनता द्वारा किन्तु व्यावहारिक स्थिति तो यह है कि सुप्रीम पावर होते हुए भी जनता सर्वत्र लाचार एवं मजबूर नजर आती है।
राजनीतिज्ञों के अलावा यदि अफसरशाही या नौकरशाही की बात की जाये, जिसकी नियुक्ति जनता की सेवा के लिए होती है किन्तु वास्तव में कितने ऐसे नौकरशाह हैं जिन्हें जनता अपना हमदर्द, सेवक एवं भाई समझती है। आज लोगों का यदि राजनीति एवं राजनीतिज्ञों पर से विश्वास कम हुआ है तो क्या इसमें नौकरशाही की कम भूमिका है? जहां तक मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि नौकरशाही यदि राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर अनाप-शनाप कार्यों के फेर में न पड़े तो देश में राम राज्य की झांकी प्रस्तुत की जा सकती है।
विश्व गुरु बनना है तो पुनः कृषि प्रधान देश बनना ही होगा…
वैसे भी पूरे विश्व में बेतहाशा आधुनिकीकरण के कारण अधिकांश कार्य मशीनों के द्वारा हो रहे हैं। ऐसे में काफी संख्या में युवा और अन्य लोग बेरोजगार हुए हैं और अभी भी हो रहे हैं। चूंकि, जो लोग बेरोजगारी के कारण खाली बैठे हैं, उनके पास यह जानने के लिए पर्याप्त समय है कि पूरी दुनिया में कहां क्या हो रहा है? ये लोग पूरी शिद्दत के साथ यह देखने का कार्य कर रहे हैं कि सरकारें बेरोजगारी दूर करने एवं अन्य समस्याओं को दूर करने के लिए वादे तो बहुत करती हैं किन्तु वास्तव में उन पर अमल नहीं होता है परंतु ऐसा लगता है कि अब यह सब चल नहीं पायेगा। अतः अब यह आवश्यक हो गया है कि किसी के भी द्वारा किसी भी स्तर पर जो वादा किया जाये, उसका पूरी तरह निर्वहन किया जाये अन्यथा स्थिति बेहद खतरनाक हो सकती है, इसलिए वादा करने वालों को हर स्तर से सावधान होने की जरूरत है। कथनी-करनी में अंतर का दौर वैसे भी धीरे-धीरे समाप्ति की ओर अग्रसर होगा।
आज समाज में एक धारणा यह भी तेजी से पनपी है कि जिसको मौका नहीं मिला, ईमानदार सिर्फ वही है यानी किसी भी व्यक्ति की निष्ठा एवं ईमानदारी की परख तभी हो सकती है जब उसे कहीं मौका मिले अर्थात व्यक्ति मौका मिलने पर यदि ईमानदार बना रहता है तो ही उसके बारे में प्रामाणिकता के साथ कहा जा सकता है कि अमुक व्यक्ति एकदम पाक-साफ एवं ईमानदार है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का प्रचार-प्रसार चल रहा है। सभी राजनीतिक दल एवं प्रत्याशी अपने स्तर से जनता से वादा कर रहे हैं, ऐसे में तमाम लोगों की चिंता इस बात को लेकर है कि राष्ट्र एवं समाज के विकास के लिए राजनीतिक दल एवं नेता ठोस योजनाएं लेकर आयें, लोक-लुभावन वादों से राम राज्य की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है।
लोक-लुभावन वादों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट भी सख्त हुआ है और उसने कहा है कि वादे, वादे बनकर न रह जायें। वादा यदि पूरा न हुआ तो सख्त कार्यवाही होगी। इस संदर्भ में कब क्या होगा, इसके बारे में सटीक जानकारी अभी भले ही न मिल पाये किन्तु एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि वादों को लेकर आज नहीं तो कल सख्त कानून बनाना ही होगा, क्योंकि कानून बनाकर ही इस तरह के झोल-झाल को रोका जा सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में देश चहुंमुखी विकास कर रहा है। सभी क्षेत्रों के ढीले पेंच सरकार धीरे-धीरे कसने का काम कर रही है। चीजें दुरुस्त हो रही हैं किंतु यह सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है। यह कार्य सिर्फ सरकार ही नहीं कर सकती है, इसके लिए समाज को भी आगे आना होगा। लोग यदि यह सोचें कि भगत सिंह पैदा तो हों किन्तु मेरे नहीं, बल्कि पड़ोसी के घर तो इस प्रकार की भावना से काम नहीं बनेगा, इसके लिए तो सभी को प्रयास करना होगा।
इस मामले में मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि हर कार्य की एक हद होती है, हद पार करते ही उस पर मंथन शुरू हो जाता है और यह अपने आप में सत्य है कि मंथन के बाद विष के साथ अमृत भी निकलता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारे देश का भविष्य मंथन के माध्यम से निरंतर अमृतमय बनने की दिशा में अग्रसर है।
– सिम्मी जैन (दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस)