अजय सिंह चौहान || बात उन दिनों की है जब मुगल लुटेरे और क्रूर शाशक औरंगज़ेब ने 14 मई सन 1657 को जन्में शिवाजी महाराज के पुत्र वीर संभाजी राजे को अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ बंदी बनाकर अपने सिपाहियों को सौंप दिया, और आदेश किया गया कि उन्हें इस्लाम कबुल करवाया जाय। और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनको प्रताड़ित करके मार डाला जाय।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार जब उन दोनों को शख्त पहरे में रखकर जिस प्रकार से प्रताड़ित किया गया, वह घटना दुनियाभर के इतिहास में अबतक की सबसे वीभत्स घटना मानी जाती है।
औरंगज़ेब की कैद में रहते हुए उन दोनों को जो यातनाएं दी गईं उन यातनाओं को लिखते लिखते उस समय के कई इतिहासकारों के न सिर्फ हाथ काँप रहे थे बल्कि आंसू भी टपक रहे थे, और उस घटना को सुनने तथा सुनाने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते थे।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार उस क्रूर और मुग़ल लुटेरे औरंगज़ेब की कैद में कविकलश और संभाजी राजे के साथ होने वाली यातनायें कुछ इस प्रकार से थीं –
पहले दिन यानी 1 फरवरी, वर्ष 1689 को जब औरंगज़ेब के आदेश के अनुसार कविकलश और संभाजी को पूछा गया की “क्या तुम्हें इस्लाम कबूल है?” तो उन दोनों ने बिना सोच विचार किये उसका उत्तर ना में दे दिया।
और जब औरंगज़ेब के सैनिकों को उन दोनों के उत्तर ना में मिले तो वे तिलमिला उठे और उसके बाद उन्होंने लोहे के चिमटे से कविकलश और संभाजी की जीभ को पकड़कर मुँह से बहार निकाला और चाकू से काट दिया।
औरंगज़ेब के आदेश के अनुसार दूसरे दिन जब कविकलश और संभाजी को इस्लाम कबुल करने के लिए फिर से पूछा गया तो उन्होंने अपनी गर्दन हिला कर उसका वही उत्तर ना में दे दिया।
उत्तर को ना में पाकर औरंगज़ेब के सैनिकों ने दहकती हुई आग में सलाखों को लाल करने के बाद उन दोनों के नेत्रों में डाल दी, उन नेत्रों की जगह दो वीभत्स और डरावने गड्ढे कर दिये गये।
आदेश के अनुसार तीसरे दिन फिर से जब कविकलश और संभाजी को वही प्रश्न पूछा गया कि “क्या तुम्हें इस्लाम कबूल है?” तो उन्होंने उसी अंदाज़ में अपनी गर्दन हिला कर उसका उत्तर ना में दे दिया।
उत्तर ना में पाकर उन सैनिकों ने तीसरे दिन दोनों को फिर से एक नई और वीभत्स यातना दी, और इस यातना में उनके कान काट दिये गए।
आदेश के मुताबिक चौथे दिन फिर से कविकलश और संभाजी के सामने वही प्रश्न रखा गया, कि “क्या तुम्हें इस्लाम कबूल है?” लेकिन फिर से दोनों ने गर्दन हिलाकर उसका उत्तर भी ना में ही दिया।
आदेश के मुताबिक उत्तर ना में पाकर सैनिकों ने चौथे दिन की यातना में उनकी उँगलियाँ काट दीं।
पांचवे दिन कविकलश और संभाजी महाराज के सामने फिर से वही प्रश्न रखा गया। लेकिन दोनों ने गर्दन हिलाकर निडरता के साथ उसका उत्तर भी उसी प्रकार ना में ही दिया। पांचवे दिन भी जब उन सैनिकों को सकारात्मक उत्तर नहीं मिला तो उन लोगों ने उनके घुटने काट दिये और उन्हें भूमि पर गिराकर अधमरा कर के छोड़ दिया।
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हर दिन उन दोनों से एक ही रटा रटाया सवाल पूछा जाता रहा कि “क्या तुम्हें इस्लाम कबूल है?” और उनका जवाब भी उसी अंदाज़ में ना होता था।
इतिहासकारों के अनुसार, सवाल जवाब का यह सिलसिला पांच दिनों तक चलता रहा। लेकिन उन दोनों ने एक बार भी ऐसा महसूस नहीं होने दिया जिसमें किसी को भी लगे कि शायद वे डरे हुए हैं।
औरंज़ेब जितना क्रूर था, कविकलश और संभाजी उतने ही ज़िद के पक्के और दर्द को सहने के लिए मज़बूत थे। तभी तो हर दिन उन्हें कड़ी से कड़ी यातनाएं देते हुए एक ही रटा रटाया सवाल पूछा जाता रहा और वे भी हर दिन अपने सिर को गर्वीले अंदाज़ में उठा कर एक झटके से नकारते हुए ना का इशारा कर देते थे, क्योंकि उनकी जीभ को तो उन मलेच्छों ने पहले ही लोहे के चिमटे से पकड़कर चाकू से काट दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार, छठवें दिन, जब उन दोनों के शरीर पर कोई भी अंग काटने या तोड़ने के लिये बचा ही नहीं तो उन नरपिशाचों ने उनके शरीरों को दराती से छेद दिया और फिर उन पर नमक और मिर्च का पानी छिड़क दिया।
इस सबसे अलग प्रकार की वीभत्स यातना के कारण उनका पूरा शरीर जलने लगा, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने सनातन धर्म और कट्टर हिंदुत्व की डोर को नहीं छोड़ा।
इतिहासकारों के अनुसार, क्योंकि उन दोनों ने हिन्दू धर्म के संस्कारों का अनुसरण किया था इसलिए उन्हें उस दर्द और यातना को सहने की एक चमत्कारी शक्ति अपने आप मिलती जा रही थी। उनके घावों से बूंद बूंद टपकता खून मातृभूमि की माटी में मिलता जा रहा था और धर्म का कर्ज चुकता होता जा रहा था।
तीन सप्ताह तक ऐसे ही प्रताड़ना देने के बाद अंत में जब देखा की उनके शरीर में अब भी प्राण शेष हैं तो मलेच्छों ने उनके शरीर के टुकडे कर दिए। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार जिस दिन उन दोनों ने प्राण त्यागे वह 11 मार्च वर्ष 1689 का दिन था और हिन्दू नववर्ष का सबसे पवित्र दिन था।
कविकलश और छत्रपति सम्भाजी महाराज ने अपना बलिदान महाराष्ट्र में स्थित कोरेगाँव नामक स्थान पर भीमा नदी के किनारे दिया था और यहीं पर उनको ये यातनाएं दी गई थीं।
इतिहासकारों के अनुसार, जब कविकलश और छत्रपति सम्भाजी महाराज के शरीर के उन टुकड़ों को तुलापुर की नदी में फेंका गया तो उस किनारे रहने वाले लोगों ने उनको इकठ्ठा कर के जोड़ने का प्रयास किया और उसके बाद विधिपूर्वक उनका अंतिम संस्कार किया गया।
इतनी क्रूर यातनाओं के बावजूद उन पराक्रमी और हठी हिन्दुओं के हिंदुत्व का गर्व जस का तस ही रहा। क्योंकि उन योद्धाओं की नसों में हिंदुत्व का उबाल जो था।
इतने महान और पराक्रमी हिन्दुओं के इस तरह के बर्ताव की खबरों ने उस समय न सिर्फ़ मराठा, बल्कि पूरे देश के हिन्दुओं के भीतर एक ऐसी चिंगारी उत्पन्न की, जिससे बाद आम हिन्दुओं ने एकजुटता दिखाते हुए मुगलों का मुकाबला शुरू कर दिया और मुगल साम्राज्य का पतन होना शुरू हो गया।
लेकिन, आश्चर्य है कि आज के हिन्दू समाज को उनके बलिदान के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था वह समाज आज उन्हें भुलाये बैठा है और चंद टुकड़ों की खातिर झूठे, मक्कार तथा लुटेरे राजनेताओं को अपना आदर्श बना बैठा है।