अजय सिंह चौहान || आजकल के आम शहरी और सामाजिक जीवन में भागदौड़ भरी दिनचर्या ही एकमात्र जीने का तरीका बन चुका है। यदि कोई भागदौड़ के बिना जीवन जीने का प्रयास करता है तो वह गरीबी की रेखा से नीचे ही रह जाता है। ऐसे में उसका परिवार शत-प्रतिशत लानतभरी जिंदगी जीने को मजबूर तो होता ही है साथ ही साथ उसके बच्चे न तो अच्छी शिक्षा पा सकते हैं और न ही वह अपने बच्चों को अच्छा खान-पान दे सकता है। ऐसे में यदि वह अपने परिवार और बच्चों को कुछ दे सकता है तो वो है शारीरिक बीमारियों के साथ मानसिक बीमारियां।
एक आम परिवार अपने बच्चों की शारीरिक बीमारियों का तो किसी प्रकार से इलाज करवा सकता है। क्योंकि ऐसी बीमारियां प्रत्यक्ष नजर आने लगती हैं जिनका इलाज आसानी से कहीं भी संभव है। लेकिन, कुछ ऐसी मानसिक बीमारियां भी होती हैं जो न तो नजर आती हैं और न हीं उनके कोई शुरूआती लक्षण नजर आते हैं। हालांकि, आजकल मानसिक बीमारियों को लेकर भी जागरूकता फैलाई जा रही हैं, लेकिन वे उस स्तर तक नहीं हैं जो एक आम और साधारण व्यक्ति या परिवार को आसानी से समझ आ सकें।
यहां इस लेख के माध्यम से मैं ऐसी ही कुछ विशेष प्रकार की बीमारियों का जिक्र करने का प्रयास कर रहा हूं जिनसे न सिर्फ मेरा स्वयं का बेटा गुजर रहा है बल्कि अन्य कई परिवारों को भी देखा है जहां ऐसे बच्चे हैं, लेकिन, अफसोस की बात है कि कुछ परिवार ऐसे भी देखें हैं जो अपने ऐसे ही बच्चों की उन बीमारियों को या तो नजरअंदाज कर रहे हैं या फिर समाज से छूपा रहे हैं। हालांकि, मैं यहां ऐसा कुछ नहीं करने वाला हूं। मैं चाहता हूं कि आप मेरे बेटे की इन बीमारियों के साइड इफेक्ट, उसकी परेशानियों और उसकी दिनचर्या के बारे में भी जाने इसलिए मैंने यू-ट्यूब पर उसी के नाम से एक चैनल बनाया है (Kartik Chauhan VLOG), जहां समय मिलने पर मैं उसके कुछ ऐसे वीडियो डालने का प्रयास करता हूं जिनसे अन्य लोगों को भी कुछ जानकारियां मिल सकें, सीख सकें और अपने बच्चों को कुछ नया सीखा सकें या इस प्रकार के आने वाले कुछ खतरों से पहले ही सावधान हो जायें।
फिलहाल Kartik Chauhan VLOG से कोई पैसे तो नहीं कमा पा रहा हूं लेकिन, भविष्य में यदि ईश्वर ने चाहा और ऐसा संभव हुआ तो मैं कोशिश करूंगा कि Kartik Chauhan VLOG के माध्यम से अपना सारा समय You-Tube पर लगा सकूं, ताकि इसके बहाने मुझे हर समय कार्तिकेय के साथ रह कर उसका ध्यान रखने का समय और अवसर मिल सके और उसका एक बार फिर से इलाज भी करवा सकूं। क्योंकि डाॅक्टरों का कहना है कि कार्तिकेय की मानसिक बीमारियां उस स्तर की नहीं है कि वह ठीक नहीं हो सकता। यदि उसको समय दिया जाये तो हो सकता है कि वह एक साधारण और आम व्यक्ति की तरह ही व्यवहार करने लग सकता है।
ऐसी ही कुछ मानसिक बीमारियां जिनसे मेरा बेटा गुजर रहा है उनमें दौरे पड़ना (Seizures), ‘‘आटिज्म’’ (Autism) और ‘‘अटेंशन-डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसआर्डर’’ (Attention-Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD) शामिल है। आप समझ सकते हैं कि आज मुझे इस बात का कितना पछतावा हो रहा होगा कि यदि इन बीमारियों के विषय में ठीक प्रकार से जागरूकता फैलाई गई होती या फिर मुझे स्वयं को भी इसकी जानकारी होती तो मैं समय रहते अपने बेटे का इलाज करवा लेता। लेकिन, समझ नहीं आता कि इसमें मैं दोष किसे दूं। सरकारों को, अपनी गरीबी को, अशिक्षा को या फिर सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को।
attention-deficit hyperactivity disorder (ADHDदरअसल, मेरा बेटा आज 21 वर्ष का होने को है लेकिन, मानसिकता और ज्ञान या शिक्षा के तौर पर जिसे अंग्रेजी में आई.क्यू. (IQ), यानी ज्ञान का माप जैसा ही कुछ कहा जाता है वह इस समय मात्र नौ से दस वर्ष की आयु के बच्चों के बराबर भी नहीं है। यहां तक की देखने में भी वह पूर्ण विकसित नहीं है और इस समय वह शारीरिक तौर पर देखने में करीब-करीब 13 से 14 वर्ष की आयु का लगता है। यही कारण है कि अपनी (Attention-Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD) जैसी मानसिक बीमारियों के कारण वह न तो अपनी उस 19 वर्ष की आयु के बच्चों के साथ और न ही 13 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के साथ ठीक से बात कर सकता है और न ही उनके साथ खेल सकता है। उसमें कुछ नया करने की चाहत तो भरपूर है लेकिन, कर पाने की क्षमता न के बराबर है इसलिए वह शर्मिंदा होकर अक्सर नजरें चुराने लगता है।
इस लेख के माध्यम से यहां मैं उन सभी माता-पिता को यह बताना चाहता हूं कि कृपया वे अपने बच्चों की ऐसी किसी भी मानसिक बीमारियों को छूपाने का प्रयास न करें, और न ही उनको समय रहने इलाज से वंचित करें। यदि आप आर्थिक तौर पर सक्षम हैं तो किसी भी अच्छे और प्रायवेट डाॅक्टर से इसका उपचार करवा सकते हैं लेकिन, यदि आप सक्षम नहीं हैं तो आपको इसके लिए सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। हालांकि, सरकारी अस्पतालों में (Attention-Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD) जैसी बीमारियों का इलाज करवाने का मतलब है कि आप न घर के होते हैं न घाट के। सरकारी अस्पतालों में लंबी-लंबी लाइनें होती हैं, सैकड़ों मरीज होने के कारण न तो हम डाॅक्टर को ठीक से समझा पाते हैं और न हीं डाॅक्टर हमें इतना समय दे पाता कि आप या हम अपनी बात को समझा सकें। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
पहले तो मैंने अपने बेटे के दौरे (seizures) के उपचार के लिए कई सरकारी अस्पतालों में चक्कर काटे, NGO’s, चेरिटेबल संस्थानों में गया, लेकिन, वे लोग इलाज कम और प्रयोग ज्यादा करते हैं। थक-हार कर मैंने दिल्ली के एक बड़े, निजी और नामी अस्पताल में इलाज करवाने के लिए मन बनाया। अस्पताल ने पहली ही विजीट में मोटी रकम रखवा ली और आश्वासन दिया कि उनका डाॅक्टर तीन से चार विजीट में इसका समाधान कर देगा। हम खुश हुये, क्योंकि हम तो यही मान कर बैठे थे कि यह भी एक आम बीमारी है जो आसानी से चली जायेगी। लेकिन, करीब तीन से चार विजीट के दौरान उन डाॅक्टर साहब ने न तो कुछ इलाज करा और न ही कोई दवाई वगैरह दी।
उस नामी अस्पताल के नामी डाॅक्टर साहब हमसे हर बार कुछ सवाल-जवाब करते रहे, और अंत में जब हमने अपनी क्षमता से कहीं अधिक पैसे जमा कर उन्हें रसीद दिखा दी तो उन्होंने भी हमें Seizures] Autism, Attention-Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD) की मानसिक बीमारियों की एक रिपोर्ट बनाकर थमा दी। उस रिपोर्ट को देखकर हैरानी हुई कि आखिर वो इलाज कहां है जिसकी उम्मीद लेकर हम उनके पास गये थे। पूछने पर पता चला कि उन्होंने तो मात्र एक रिपोर्ट तैयार की है जिसके आधार पर आप अन्य कहीं भी जाकर इस बच्चे का इलाज करवा सकते हैं। इसके बाद भी मैं हिम्मत नहीं हारा और दिल्ली के एक अन्य अच्छे और नामी डाॅक्टर से संपर्क किया। उनके क्लीनिक में गया, उन्होंने भी उम्मीद बंधाई। लेकिन, उन डाॅक्टर साहब का इलाज और उनके द्वारा दी जाने वाली दवाईयां इतना महंगा साबित हो रही थी कि तीन से चार माह के बाद ही मुझे तौबा करनी पड़ी।
हालांकि, यहां मैं ये भी बता दूं कि अपने बेटे को लेकर मैं दिल्ली जैसे शहर के ऐसे कई महंगे से महंगे अस्पतालों, क्लीनिकों और डाॅक्टरों के चक्कर काटते रहने के बावजूद प्रारंभिक दौर से ही अपने बेटे की Seizures] Autism, Attention-Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD) जैसी मानसिक बीमारियों का इलाज एक ऐसे डाॅक्टर से करवा रहा था जो हमारे निवास स्थान से अधिक दूरी पर नहीं है। वही इलाज आज भी जारी है और संभवतः आगे भी जारी रहेगा। लेकिन इसके बीच इस बीमारी के बारे में राय जानने के लिए मैंने न जाने कितने ही अन्य डाॅक्टरों से संपर्क किया और न जाने कितने ही अन्य लोगों से सलाह ली होगी, लेकिन, कहीं भी संतुष्टी नहीं हुई, जबकि इस दौरान मैंने अपने बच्चे के इलाज के लिए प्रारंभिक दौर से लेकर अब तक करीब-करीब 12 से 13 लाख रुपये तक खर्च कर दिये होंगे मगर आज भी वह जस का तस ही है।
हालांकि, यह सच है कि प्रारंभिक दौर से ही मैंने दौरे (seizures) के उपचार के लिए अपने नजदीक के जिन डाॅक्टर अनिल जैन जी (वर्तमान में डाॅक्टर अनिल जैन जी का निधन हो चुका है) के पास अपने बेटे का इलाज शुरू किया था उन्होंने न तो अधिक निराश किया और न ही अधिक लूटा। लेकिन, फिर भी बता दूं कि Seizures] Autism, Attention-Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD) का यह इलाज एक आम बीमारी से कहीं अधिक महंगा ही है, फिर चाहे वह किसी भी शहर में हो या किसी कस्बे में ही क्यों हो रहा हो। लेकिन डाॅक्टर अनिल जैन ने इतना अवश्य बताया था कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों का कोई स्थायी उपचार नहीं है। एडीएचडी को लेकर भी उन्होंने यही कहा था कि संभव है कि किशोरावस्था में पहुंचते-पहुंचते इसके लक्षण कुछ कम या लगभग समाप्त हो जायें। ‘‘आटिज्म’’ (autism) को लेकर हालांकि उन्होंने कुछ खास तो नहीं बताया लेकिन, आज ऐसा लगता है कि मानो यह कोई बीमारी नहीं एक आम बात हो चुकी है।
मेरा प्रयास रहेगा कि मैं अपने बेटे की इन्हीं कुछ मानसिन बीमारियों के विषय में हो रही ऐसी अन्य परेशानियों को लेकर इसी dharmwani ब्लाॅग पर आगे भी कुछ लिखने का प्रयास करता रहूं, जिससे कि अन्य माता-पिता भी इससे कुछ सीख सकें या लाभ ले सकें।