मुझे प्रसन्नता है कि भारत की पहचान और भारत का नाम जिस महाराजा भरत से हमारे पुराणों में दर्ज है, उनके प्रति जागरूकता लाने का हम मुट्ठी भर सनातनियों ने मिलकर जो लगातार प्रयास किया है, वो धीरे-धीरे ही सही लेकिन रंग ला रहा है। हाल ही में भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी को एक हिंदू संगठन के कार्यक्रम में इसका सामना करना पड़ा!
‘भारत माता’ हमारे किसी वेद-पुराण में नहीं हैं। अथर्ववेद का पृथ्वी सुक्त का तात्पर्य समस्त भूमि से है, न कि भारत राष्ट्र से। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में है ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’। अर्थात धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं। संघी भूमि देवी की जगह ‘भारत माता’ के रूप में इसी की मनमानी व्याख्या करते हैं। जबकि पुराणों में स्पष्ट लिखा है कि महाराजा भरत के नाम से जंबू द्वीप के इस हिस्से का नाम भारत पड़ा।
पहली बार 1873 के दौरान किरन चंद्र बनर्जी के लिखे नाटक ‘भारत माता’ से ‘भारत माता’ अस्तित्व में आई और यहीं से ‘भारत माता की जय’ के नारे की शुरुआत हुई। इसके तीन साल बाद ही 7 नवंबर 1876 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने संस्कृत-बांग्ला में ‘वंदे मातरम् ‘ गीत की रचना की। बाद में भ्रमवश ‘वंदे मातरम्’ को ही ‘भारत माता’ का उद्गम स्रोत मानते हुए दोनों का घालमेल कर दिया गया।
इसका मूर्त रूप 1936 में वाराणसी में भारत माता के पहले मंदिर की स्थापना के रूप में सामने आया। इसे शिव प्रसाद गुप्ता ने बनवाया था। इस मंदिर का उद्घाटन महात्मा गांधी ने किया।
शस्त्रविहीन भारत माता की अवधारणा बिल्कुल आधुनिक है। यह हमारी दुर्गा माता के हाथों से शस्त्र हटाकर हमें नपुंसकता बोध से भरने के लिए पहले कांग्रेसियों और बाद में संघियों की चली चाल है।
अब्राहमिकों का पहला प्रहार स्त्री जाति पर ही होता है। हमें आक्रमण झेलने वाला बनाए रखने के लिए शस्त्रविहीन भारत माता की अवधारणा संघियों के अनुरूप है। जबकि महाराजा भरत बहुत वीर और संपूर्ण भारतवर्ष पर शासन करने वाले राजा थे। उनके पुरुषत्व से दैदिप्त भारतवर्ष को ‘भारत माता’ बनाकर हिंदुओं को क्लीव बनाने के राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा है यह ‘भारत माता’ नामक कल्ट!
अतः हिंदुओं अपने पुरुषत्व को पहचानो और ‘जय भारत’ का उद्घोष करो। मुझे प्रसन्नता है कि अब इन संघियों के बहकावे में आने से मुट्ठी भर ही सही, लेकिन सनातनी हिंदू बच रहे हैं। जय भारत, जयतु भारत!
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