आज के समय में सूचना की दुनिया तेजी से बदल रही है। एक समय था जब पारंपरिक मीडिया ही खबरों का सबसे विश्वसनीय स्रोत माना जाता था। बड़े टीवी चैनल देश की नब्ज पर नजर रखते थे और जनता उन्हीं की रिपोर्टिंग के आधार पर अपने विचार बनाती थी लेकिन आज यह स्थिति बदल गई है। अब आम नागरिक के मन में सवाल उठने लगे हैं कि क्या वह सही जानकारी प्राप्त कर रहा है या केवल किसी सुनियोजित कथानक का हिस्सा बन रहा है। कई लोगों को यह लगने लगा है कि कुछ समाचार संस्थान रिपोर्टिंग से ज्यादा प्रस्तुति, तथ्यों से ज्यादा भावनाओं और निष्पक्षता से ज्यादा पक्षपात पर ध्यान देते हैं।
आम जनता अकसर यह महसूस करती है कि कुछ चैनलों की रिपोर्टिंग सत्ता के पक्ष में झुकी हुई नजर आती है। कठिन सवाल पूछने की जगह नरम रवैया अपनाया जाता है और बहसें तथा ग्राफिक्स अकसर असामान्य रूप से आक्रामक या नाटकीय हो जाते हैं। कई बार अपुष्ट खबरें, सनसनीखेज दावे या जल्दबाजी में प्रसारित की गई सूचनाएँ गलत साबित हुई हैं। उदाहरण के तौर पर किसी प्रसिद्ध व्यक्तित्व की मृत्यु की अफवाह, अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के संदर्भ में असंबंधित वीडियो का उपयोग या आर्थिक फैसलों पर आधारहीन दावे इनसे यह धारणा मजबूत होती है कि टीवी मीडिया आज चकाचैंध और मनोरंजन को प्राथमिकता देने लगा है। स्टूडियो बहसों का स्वरूप भी बदल गया है। अब जानकारी की जगह टकराव, समाधान की जगह आरोप-प्रत्यारोप और तर्क की जगह ऊँची आवाजों का बोलबाला है। विशेषज्ञों की जगह राजनीतिक प्रवक्ताओं की भागीदारी अधिक बढ़ गई है, जिससे बहसों की गुणवत्ता प्रभावित होती है और दर्शक वास्तविक मुद्दों से दूर हो जाते हैं।
इसी दौरान डिजिटल माध्यमों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित की है। विशेषकर ल्वनज्नइम और अन्य स्वतंत्र प्लेटफाॅर्म ने पिछले कुछ वर्षों में तेजी से लोकप्रियता हासिल की है। डिजिटल पत्रकारिता दर्शकों को नए विकल्प प्रदान करती है ग्राउंड रिपोर्टिंग, विस्तृत विश्लेषण और डाॅक्यूमेंट्री शैली की सामग्री। कई स्वतंत्र कंटेंट निर्माता ऐसे क्षेत्रों और समुदायों की कहानियाँ सामने लाते हैं जिन्हें मुख्यधारा मीडिया अकसर अनदेखा करता है। ग्रामीण समस्याएँ, उपेक्षित वर्गों की आवाजें, स्थानीय जन प्रतिनिधियों के कामकाज और सामाजिक असमानता से जुड़े मुद्दे अब डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर आसानी से दिखाई देने लगे हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग ने दर्शकों का विश्वास इसलिए जीता क्योंकि इसमें सरलता, ईमानदारी और प्रत्यक्ष अनुभव की झलक होती है। लोगों को लगता है कि कैमरा वास्तव में उन स्थानों तक पहुँच रहा है, जहाँ पहले आवाजें शायद ही कभी बड़े चैनलों तक पहुँच पाती थीं।
कई डिजिटल पत्रकारों ने उन कहानियों को राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाया जिन्हें पहले स्थानीय समाचार पत्रों में भी जगह नहीं मिलती थी। इससे यह धारणा बनी कि डिजिटल माध्यम पारंपरिक चैनलों की तुलना में अधिक स्वतंत्र और वास्तविक हैं। हालाँकि, डिजिटल माध्यमों पर भी संदेह की संभावना मौजूद है। कुछ कंटेंट निर्माता किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा या दृष्टिकोण से प्रभावित होकर सामग्री प्रस्तुत करते हैं। किसी घटना का चयन, किसी मुद्दे पर टिप्पणी या किसी विचार की ओर झुकाव कभी-कभी स्पष्ट दिखाई देता है।
चूंकि, डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर कोई स्पष्ट संपादकीय नियंत्रण नहीं होता, इसलिए जानकारी की सत्यता और निष्पक्षता पर हमेशा सवाल उठ सकते हैं। इस परिस्थिति ने दर्शकों के सामने नई चुनौती पैदा कर दी है। एक तरफ पारंपरिक मीडिया है, जिसकी विश्वसनीयता कमजोर होती दिखती है और दूसरी तरफ डिजिटल प्लेटफाॅर्म हैं, जिन पर स्वतंत्रता है लेकिन संभावित पक्षपात भी मौजूद है। जनता यह तय नहीं कर पा रही कि किसे भरोसेमंद मानें, किस दिशा में झुकें और किस आधार पर सत्य को पहचानें। इस उलझन ने नागरिक चेतना को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहाँ विश्वसनीयता सबसे दुर्लभ और मूल्यवान तत्व बन चुकी है फिर भी यह बदलाव केवल चुनौती नहीं, बल्कि अवसर भी प्रस्तुत करता है। आज सूचना प्राप्त करने का अर्थ केवल एक माध्यम पर निर्भर होना नहीं रह गया। यह वह समय है जब जागरूक नागरिक एक ही घटना को कई स्रोतों से देखकर संतुलित दृष्टिकोण प्राप्त कर सकता है। पारंपरिक मीडिया, डिजिटल पत्रकारिता और स्वतंत्र रिपोर्टिंग तीनों के अपने गुण और सीमाएँ हैं।
सवाल यह नहीं है कि किसे पूरी तरह अस्वीकार कर दिया जाए, बल्कि यह है कि किसका उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाए। इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है मीडिया साक्षरता की। नागरिकों को सीखना होगा कि कोई भी समाचार चाहे टीवी से आए या डिजिटल स्रोत से अपने आप में अंतिम सत्य नहीं है। उसे संदर्भ, प्रमाण और विश्वसनीय स्रोतों की कसौटी पर परखा जाना चाहिए। यही विवेक नागरिक को सक्षम बनाता है और लोकतंत्र की वास्तविक ताकत बनाए रखता है। अंततः यह समय मीडिया के बदलते संतुलन का समय है। पारंपरिक मीडिया अपनी खोई साख को पुनः अर्जित करने का प्रयास कर रहा है, जबकि डिजिटल माध्यम लोकप्रियता बनाए रखने के लिए विश्वसनीयता की नई कसौटी पर खरा उतर रहा है। इन दोनों के बीच खड़ा नागरिक ही तय करता है कि कौन सा माध्यम उसके विश्वास के योग्य है।
सूचना के इस विशाल संसार में सत्य का चयन किसी एक दिशा में नहीं बल्कि संतुलित दृष्टिकोण में छिपा है। यही खोज आज के युग में सबसे महत्वपूर्ण है।
सूचना के इस भीड़-भाड़ वाले समय में सच केवल वहीं मिलता है जहाँ सुनने, समझने और परखने का धैर्य हो। मेरा मानना है कि न पारंपरिक मीडिया पूर्णतः गलत है और न डिजिटल माध्यम पूर्णतः निर्दोष। सत्य हमेशा इन दोनों के बीच कहीं संतुलित रूप में मौजूद होता है। नागरिक का दायित्व यही है कि वह किसी एक धारा में बहने के बजाय विवेकपूर्ण दृष्टि विकसित करे, ताकि लोकतंत्र की असली ताकत यानी जागरूकता, द्वारा ही विश्वसनीयता का मार्ग तय हो सके।
– दीपांशु सिंह