काशी में मां श्रंगार गौरी के दर्शन पूजन के अधिकारों को पुन: प्राप्त करने के लिए हिंदू समाज दशकों से प्रतीक्षा कर रहा है। इस संबंध में काशी के न्यायालय में वाद पर माननीय न्यायाधीश ने उस परिसर की वीडियोग्राफी और सर्वे का आदेश दिया। एडवोकेट कमिश्नर के माध्यम से यह कार्य होना है। किंतु, न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिकारी को तथाकथित मस्जिद परिसर में जाने से रोक दिया गया।
उसके पीछे उस ज्ञानवापी इंतजामियां कमेटी के सचिव ने जो चार तर्क दिए वे बेहद गंभीर हैं। उन्होंने कहा कि;
- हम किसी गैर मुस्लिम को मस्जिद के अंदर नहीं घुसने देंगे।
- क्योंकि कोर्ट ने हमारी बात नहीं सुनी इसलिए,हम कोर्ट की बात नहीं सुनेंगे।
- मस्जिद के अंदर की वीडियोग्राफी या फोटो खींचने से हमारी सुरक्षा को खतरा है। वह वीडियोग्राफी मार्केट में आ जाएगी।
- चौथी और बेहद आपत्तिजनक तर्क था कि ऐसे तो यदि कोर्ट कहे कि मेरी गर्दन काट के ले आओ तो क्या कोर्ट द्वारा नियुक्त अधिकारी को मैं अपनी गर्दन काटकर दे दूंगा!
इस तरह की बातों को कोई भी सभ्य समाज का व्यक्ति, जो कानून में विश्वास रखता है, कुतर्क या न्याय की राह में रोड़ा ही बताएगा। एक मस्जिद की इंतजामियां कमेटी के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य न्यायालय के लिए तो कोई महत्त्व नहीं रखता किंतु, विदेशी आक्रांताओं के समर्थकों की चाल, चरित्र व चेहरे को अवश्य उजागर करता है।
प्रश्न उठता है कि –
क्या भारत में मस्जिदों के अंदर न्यायालय या देश के कानून का पालन करने वाली संस्थाओं को भी जाने की अनुमति नहीं है?
क्या अब न्यायालय का भी रिलीजन देखा जाएगा?
क्या न्यायालय को सरेआम यह धमकी दिया जाना कि आपने हमारी बात नहीं सुनी इसलिए हम आपकी बात नहीं सुनेंगे, उचित है? और;
न्यायालय के अधिकारी को गला काटने वाले से तुलना करना क्या इस्लामिक कट्टरपंथियों, मुस्लिम युवाओं और देश विरोधियों को उकसाया जाना न्यायोचित है?
प्रश्न एक और भी है कि मस्जिद के अंदर और बाहर जमातीयों की भीड़ जमाकर न्यायालय की कार्यवाही में बाधा डालने का पुरजोर प्रयास क्या न्याय की अवहेलना या अवमानना नहीं?
मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। देश की राजनीति में कुछ लोग जो मुस्लिम युवाओं को उकसाने का ही काम सतत करते हैं, जो सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के बारे में सोचते हैं।जिहादियों को ही प्रोत्साहन देते हैं लेकिन बात संविधान कानून और न्याय व्यवस्था की करते हैं। ऐसे लोग भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए और बहती गंगा में हाथ धोने के लिए कूद पड़े। हैदराबाद के वकील कहते हैं कि 1991 के कानून को सरकार मान नहीं रही। प्लेसेज आफ वरशिप एक्ट 1991 के बारे में न्यायालय ने विचार किया और इस संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय तक में सुनवाई हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद भी उसे ढाल बनाकर ढोल पीटाना क्या शोभा देता है। सत्य के अन्वेषण पर प्रहार किया जा रहा है। बार-बार माननीय न्यायालय द्वारा नियुक्त कोर्ट कमिश्नर को, जिसको सिर्फ सर्वे और वीडियोग्राफी कर गोपनीय रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है, को ना सिर्फ रोका जा रहा है बल्कि उसके ऊपर पक्षपाती होने के झूठे आरोप भी मढ़े जा रहे हैं।
परिसर के सर्वे से बचने के पीछे दो ही तर्क हो सकते हैं। एक तो उस कथित मस्जिद के अंदर कुछ ऐसा अनिष्ट कारक या गैरकानूनी जमावड़ा है, जैसा कि भारत की अनेक मस्जिद, मदरसों और मुस्लिम बहुल बस्तियों में अनेक बार देखने को आया है। यथा गोला-बारूद हथियार बम आतंकी इत्यादि, जिनको छुपाया जाना उनके लिए बहुत जरूरी है। अन्यथा दूसरा कारण यह हो सकता है कि इनको विश्वास है कि यदि सर्वे हुआ तुम्हारी सारी पोल पट्टी खुल जाएगी कि इस परिसर का मस्जिद से कोई लेना देना नहीं है। देश समझ रहा है कि ये लोग सत्य पर पर्दा डाल असत्य की ढाल ओड़कर देश में सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने का एक कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। जनता यह जानना चाहती है कि आखिरकार मस्जिद में ऐसा क्या सीक्रेट होता है जिसको छुपाया जा रहा है और क्या किसी मस्जिद में आज तक कोई गैर मुस्लिम घुसा ही नहीं? क्या भारत की न्याय व्यवस्था पर आपको कोई विश्वास नहीं? क्या न्यायाधीश आपका गला काटने के लिए भेज रहे हैं?
देखिए माता श्रंगार गौरी के मंदिर में पूजा अर्चना और दर्शन के लिए एक दशक पहले तक सब कुछ सामान्य था। भक्त दर्शन-पूजन के लिए जाते ही थे। वह मंदिर मस्जिद के दीवाल के बाहरी हिस्से में बना हुआ है तो भी हिंदुओं को पूजा अर्चना से वंचित क्यों किया जा रहा है? क्या देश के इस बहुसंख्यक समाज को अपने आराध्य देव की पूजा का भी अधिकार यह तथाकथित अल्पसंख्यक समुदाय नहीं देगा? क्या दुनिया को नहीं पता कि मुस्लिम आक्रांताओं ने बड़े पैमाने पर हिंदू धर्म स्थलों को ध्वस्त कर उसके मलबे से अनेक प्रकार के इस्लामिक ढांचे तैयार किए जो कि वास्तव में इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार भी नहीं थे? इस कथित मस्जिद के नाम से ही संपूर्ण विश्व को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि आखिर इसका नाम ज्ञानवापी क्यों है? इसके विचित्र रूप और आसपास बनी मूर्तियों से स्वत: सिद्ध हो रहा है कि वहां पर हिंदू आस्था के केंद्रों को तोड़ कर के ही वह ढांचा बनाया गया था? जो लोग शांति और भाईचारे की बात करते हैं, गंगा जमुना संस्कृति की बात करते हैं, मिल बैठकर बात करने की बात करते हैं वो उन्हें क्यों नहीं समझाते कि आखिरकार हिंदू मान्यताओं के विश्व प्रसिद्ध आराध्य देव भगवान शंकर की इस पवित्र स्थली को, इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा तोड़े जाने के पाप का परिमार्जन कर, हिंदू समाज को क्यों ना दे दिया जाए? यदि न्यायालय का ही रास्ता अपनाना है तो न्याय के मार्ग में कम से कम रोड़ा ना बनें। जिस सत्य की खोज के लिए न्यायालय ने एक पहेली सीढ़ी चढ़ी है, उस सीडी को ही काटने का दुष्प्रयास ना करें। देश अब जाग रहा है। इसको अब और भ्रमित नहीं किया जा सकता। इसलिए सभी भारतीय सच्चाई के साथ सहृदयता पूर्वक सौहार्द के साथ तभी रह पाएंगे जब हम एक दूसरे की मान्यताओं परंपराओं और विश्वास की बहाली करें। विदेशी आक्रांताओं के साथ स्वयं को या अपने परिजनों व समाज को जोड़ने के पाप से दूर रहें।
– विनोद बंसल, प्रवक्ता – विहिप