अजय सिंह चौहान || सन 1947 में दो मुल्क क्या बंटे कुछ सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहरों के गौरवशाली इतिहास की तबाही भी निश्चित कर गए। इंसान और इंसानियत तो विस्थापित हो गई लेकिन धरोहरों को नहीं किया जा सका। विभाजन के बाद स्थानीय हिंदू आबादी भारत के लिए रवाना हो गई और कल्लर कहार क्षेत्र की पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित कटासराज के मंदिर भक्तों के मोहताज हो गए।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के प्रथम महानिदेशक, कनिंघम द्वारा सन 1872-73 में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, कटासराज पंजाब में हिंदु धर्म के लिए सबसे बड़ा और पवित्र धर्मस्थल था। विभाजन से पूर्व के पंजाब क्षेत्र के पवित्र ज्वालामुखी मंदिर के बाद हिन्दुओं का दूसरा सबसे बड़ा मेला और जमावड़ा इसी कटासराज तीर्थस्थल में लगता था।
लेकिन इसके अतित और वर्तमान के बारे में सोच कर हैरानी होती है कि जिस कटास राज मंदिर को हमारे धर्मगं्रथों में स्थान दिया गया है वह क्या यही समृद्ध मंदिरों का परिसर रहा होगा। क्या यही वो स्थान है जहं कभी प्रतिदिन हजारों भक्त प्रार्थना और आराधनाएं किया करते थे। क्या यही वो पवित्र धर्मस्थल है जहां का आसमान हर-हर महादेव के जयकारों से गुंजा करता होगा। क्या यह वही मंदिर है जिसके अति समृद्धशाली और पवित्र मंदिरों में से एक होने का गुणगान किसी समय में अल बरूनी ने अपनी भारत यात्रा के दौरान किया था। आज यहां का आलम यह है कि मात्र इक्का-दूक्का लोग ही यहां आते हैं।
अलबेरुनी द्वारा भारत के इतिहास को लेकर अधिकतर पुस्तकें इसी कटास राज मंदिर के प्रांगण में लिखी गई थी। अपने समय का एक प्रसिद्ध दार्शनिक, विद्धान और इतिहासकार अलबेरुनी जो मूलरूप से फारसी था, 11वीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में अपनी भारत यात्रा के दौरान कई वर्षों तक इसी कटास राज मंदिर के समीप की संस्कृत विश्वविद्यालय में रहा। यहीं रहकर उसने संस्कृत को एक विषय के रूप में पढ़ा और हिन्दू दर्शन तथा दूसरे शास्त्रों का भी गहराई से अध्ययन किया। यहीं रह कर अलबेरुनी ने किताब-उल-हिन्द के नाम से सरल और स्पष्ट भाषा में एक महत्वपूर्ण पुस्तक की भी रचना की थी।
अलबेरुनी की इस किताब में मुसलमानों के आक्रमण के पहले के भारतीय इतिहास और संस्कृति का विस्तृत और प्रामाणिक तथा अमूल्य विवरण मिलता है। अलबेरुनी के अनुसार किसी समय में यह मंदिर और इसका क्षेत्र अति समृद्ध हुआ करता था। अलबेरुनी के द्वारा हिन्दुओं के धर्म, इतिहास, विचार, व्यवहार, परम्परा, वैज्ञानिक ज्ञान, खगोल विज्ञान, मूर्तिकला और कानून का इस पुस्तक में सरल और विस्तृत वर्णन किया गया है।
आज भी इस पुस्तक को दक्षिण एशिया के इतिहास का प्रमुख स्रोत माना जाता है। वर्तमान में उसकी कई पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उसमें से एक अंग्रेजी भाषा में अनुवादित दि क्रोनोलाॅजी आॅफ एसेण्ट नेशन्स यानी पुरानी कौमों का इतिहास के नाम की पुस्तक अलबेरुनी की विद्वत्ता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त कही जा सकती है। इससे पहले 7वीं शताब्दी में भी चीन के ही जूआनजांग ने इस मंदिर को हिंदू धर्म के लिए सबसे पवित्र मंदिरों में से एक बताया था।
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लेकिन, आज के दौर में यह मंदिर जिन हालातों, परिस्थितियों और उपेक्षा के दौर से गुजर रहा है, उसे देखकर या सुनकर हैरानी होती है। आज कटासराज शिव मंदिर में ज्योतिर्लिंग के नाम पर अस्थाई शिवलिंग रखा गया है। प्राचीनतम ज्योतिर्लिंग का कुछ पता नहीं है। पूजा-पाठ के नाम पर विशेष आग्रह के बाद ही कोई हिंदू वहां पहुंचकर पूजा कर पाते हैं। आम पर्यटकों के लिए वहां गर्भगृह में ताला लगा रहता है। जबकि किसी विशेष पर्यटक के लिए ही इसका ताला खोला जाता है।
माना जाता है कि सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने भी कटास राज में तपस्या की थी। इसीलिए यह स्थान सिख धर्म के लिए भी पवित्र और लोकप्रिय स्थान है। महाराजा रणजीत सिंह ने भी नियमित रूप से यहां तीर्थ यात्रा की थी। भारत-पाक के विभाजन से पहले हिंदुओं और सिख धर्म के लिए यह एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल हुआ करता था, और शिवरात्रि के अवसर पर यहां विशेष मेले भी लगते थे।
विभाजन के बाद श्रद्धालुओं की संख्या में भारी कमी होने के कारण इन मंदिरों की हालत बिगड़ती गई और इस पवित्र स्थान को भारी उपेक्षा का सामना करना पड़ा। पाकिस्तानी हिंदू भी इस स्थान पर कभी-कभार ही देखे जा रहे थे, और वे भी इस विशाल परिसर को बनाए रखने में वे असमर्थ थे। पवित्र अमृत कुंड भी प्रदूषित होता गया। हद तो तब हो गई जब सन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारतीय हिंदू तीर्थयात्रियों को इस स्थान पर जाने से मना कर दिया गया।
लेकिन, भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने सन 2005 में अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान इन मंदिरों का दौरा किया और यहां के मंदिरों की जर्जर हालत को देखते हुए पाकिस्तान सरकार से अपनी नाराजगी व्यक्त की। जिसके तुरंत बाद ही पाकिस्तान की प्रांतीय सरकार ने इस मंदिर परिसर की मरम्मत का फैसला किया और श्री लालकृष्ण आडवाणी के द्वारा ही मंदिर परिसर के रख-रखाव के काम का उदघाटन भी करवा दिया गया।
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सन 2006 में इस परियोजना पर अमल करना शुरू किया गया। पवित्र कुंड को साफ किया गया। कुछ मंदिरों में आवश्यकता के अनुसार मरम्मत का कार्य किया गया। मंदिर परिसर के आसपास सूचनात्मक बोर्ड भी लगाए गए। और इस तरह मंदिर परिसर का पुणर्निर्माण साल 2014 में पूरा हुआ था।
लेकिन, कुछ समय पूर्व जब दुनियाभर के मीडिया में इस बात की खबरें आने लगी कि कटासराज के मंदिरों की हालत बद से बदतर हो चुकी है, उनमें से मूर्तियां भी गायब हैं और उस इलाके में सीमेंट की फैक्ट्रियों की वजह से पवित्र तालाब सूख रहा है तो ऐसे में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि अगर मंदिरों में मूर्तियां ही नहीं होंगी, तो पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यक हिंदुओं के बारे में क्या धारणा बनाएंगे? सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कटासराज मंदिर की खराब हालत के बारे में संज्ञान लेते हुए सुनवाई की। और कहा कि यह मंदिर सिर्फ हिंदू समुदाय के लिए ही सांस्कृतिक महत्व का नहीं है बल्कि हमारी राष्ट्रीय धरोहर का भी हिस्सा है।
वैसे इन मंदिरों के रखरखाव और देखरेख की जिम्मेदारी एक स्थानिय वक्फ बोर्ड और पंजाब की प्रांतीय सरकार का पुरातत्व विभाग देखता है। लेकिन हिस्टोरिक टेम्पल्स इन पाकिस्तानः अ काॅल टू कंशियन्स नाम की किताब लिखने वाली पाकिस्तान की रीमा अब्बासी के मुताबिक हिन्दू मंदिरों पर अब वहां के भूमााफियाओं ने कब्जा कर लिया है और जो शेष बचे हैं वे भी अब उन लोगों के निशाने पर हैं।
यहां के मंदिरों की संरचनों को देखने से लगता है कि लगभग 6ठी और 7वीं शताब्दी के बने हुए हैं। कनिंघम के अनुसार, पहाड़ी की सबसे ऊंचाई पर स्थित 7 मंदिरों का परिसर हिंदूओं के लिए सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण है। ये सभी मंदिर कश्मीरी वास्तुशैली में बने हुए हैं। कहा जाता है कि, गांधार में बौद्ध साम्राज्य के पतन के बाद, 7वीं शताब्दी के आसपास हिंदुत्व शासनकाल में ही यहां के हिंदू राजाओं ने इन मंदिरों का निर्माण कराया था। उन राजाओं ने इन मंदिरों सहित यहां के अन्य कई मंदिरों का भी पुनर्निमाण करवाया गया था।
आज इन मंदिरों का दूर्भाग्य यह है कि इन सभी मंदिरों की मूर्तियों वाले पवित्र स्थान खाली पड़े हैं। वे मूर्तियां आज कहां हैं यह किसी को नहीं मालूम। इनका खंडहर बन चुका वर्तमान इनके गौरवशाली इतिहास की गवाही देता लगता है। कई आक्रमणों और विध्वंसों की मार झेल चुके इन मंदिरों के अवशेष ही आज अंतिम मूक गवाह बन कर रह गए हैं।