अरब सागर के तट पर और भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में बसी द्वारका नगरी भगवान विष्णु के कृष्ण रूपी अवतार की कर्मभूमि होने के साथ ही माता लक्ष्मी के रुक्मिणी अवतार का घर भी है। इसलिए यहां न सिर्फ ‘द्वारकाधीश मंदिर’ है बल्कि माता लक्ष्मी के रुक्मिणी अवतार का ‘रुक्मिणी मंदिर’ भी है जिसकी मान्यता द्वारकाधीश से कम नहीं है।
देवी रुक्मिणी का यह मंदिर द्वारका नगरी की सीमा से बाहर और भागीरथी नदी के तट पर स्थित है। रुक्मिणी देवी मंदिर में कोई विशेष फल या किसी भी प्रकार के आहार का प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता बल्कि जल का अर्पण किया जाता है और यही यहां का प्रसाद भी होता है, साथ ही यहां जल का ही दान भी किया जाता है।
रुक्मिणी देवी के मंदिर के शिखर के ध्वज की लंबाई करीब 13 मिटर होती है जो तेज हवा में लहराने पर बहुत ही शानदार दृश्य प्रस्तुत करता है। यदि आपकी भी कोई मन्नत पूरी हो जाती है तो आप भी यहां यह ध्वजा चढ़ा सकते हैं।
यह मंदिर द्वारका नगरी से बाहर और द्वारकाधीश मंदिर से दूर क्यों बना हुआ है इस विषय में भी एक पौराणिक कथा प्रचलित है। जिसके अनुसार, ऋषी दुर्वासा का आश्रम द्वारका नगरी के पास ही के वन में हुआ करता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण और रानी रुक्मिणी ने ऋषी दुर्वासा को द्वारका नगरी में आमंत्रित करने के लिए रथ भेज दिया। इस पर ऋषी दुर्वासा क्रोधिक हो गये और उन्होंने कहा कि मैं तभी द्वारका नगरी में जाऊंगा जब श्रीकृष्ण और रानी रुक्मिणी स्वयं उस रथ को खींच कर द्वारका नगरी के द्वार तक मुझे ले जायेंगे।
ऋषी दुर्वासा की इच्छा को सुन कर श्रीकृष्ण और रानी रुक्मिणी सहमत हो गये, और ऋषी दुर्वासा को रथ पर बैठा कर दोनों ने रथ को खिंचना प्रारंभ कर दिया। रथ को खिंचते-खिंचते श्रीकृष्ण और रानी रुक्मिणी जब द्वारका नगरी तक पहुंचने ही वाले थे कि रानी रुक्मिणी को बहुत तेज प्यास लगी और उनका कंठ सूखने लगा। उन्होंने श्रीकृष्ण से आग्रह किया कि वे शीर्घ ही जल का प्रबंध करें। स्थिति को भांप कर श्रीकृष्ण ने शीघ्र अपने दाहिने चरण का अंगूठा धरती पर दबाया और वहीं जलधारा प्रकट हो गयी।
बहुत तेज प्यास लगने और कंठ सूखने के कारण देवी रुक्मिणी से यहां एक बड़ी भूल हो गयी और वे दुर्वासा मुनि से पहले जल ग्रहण करने का आग्रह करना भूल गयीं और स्वयं ही जल ग्रहण कर लिया। अपना अपमान होते देखकर दुर्वासा मुनि क्रोधित हो गए। उन्होंने वहीं श्रीकृष्ण व देवी रुक्मिणी को 12 वर्षों के विरह का यानी बिछड़ने का श्राप दे डाला।
कहा जाता है कि उसके बाद श्रीकृष्ण तो द्वारका नगरी में लौट आये, लेकिन देवी रुक्मिणी ने नगर के बाहर, उसी स्थान पर एक कुटिया बनाकर 12 वर्ष बिताये। यही कारण है कि देवी रुक्मिणी का यह मंदिर द्वारकाधीश मंदिर से दूर और नगर के बाहर एक सूनसान स्थान पर बना हुआ है।
– धर्मवाण