किसी भी राष्ट्र एवं समाज की समृद्धि एवं विकास के लिए धन बहुत आवश्यक है और इस धन की व्यवस्था देशवासियों से ही कर के रूप में की जाती है। मोटे तौर पर देखा जाये तो किसी भी रूप में सरकार आम जनता से जो पैसा लेती है, उसे ही कर कहा जाता है। कर चाहे आय पर लिया जाये या किसी अन्य रूप में किन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विकास का खाका कर से प्राप्त धन के अनुरूप ही खींचा जाता है। आम जनता से कर लेना आवश्यक है किन्तु इसकी मात्रा न तो बहुत अधिक होनी चाहिए, न बहुत कम।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि कर की मात्रा एकदम उचित होनी चाहिए। इसमें एक बात का ध्यान रखने की अत्यंत आवश्यकता है कि इसे देने से कोई न तो एकदम बच जाये और किसी पर अत्यधिक भार भी न आ जाये। भारत में यदि कर व्यवस्था की बात की जाये तो इसका उल्लेख मौर्यकाल से ही मिलता है। प्राचीन काल से ही पूरे विश्व में इसी प्रकार की व्यवस्था रही है। भारत में यदि करों के प्रकार और व्यवस्थाओं की बात करने लगेंगे तो यह लेख लिखना ही मुश्किल हो जायेगा किन्तु मूल बात यह है कि बिना करों के राष्ट्र एवं समाज का उचित तरीके से चलना बेहद मुश्किल है। बिना करों के सरकार चल ही नहीं सकती है।
1947 में अंग्रेजी दासता से मुक्ति के बाद जब भारत आजाद हुआ तो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये लगभग 4 हजार कानून किसी न किसी रूप में भारत में बने रहे। इन कानूनों में न तो कोई बदलाव किया गया और न ही उनमें बदलाव करने के संबंध में कोई विचार किया गया। पुराने कानूनों के प्रारूप को थोड़ा-बहुत बदलकर भारत में उन्हीं कानूनों को लागू कर दिया गया। यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अंग्रेजों ने भारत में जो भी कानून बनाये थे उसके पीछे उनकी मंशा यह थी कि भारत में उनका साम्राज्य अनवरत कायम रहे और कानूनों की आड़ में वे भारत की संपदा को लूट कर किसी न किसी रूप में अपने देश भेजते रहें। समय-समय पर अपनी आवश्यकतानुसार जनता-जनार्दन को अपने मुट्ठी में रखने के लिए भिन्न-भिन्न कानून इंग्लैंड की महारानी के अध्यादेश के माध्यम से थोपते गये।
यहां पर गौरतलब यह है कि आजादी के बाद भी इन कानूनों एवं अध्यादेशों पर न तो चिंतन किया गया, न ही बदलाव किया गया और न ही कभी इन कानूनों को चर्चा के दायरे में लाया गया किन्तु इस देश के बुद्धिजीवियों ने समय-समय पर इन कानूनों के संदर्भ में चिंतन किया, चर्चा की और गोष्ठियों के माध्यम से सरकार और आम जनता को भी बताने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप आश्वासनों का बाजार समय-समय पर गर्म तो होता रहा किन्तु उसके परिणाम नहीं के बराबर रहे। एक लंबे अरसे के बाद मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो कर व्यवस्था को सरल एवं जनता के अनुरूप बनाने के लिए प्रयास किये गये परंतु वह सरकार बहुत दिनों तक टिक नहीं पाई। इससे लोगों में जो उम्मीदें बंधी थीं, वे पूरी नहीं हो पाईं।
मोरार जी देसाई की सरकार के बाद अटल जी के नेतृत्व में जब देश में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो कर व्यवस्था को सरल एवं जनता के अनुरूप बनाने के लिए बेहतरीन प्रयास किये गये। इस बीच गेट के माध्यम से वैश्विक महाशक्तियां कर के मामलों में पूरी दुनिया को अपने एजेंडे के मुताबिक सेट करती गईं और पूरा विश्व उनके एजेंडे के अनुरूप उनके इर्द-गिर्द घूमता रहा। इस दृष्टि से भारत की बात की जाये तो कर व्यवस्था को सरल एवं जनोपयोगी बनाने के लिए ठोस निर्णय तब लिये गये जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। प्रधानमंत्री ने काफी शोध के बाद करीब 1600 से अधिक अनुपयोगी कानूनों को समाप्त कर दिया और टैक्स से संबंधित तमाम कानूनों को समाप्त कर व्यवस्था को सरल बनाने का प्रयास किया। इस संबंध में प्रधानमंत्री जी की मंशा एकदम स्पष्ट थी कि यदि कर कानून सरल होंगे तो लोगों को कर अदा करने में तकनीकी दांव-पेंच की कोई दिक्कत नहीं होगी, लोग आसानी से कर जमा करेंगे और सरकारी खजाने में अधिक कर आयेगा।
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जब पैसा अधिक आयेगा तो विकास कार्यों की उड़ान और तेज होगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार ने कर कानूनों को आसान बनाने की कोशिश हर स्तर से की किन्तु इन सारे प्रयासों के बावजूद अभी भी कर व्यवस्था में बहुत सी उलझनें एवं पेचीदगियां हैं। जो लोग सरकारी एवं प्राइवेट सेक्टर में अच्छी कंपनियों में काम करते हैं, उन पर सीधी सरकार की नजर रहती है, उनसे तो कर वसूल लिया जाता है क्योंकि ऐसे लोग जान-बूझकर भी उसमें कोई हेरा-फेरी नहीं कर सकते हैं किन्तु इन लोगों को लगता है कि समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी कमाई उनसे ज्यादा है किन्तु वे कर देने से वंचित हैं। इस दृष्टि से असंगठित क्षेत्र की बात की जाये तो इस सेक्टर में कुछ लोगों की कमाई बहुत अधिक है किन्तु वे कर के दायरे से बाहर हैं।
उदाहरण के तौर पर अनेक स्थानों पर खाने-पीने एवं अन्य प्रकार की दुकानों पर हमेशा भीड़ लगी रहती है और दुकानों पर काम करने वालों को एक मिनट की भी फुर्सत नहीं मिलती है। आम लोगों की नजर में तो उनकी कमाई बहुत अधिक है किन्तु आयकर व्यवस्था में उनकी कमाई का मापदंड तय करने का कोई फार्मूला नहीं है। इसी प्रकार जगह-जगह लगने वाली साप्ताहिक बाजार, रेहड़ी-पटरी, सब्जी की दुकान, नाई, मोची, मुर्गा-मछली की दुकान, प्लंबर, कारपेंटर एवं इस तरह का कार्य करने वालों में तमाम लोग ऐसे हैं जिनकी कमाई सरकारी नौकरी करने वालों से अधिक होती है किन्तु वे कर के दायरे से बाहर हैं। ऐसे में कर जमा करने वालों को लगता है कि बलि का बकरा वे लोग ही क्यों बनें? ऐसे में यदि खर्चों पर ही कर लगने की व्यवस्था हो जाये तो इस समस्या का भी समाधान निकल जायेगा। आमदनी जिनकी भी ठीक-ठाक है, टैक्स देना तो सभी की जिम्मेदारी बनती है। यहां तो कुल मिलाकर यही स्थिति बनती दिख रही है कि कोई खा-खाकर परेशान है और कोई खाने बिना परेशान है।
कहने का आशय यही है कि कर व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे कोई बचकर दायें-बायें न होने पाये और किसी पर जरूरत से ज्यादा भार भी न पड़े, ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी का मानना है कि सभी तरह की टैक्स व्यवस्था समाप्त करके सिर्फ खर्च पर टैक्स लिया जाना चाहिए, क्योंकि इससे कोई बच नहीं पायेगा। इसी तरह के विचार पूर्व वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली के भी रहे हैं। सिर्फ खर्च पर टैक्स लगने से लोग पैसा छिपाकर रखेंगे भी नहीं और पैसा मार्केट में किसी न किसी रूप में सर्कुलेट हो जायेगा।
खर्च पर टैक्स लगने के कारण किसी के मन में किसी प्रकार का भय भी नहीं होगा। जिसने जहां भी पैसा छिपाकर रख रखा होगा, बेखौफ होकर खरीदारी करना शुरू कर देगा क्योंकि उसके मन में इस बात का कोई भय नहीं होगा कि किसी प्रकार की खरीदारी करने पर उससे यह पूछ लिया जायेगा कि इतना पैसा कहां से आया? कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि सिर्फ खर्च पर टैक्स लगने से छिपा हुआ या यूं कहा जा सकता है कि काला धन ‘येन-केन-प्रकारेण’ सिस्टम में आ जायेगा, इससे सरकारी खजाने में अधिक पैसा पायेगा, जिससे विकास कार्यों को और अधिक गति मिलेगी। ऐसी स्थिति में कर कानूनों की तमाम उलझनों से भी लोगों को मुक्ति मिलेगी।
हिन्दुस्तान में बार-बार यह बात उठती रहती है कि इनकम टैक्स मुख्य रूप से मध्यम वर्ग के वेतनभोगी लोगों पर ही लगता है जबकि अमीरों के पास वेतन की बजाय उनकी इनकम के एक प्रमुख स्रोत के रूप में लाभांस और पूंजीगत लाभ है। आयकर विभाग के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 8600 लोगों ने खुलासा किया है कि उनकी सालाना आमदनी 5 करोड़ रुपये से अधिक है।
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42,800 लोगों ने सालाना एक करोड़ से अधिक की कर योग्य आय घोषित की है। इसी प्रकार सालाना 20 लाख रुपये से अधिक आमदनी वाले 4 लाख लोग हैं जो कर आधार का एक प्रतिशत है। इससे महत्वपूर्ण बात यह है कि आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों में 99 प्रतिशत सिर्फ रिटर्न दाखिल करने को मजबूर हैं क्योंकि वे टैक्स के रूप में मामूली राशि का भुगतान करते हैं। जो लोग भुगतान करते हैं उनमें से अधिकांश वेतनभोगी कर्मचारी इनकम टैक्स से इसलिए नहीं बच सकते क्योंकि टी.डी.एस. कटौती के बाद इन्हें बकाया वेतन मिलता है।
इस देश में डाॅक्टर, वकील, इंजीनियर, सीए और अन्य प्रोफेशनल्स ने ईमानदारी से अपनी आय सरकार के समक्ष घोषित नहीं की है। फरवरी 2020 में एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने खुलासा किया था कि देश के केवल 1.46 करोड़ लोग ही इनकम टैक्स दे रहे हैं जो देश की आबादी के एक प्रतिशत से भी कम है। अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इनती बड़ी आबादी में यदि ईमानदारी से एक प्रतिशत लोग भी इनकम टैक्स नहीं देते हैं तो क्या कहा जा सकता है? ऐसे में यह बात कही जा सकती है कि जब देश का प्रत्येक व्यक्ति यही बताने के लिए तैयार नहीं है कि उसकी वास्तविक आमदनी कितनी है तो उससे टैक्स वसूल पाने की मंशा तो दूर की कौड़ी है।
ऐसे में जो लोग ईमानदारी से टैक्स देते हैं, उनके मन में भी यह भाव पनपना स्वाभाविक है कि जब इतनी भारी संख्या में लोग टैक्स की चोरी कर रहे हैं तो मैं ही ईमानदारी से टैक्स क्यों दूं? इन परिस्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि ऐसे कानून बनाये जायें जिससे लोग चोरी कम से कम करें। मेरा तो व्यक्तिगत रूप से यही मानना है कि सरकार को आमदनी के बजाय खर्च पर कर लगाना चाहिए। इस संबंध में मुझे पूर्ण रूप से विश्वास है कि यदि खर्च पर ही कर लगेगा तो देश में जबर्दस्त बचत का अभियान चल पड़ेगा और विकास के लिए पूंजी ही पूंजी उपलब्ध होगी। वैसे भी देखा जाये तो खर्च पर टैक्स काफी हद तक इनकम टैक्स की तरह ही है। अंतर सिर्फ इतना ही है कि टैक्स का आधार किसी के खर्च पर है, न कि उसकी आय पर।
इस संदर्भ में यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट तौर पर दिखता है कि जब किसी से यह नहीं पूछा जायेगा कि उसके पास पैसा कहां से आया तो जिसके पास जहां भी पैसा होगा, वह निकालकर खर्च करना शुरू कर देगा और इससे छिपा हुआ या काला धन बाहर आ जायेगा। पैसा किसी भी रूप में यदि मार्केट में प्रवाहित होगा तो उसका लाभ देश को अवश्य मिलेगा। जहां तक मेरा विचार है कि सरकार को इस संबंध में गंभीरता से विचार करना चाहिए। संभवतः यह विचार राष्ट्र के विकास में कुछ कारगर साबित हो सके। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि वर्तमान हालातों में ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जिससे अधिक से अधिक लोग कर देने के लिए प्रेरित हों। इस रास्ते पर जिनती जल्दी आया जाये, उतना ही अच्छा होगा।
– सिम्मी जैन, दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।