आज पूरे विश्व में विभिन्न समस्याओं को लेकर उथल-पुथल एवं अशांति मची हुई है। धार्मिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता एवं अन्य तमाम मुद्दों को लेकर विभिन्न देश आपस में लड़ रहे हैं। तमाम देश अपने देश की सीमाओं को और अधिक विस्तार देने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। पड़ोसी देश चीन का विस्तारवादी रवैया पूरे विश्व में चर्चा का विषय है। चीन के नापाक कब्जे में तड़प रहा तिब्बत अपनी आजादी के लिए पूरी दुनिया से मिन्नतें मांग रहा है। ताइवान और चीन को लेकर आये दिन खबरें देखने एवं सुनने विवाद को मिलती रहती हैं। कुवैत पर कब्जा करने की चाहत में इराक के तत्कालीन शासक सद्दाम हुसैन को अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी और बाद में उन्हें फांसी पर भी चढ़ना पड़ा था। अभी हाल ही में अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा होने से वहां लोकतंत्र का अध्याय समाप्त हो गया।
अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अपना देश छोड़ कर विदेश में चले गये। तमाम छोटे एवं कमजोर देश इस बात को लेकर हमेशा आशंकित रहते हैं कि कहीं कोई ताकतवर देश उन्हें दबोच न ले। किसी की इच्छा है कि पूरी दुनिया में इस्लाम का शासन हो जाये तो कोई चाहता है कि पूरे विश्व में ईसाइयत का झंडा बुलंद हो तो कोई अपने धर्म का शासन चाहता है। यह सब लिखने का मेरा आशय मात्र इतना ही है कि क्या इन सबसे किसी भी समस्या का समाधान संभव है? यदि पूरी दुनिया में किसी एक धर्म, जाति एवं संप्रदाय का शासन हो जाये तो भी समस्याओं का समाधान होने वाला नहीं है। उदाहरण के तौर पर जो देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं, वहां भी किसी न किसी बात पर मार-काट एवं उथल-पुथल मची हुई है। जिन देशों में एक ही धर्म का शासन है, वहां भी सुख-शांति नहीं है।
ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि आखिर पूरी दुनिया में सुख-शांति एवं सौहार्द कैसे स्थापित होगा? वास्तव में यदि पूरे विश्व में सुख-शांति एवं सौहार्द स्थापित करना है तो पूरे विश्व को एक परिवार मानना होगा यानी ‘विश्व बंधुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ यानी पूरी पृथ्वी एक परिवार है, की भावना को आधार बनाना होगा। इस संबंध में यदि भारत की बात की जाये तो भारत इसी विचार का हमेशा से ही पक्षधर रहा है। भारत के लोग पूरी वसुधा यानी पृथ्वी को एक परिवार मानते हैं। विश्व के सभी मानव यदि पूरी पृथ्वी को एक परिवार मान लें और विश्व के सभी प्राणियों को अपना मान लें तो किसी के साथ लड़ने का कोई आधार ही नहीं बन पायेगा। वैसे भी यदि विचार किया जाये तो विभाजन की कोई सीमा नहीं है।
वैश्विक स्तर पर जब कोई व्यक्ति कहीं जाता है तो वह अपने देश के नाम पर एकजुट होता है, जब अपने देश में होता है तो अपने प्रदेश के नाम पर एकत्रित होता है और जब अपने जिले में होता है तो अपने गांव, ब्लाॅक या तहसील के नाम पर एकत्रित होता है।
विभाजन की कड़ी में यदि धर्म, क्षेत्र, जाति एवं परिवार की बात की जाये तो व्यक्ति सबसे पहले धार्मिक आधार पर विभाजित होता है, उसके बाद जातीय एवं क्षेत्रीय आधार पर फिर कुल या गोत्र के आधार पर विभाजित होता है, इसके बाद पारिवारिक आधार पर विभाजित होता है और विभाजन की सीमा बढ़ते-बढ़ते एक दिन ऐसा आता है कि पति-पत्नी भी आपस में विभाजित हो जाते हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि जब विभाजन की कोई सीमा ही नहीं है तो कोई ऐसा उपाय किया जाये जहां धर्म, जाति, क्षेत्र, कुल, खानदान, गोत्र आदि का कोई मतलब ही न रह जाये। इसके लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि पूरे विश्व को एक परिवार मानकर इंसानियत, परोपकार एवं मानवता को आधार बनाकर आगे बढ़ा जाये तो समस्त समस्याओं का समाधान हो सकता है?
वैसे भी हमारी सनातन संस्कृति में सर्वत्र यही कहा गया है कि इंसानियत एवं मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सनातन संस्कृति में आदि कााल से यह परंपरा रही है कि जब भी मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों पर जयघोष किया जाता है तो विश्व कल्याण की बात की जाती है यानी यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि अपने देश में शांति चाहिए तो विश्व कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी ही होगी। उदाहरण के तौर पर जब पड़ोस में आग लगी हो तो उसकी लपट अपने घर तक भी आ सकती है अर्थात अफगानिस्तान में यदि उथल-पुथल एवं अशांति होगी तो उसका असर निश्चित रूप से पड़ोसी देशों पर भी पड़ेगा ही।
वैश्विक स्तर पर घटित विभिन्न परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि अब पूरे विश्व को उसी दिशा में अग्रसर होना होगा, जहां से सुख-शांति का आधार प्रशस्त होता है। इस दृष्टि से यदि मूल्यांकन किया जाये तो प्रकृति की शरण में जाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं बचता है।
प्रकृति को ही आधार बनाकर या यूं कहें कि प्रकृति को ही सब कुछ मानकर जीवन की नाव को आगे बढ़ाने का कार्य किया जाये तो पूरे विश्व में ‘सर्वे भवन्तु-सर्वे सुखिनः’ का सपना साकार हो उठेगा। प्रकृति के मुताबिक रहें और उसी के अनुरूप जीवन जियें तो ‘आप भला तो जग भला’ की भावना से भी ऊपर उठा जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर प्रकृति की व्याख्या तमाम लोग अपने-अपने हिसाब से करते हैं किन्तु मोटे तौर पर प्रकृति की यदि व्याख्या की जाये तो ‘क्षिति, जल, पावक गगन, समीरा’ यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु को ही प्रकृति यानी भगवान माना गया है। हालांकि, प्रकृति शब्द का बहुत व्यापक अर्थ है। पृथ्वी की बात यदि की जाये तो भारत के लिए अलग और पाकिस्तान के लिए अलग नहीं है, अपितु पूरे विश्व के लिए पृथ्वी एक ही है। इसी प्रकार जल, अग्नि, आकाश और वायु भी पूरी वसुधा के लिए एक ही हैं। धर्म, जाति, क्षेत्र, कुल, खानदान एवं गोत्र के मुताबिक अलग-अलग प्रकृति का विभाजन नहीं हुआ है। जब प्रकृति पूरे विश्व के लिए एक ही है तो प्रकृति के प्रति सबका आचरण एक जैसा ही होना चाहिए।
प्रकृति ने सब कुछ मुफ्त में दे रखा है। हवा, पानी, अग्नि, पृथ्वी और जल सभी को मुफ्त मिल रहा है। इसके बदले प्रकृति किसी से किसी प्रकार का कोई टैक्स नहीं लेती है। प्रकृति यदि अपनी सेवाओं के बदले मानव समाज से टैक्स लेने लगे तो पूरी धरती पर त्राहि मामि मच जायेगी किन्तु मानव अपने देश की सीमाओं का विस्तार करने, समुद्रों पर अपना अधिकार जमाने और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए एक दूसरे का दुश्मन बना हुआ है।
वैश्विक स्तर पर महाशक्तियों की बात की जाये तो वे सब कुछ अपनी मुट्ठी में करना चाहती हैं जबकि सभी को यह अच्छी तरह पता है कि प्रकृति को यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश को न तो काटा जा सकता है और न ही बांटा जा सकता है।
यह भी सभी को पता है कि ईश्वर एक है। अपने धर्म एवं संप्रदाय के अनुरूप पूजा पद्धति भले ही अलग-अलग है किन्तु ईश्वर तक पहुंचने एवं उससे मिलने का रास्ता एक ही है। सभी धर्मों में विभिन्न कथा, कहावतों, कहानियों, वेदों, पुराणों एवं धर्म ग्रंथों से यह साबित हो चुका है कि ईश्वर को वही पसंद है जो दरिद्र नारायण की सेवा में लगा रहता है। दरिद्र नारायण से सीधा अभिप्राय इस बात से है कि विश्व के दीन-दुखियों की बिना किसी भेदभाव के सेवा की जाये। वास्तव में देखा जाये तो ‘नर सेवा ही नारायण सेवा है’, का मूल अर्थ यही है। दरिद्र नारायण यानी लाचार एवं असहाय की मदद का भाव सभी लोगों में होना ही चाहिए। सही अर्थों में देखा जाये तो यही ईश्वर की सच्ची सेवा है और यही प्रकृति की भक्ति भी है।
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वैसे तो हमारी सनातन परंपरा में कहा गया है कि पूरे विश्व में जहां जिस चीज की जरूरत सबसे अधिक हो, यदि उसी का दान करके लोगों की मदद की जाये तो इससे अच्छा परोपकार का कोई कार्य हो ही नहीं सकता है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में पानी की बहुत किल्लत देखी जाती है। वहां के मारवाड़ी सेवा के रूप में जगह-जगह निःशुल्क पानी की व्यवस्था करते हैं, इससे सेवा करने वालों को बेहद आत्मीय सुख एवं शुकून भी मिलता है। कहा तो यहां तक जाता है कि इसी निःशुल्क जल सेवा की बदौलत मारवाड़ी समाज के लोग राजस्थान सहित पूरे विश्व में जहां कहीं भी हैं, बेहद सुखी एवं संपन्न हैं।
आज विकास के नाम पर सर्वत्र स्वार्थ हावी है। जो विकास विघटनकारी सोच और मानसिकता के साथ किया जाता है, वह हमेशा घातक ही साबित होता है। यदि इस तरह का कोई भी विकास का कार्य राष्ट्रहित के नाम पर किया जाता है तो उससे विकास के बजाय विनाश का रास्ता प्रशस्त होता है।
कोरोना काल में देखने को मिला कि जिन देशों को अपनी उत्तम किस्म की स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत गुमान हैं, ईश्वर ने उनका गुरूर चकनाचूर कर दिया और यह भी साबित हो गया कि अपने आपको विकसित मानने वाले देशों ने जिस प्रकार अपने देशों में विकास की नींव रखी है, वास्तव में उसका प्रकृति से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। उस कठिन समय में भी भारत जैसा देश धैर्य एवं संयम के साथ कोरोना के समक्ष मजबूती से खड़ा रहा और कोरोना से निपटने में विकसित देशों की अपेक्षा जयादा कामयाब रहा। उसका सिर्फ एक मात्र आधार यह था कि भारत ने कठिन समय में अपने आप को अपनी सनातन संस्कृति यानी प्रकृति के करीब कर लिया।
कोरोना से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो भी गाइड लाइन बनाई, उसे देखते ही भारतीयों ने कहा कि यह तो हमारे लिए कोई नई बात नहीं है बल्कि यह सब तो हमारी सनातन संस्कृति का ही हिस्सा है। हमें तो सिर्फ अपनी भूली-बिसरी हुई संस्कृति की तरफ वापस आना है। अंततः भारत ने यही किया और कोरोना से जंग में उसे काफी मदद मिली। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यदि प्रकृति के करीब एवं उसके अनुरूप रहा जाये तो कठिन से कठिन प्राकृतिक आपदाओं से भी निपटा जा सकता है।
मानव विकास की श्रृंखला में पर्यावरण, प्रदूषण असंतुलन भी मानव की ही देन है और इसी कड़ी में पीने का पानी, सासों के लिए शुद्ध हवा यानी आक्सीजन इत्यादि की किल्लत के कारण उसकी बिक्री होना भी एक बड़ी त्रासदी है जिसका जिम्मेदार केवल और केवल विकास की होड़ में अंधापन है।
वैश्विक स्तर पर सुख-शांति के लिए भगवान महावीर के दो सिद्धांतों, ‘जियो और जीने दो’ तथा ‘अहिंसा परमो धर्मः’ पर दुनिया यदि अमल कर ले तो विश्व की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।
वैश्विक स्तर पर सुख-शांति की स्थापना में भगवान महावीर के ये दोनों सिद्धांत संजीवनी बूटी का काम कर सकते हैं। वास्तव में देखा जाये तो प्रकृति का भी संदेश मूल रूप से यही है। मेरे साथ अच्छा हो, यह अच्छी बात है किन्तु सबके साथ अच्छा हो, यह और अच्छी बात है। इस बात पर पूरी दुनिया अमल कर ले तो किसी भी प्रकार की समस्या ही न रह जाये।
आज वैश्विक स्तर पर बिना मौसम के बरसात, बर्फबारी, भूकंप, भूस्खलन एवं अन्य प्राकृतिक आपदाएं बहुत अधिक देखने को मिल रही हैं। इन आपदाओं का गहराई से विश्लेषण किया जाये तो ये कोई सीमा तय करके नहीं आती हैं बल्कि एक ही साथ एक ही आपदा कई देशों में आ जाती है। यह सब लिखने का मेरा मूल आशय यही है कि जब प्रकृति किसी भी रूप में स्वयं विभाजन नहीं चाहती है तो मानव समाज को भी विभाजन से बचना चाहिए और प्रकृति की शरण में आकर ‘विश्व बंधुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मार्ग पकड़कर पूरे विश्व में सुख-शांति के लिए आगे बढ़ना चाहिए। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। द
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव भा.ज.पा.)