
अजय सिंह चौहान | राजधानी दिल्ली के दक्षिणी भाग में, ओखला रेलवे स्टेशन और नेहरू प्लेस जैसे भीडभाड वाले क्षेत्र के पास स्थित सिद्ध और प्रसिद्ध “कालकाजी मंदिर” है जो अरावली पर्वत श्रृंखला की सूर्यकूट नामक एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। हालाँकि यहाँ पहुँचने पर तनिक भी आभास नहीं होता की यह एक पहाड़ी है। माता काली को समर्पित यह एक अति प्राचीन और पवित्र पीठ माना जाता है। यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका पौराणिक, प्राचीन और मुगल काल से जुड़ा इतिहास भी दिल्ली की तरह ही रहा है। यह मंदिर जितना आस्था, भक्ति और शक्ति का प्रतीक है उतना ही इसका इतिहास भी रोचक और वीरता से भरे तथ्यों से जुड़ा हुआ है। इसलिए आज हम इस मंदिर के पौराणिक और प्राचीन इतिहास के साथ-साथ मुगल काल में इसके लगभग विलुप्त होने और पुनः अस्तित्व में आने के महत्व को विस्तार से समझेंगे।
माता काली को समर्पित इस “कालकाजी मंदिर” का पौराणिक महत्व सनातन धर्म के साथ शक्ति उपासना और परंपरा में गहराई से जुड़ा है। हालाँकि इसके विषय में स्थानीय मान्यता यह भी है कि यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है, जबकि दूसरी तरफ देखें तो शास्त्रों में वर्णित 51 शक्तिपीठों में इसका स्थान नहीं आता, इसलिए यह शक्तिपीठ नहीं बल्कि एक सिद्ध पीठ कहलाता है। प्राचीन काल से लेकर 18वीं शताब्दी तक भी यह मंदिर घने जंगलों और पहाड़ियों से घिरा हुआ था, और यह भी माना जाता है कि उस दौरान कई सिद्ध साधु-संत और तांत्रिक यहां दूर-दूर से माता की साधना के लिए यहाँ आते थे।
सबसे पहले तो यह जान लें कि दिल्ली में स्थित इस “कालकाजी मंदिर” का सम्बन्ध महाभारत काल से यानी द्वापर युग से जुड़ा हुआ है, इसलिए कुछ विद्वानों का मानना है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान इस क्षेत्र में भी कुछ समय बिताया था और माता काली की उपासना की थी। जबकि कुछ का मानना है कि इस मंदिर को प्राचीन ग्रंथों में “जयंती शक्तिपीठ” या “कालिका शक्तिपीठ” के नाम से भी जाना जाता है।
अधिकतर विद्वानों का मत है की पांडवों ने महाभारत युद्ध में विजय के बाद जब इन्द्रप्रस्थ नगरी की स्थापना की थी तो उसके पहले इस क्षेत्र में कुछ मंदिरों की भी स्थापना की गई थी। उन्हीं में से एक माता काली का यह मंदिर है। जबकि इसके अलावा, कनाट प्लेस में स्थित ‘बाल हनुमान मंदिर’, दूसरा ‘मरघट वाले हनुमान जी का मंदिर’ और तीसरा मंदिर जो पहाड़गंज क्षेत्र की पहाड़ी पर ‘झंडे वाली माता’ का मंदिर भी है। इनके अलावा दिल्ली एन.सी.आर. के अन्य कई प्राचीन मंदिर तो मुग़ल आक्रमणों के दौरान नष्ट होकर आज विलुप्त ही हो चुके हैं और कई ऐसे हैं जो यदि अस्तित्व में होंगे तब भी उनकी प्राचीनता की पहचान नहीं हो पा रही है।
दिल्ली में स्थित इस कालकाजी मंदिर के विषय में कुछ विद्वानों का कहना है की यह स्थान माता के स्वयंभू स्वरूप का प्रतीक है, जहां माता की मूर्ति प्राकृतिक रूप से एक शिला के रूप में स्वयं प्रकट हुई थी, इसलिए यह मंदिर यहाँ द्वापर युग से पहले भी हुआ करता था। जबकि पौराणिक ग्रंथों की माने तो, विशेष रूप से “देवी भागवत पुराण” और “मार्कंडेय पुराण” में, इस कालकाजी मंदिर का उल्लेख अखण्ड भारत के एक पवित्र और प्राचीन तीर्थस्थल के रूप में मिलता है। अर्थात यह मंदिर द्वापर युग से भी पहले का है।
हालाँकि जहां एक तरफ कालकाजी मंदिर का हमारे पुराणों में तो उल्लेख जरुर मिलता है लेकिन दूसरी तरफ मध्य युगीन और प्राचीन इतिहास के दस्तावेजों में उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जबकि पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि यह मंदिर हजारों वर्षों से अस्तित्व में रहा है। मंदिर की प्राकृतिक गुफा और माता की स्वयंभूरूपी शिला इसकी प्राचीनता का प्रमाण देती है। इस हिसाब से तो यह कहा जा सकता है कि हमारे इतिहासकारों ने किसी षड्यंत्र के तहत जिस प्रकार से अन्य अनेकों धार्मिक महत्त्व के स्थानों को हमारे आस-पास होते हुए भी हमसे दूर कर दिया है उसी प्रकार से वे इसको भी हमसे दूर करना चाह रहे होंगे लेकिन हमारी गहरी आस्था के चलते वे कामयाब नहीं हो पाए।
दिल्ली में स्थित इस कालिकाजी मंदिर की प्राचीनकाल से लेकर आज तक की संरचनाओं के इतिहास और तथ्यों की बात करें तो मंदिर का निर्माण और पुनर्निर्माण समय-समय पर विभिन्न राजवंशों और भक्तों द्वारा कई बार हो चुका है जिसमें पांडवों के द्वारा इन्द्रप्रस्थ नगरी के निर्माण से पूर्व इस मंदिर संरचना को भव्य स्वरूप दिया दिया था। इतिहासकारों का मानना है कि उसके बाद 4थी से 6ठी शताब्दी के गुप्त काल के दौरान भी इस मंदिर को विशेष महत्व प्राप्त होता था। उस दौरान यहाँ शक्ति-पूजा अपने चरम पर हुआ करती थी। इसलिए मंदिर की संरचनात्मक भव्यता भी उस काल में अति विकसित ही रही होगी।
यह वही दौर था जब यह मंदिर अखंड भारत के कुछ प्रमुख तीर्थ और आस्था के केन्द्रों में से एक हुआ करता था। इसलिए उस दौरान यहाँ अखंड भारत के कौने-कौने से तीर्थयात्री आते थे। उसके बाद से 13वीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर तक भी यह मंदिर अपनी भव्यता और दिव्यता के लिए अखण्ड भारत का गौरव कहलाता रहा। लेकिन जैसे-जैसे मुग़ल आक्रमण बढ़ते गए वैसे-वैसे अन्य मंदिरों की भाँती यहाँ भी भीषण आक्रमण हुए और मंदिर की अपार संपत्ति को अरब देशों में ले जाया गया।
मुगल काल में कालकाजी मंदिर –
13वीं शताब्दी के अंतिम काल तक आते-आते पश्चिमी भारत की तरह ही उत्तर भारत भी मुगल आक्रमणों की मार झेलने लगा और भारी लूटपाट के कारण यहाँ के कई मठ-मंदिर ध्वस्त होते चले गए। कई बड़े और वीभत्स मुग़ल आक्रमणों के बावजूद भी 16वीं से 19वीं शताब्दी तक दिल्ली के आसपास का क्षेत्र भारत का एक प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र हुआ करता था। इस दौरान कालकाजी मंदिर का महत्व स्थानीय समुदायों और भक्तों के बीच कभी कम नहीं हुआ। हालांकि मुगल आक्रमणकारियों द्वारा दी गई कई चुनौतियों का यहाँ सामना करना पड़ा। फिर भी, कालकाजी मंदिर ने अपनी पवित्रता और लोकप्रियता को बनाए रखा। और जितनी बार भी इस मंदिर पर हमले हुए, लगभग हर बार मंदिर को कुछ न कुछ क्षति अवश्य हुई। लेकिन हर बार इसका जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण भी होता गया।
कालकाजी मंदिर के लिए दूर-दूर से आकर कई राजपूत और क्षत्रिय लड़ाकों ने अपने मस्तक कटवा दिए और कई सनातनी बच्चे अनाथ भी हुए। जितनी बार भी यह मंदिर ध्वस्त और अपवित्र किया गया उतनी ही बार इसके लिए संघर्ष भी हुए और इसको मुक्त भी करवाया गया और जीर्णोद्धार के साथ शुद्धता भी करवाई गई। यानी मंदिर की रक्षा के लिए युद्ध भी चलते रहे और पूजापाठ भी होती रही।
कुछ ऐतिहासिक स्रोतों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार, अकबर और जहांगीर जैसे मुगल शासकों की सेनाओं को मंदिर पर आक्रमण के दौरान बार-बार मुहंकी खानी पड़ी और भारी नुकसान भी उठाना पड़ा था, जिसके बाद उन्होंने इस पर कब्ज़ा करने की अपनी मंशा को त्याग दिया और हिन्दुओं से समझोते करना ही उचित समझा। यही कारण है की इस मंदिर को वे कोई बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा सके। जबकि झंडेवाली माता मंदिर को मुग़ल आक्रमणकारी ध्वस्त करने में कामयाब हो गए।
मुगल काल के खात्में और मराठाओं के उदय के बाद, 18वीं और 19वीं शताब्दी में, दिल्ली के इसी कालिका जी मंदिर का पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार फिर से शुरू किया गया जिसमें उत्तर भारत के कई स्थानीय राजाओं और कुछ समृद्ध व्यापारियों के योगदान से यह संभव हो सका, और इस बार भी मंदिर की वर्तमान संरचना को और अधिक मजबूत और सुंदर बनाया गया। साथ ही मंदिर के आसपास के क्षेत्र को भी विकसित किया गया, ताकि अखंड भारत के उसी प्राचीन गौरव को यह मंदिर पुनः छु सके। इस तरह यह मंदिर दिल्ली के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक बन गया। मंदिर का सबसे प्रमुख भाग यानी गर्भगृह मराठाओं द्वारा निर्मित है जो वर्ष 1764 ईस्वी में बन कर तेयार हुआ था।
अगर हम इस मंदिर के सरकारी दस्तावेजों और आंकड़ों की बात करें तो आज़ादी के बाद के पुरातात्विक सर्वेक्षण ऑफ इंडिया और दिल्ली पर्यटन विभाग के गजेटियर जैसे सरकारी दस्तावेजों में इस मंदिर का उल्लेख बहुत ही सीमित है, क्योंकि इसको शुरुआत से ही एक जीवंत धार्मिक स्थल माना गया है। इसके अलावा इसकी मंदिर संरचना इतनी प्राचीन भी नहीं है की इसका रखरखाव पुरातात्विक विभाग को करना पड़े। यही कारण है कि सरकारी दस्तावेजों में इसे एक परंपरागत धार्मिक स्थान के रूप में ही उल्लेखित किया गया है, न कि पुरातात्विक प्रमाण के रूप में।
एक अंग्रेजी इतिहासकार, जॉन गैरेट द्वारा तेयार किये गए “A Gazetteer of Delhi, 1912” के अनुसार, माता कलिका के इस मंदिर का मूल स्वरूप यानी इसका महत्त्व, मान्यता और उल्लेख महाभारतकाल का बताया गया है। जॉन गैरेट ने लिखा है कि पांडवों ने यहां माता काली की उपासना की। हालांकि, उसने भी इसका कोई पुरातात्विक साक्ष्य आदि नहीं दिए हैं, बल्कि लोक परंपरा और स्थानीय लोगों की जानकारी के आधार पर ही बताया है। यही कारण है कि वर्तमान पुरातत्व विभाग भी इसी आधार पर इसको एक “प्राचीन स्थान” मानता है।
साथ ही वर्ष 2022 में रीप्रिंट किये गए “A Gazetteer of Delhi” में यह भी उल्लेख मिलता है की आज़ादी के कुछ वर्षों बाद तक भी इस मंदिर के आसपास कई व्यापारियों और दानकर्ताओं ने अपने खर्च से कालकाजी मंदिर के आसपास ऐसी कई धर्मशालाओं और विश्राम गृह आदि का निर्माण करवाया था जो दूर-दूर से आने वाले भक्तों और श्रद्दालुओं की सुविधा और सेवा के लिए मुफ्त थीं।
देखने में मंदिर का वास्तुशिल्प साधारण लेकिन सादगी और भक्ति का प्रतीक है। मंदिर के गर्भगृह में माता कालकाजी अर्थात देवी काली की स्वयंभू शिला स्थापित है जो ममता और शक्ति के साथ क्रोध की भी प्रतीक मानी जाती है। नियमित आने वाले स्थानीय दर्शनार्थियों और भक्तों का विश्वास है कि माता कालकाजी की कृपा से उनके सभी कष्टों का निवारण होता है और मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं। इसके अलावा मंदिर परिसर में कुछ अन्य छोटे मंदिर भी हैं, जो भगवान शिव, हनुमान और अन्य देवताओं को समर्पित हैं
जानकारों का मानना है की कलिका जी मंदिर का मूल और प्राकृतिक स्वरूप संभवतः एक साधारण गुफा मंदिर हुआ करता था, तब से लेकर वर्तमान की संरचना, यानी 18वीं से 20वीं शताब्दी के बीच किये गए छोटे-बड़े कई बदलाओं और निर्माण कार्यों का परिणाम है। वर्ष 1960 के दशक तक आते-आते, मंदिर के आसपास के क्षेत्र में आबादी बढ़ने के साथ, मंदिर परिसर को व्यवस्थित करने और भक्तों की सुविधा के लिए अतिरिक्त निर्माण किए गए, जिनमें कतारबद्ध दर्शन व्यवस्था और विश्राम स्थल आदि शामिल हैं। इसी दौरान मंदिर का मंडप और प्रवेश द्वार भी और अधिक भव्य बनाए गए। मंदिर की दीवारों पर माता काली के विभिन्न रूपों और पौराणिक चित्रों को दर्शाया गया है।
कालकाजी मंदिर दिल्ली का एक ऐसा धार्मिक स्थल है, जो पौराणिक, प्राचीन और ऐतिहासिक जैसे तीनों ही महत्वों को अपने में समेटे हुए है। यह मंदिर न केवल दिल्लीवासियों के लिए, बल्कि पूरे भारत के भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है। माता कालिका जी की कृपा से यह मंदिर आज भी लाखों भक्तों के लिए शक्ति और आध्यात्मिकता का प्रतीक बना हुआ है।
वर्तमान में कालकाजी मंदिर दिल्ली के सबसे व्यस्त और लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। नवरात्रि के दौरान यहां भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है, और देश-विदेश से लोग माता के दर्शन के लिए आते हैं। मंदिर का प्रबंधन और रखरखाव आदि का दायित्व दिल्ली सरकार और मंदिर ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।