अजय सिंह चौहान || पुण्य-सलिला माने जाने वाली शिप्रा नदी के तट पर बसा हुआ उज्जैन शहर जिसका अति प्राचीनतम नाम उज्जयिनी या अवन्तिका नगरी है हिंदू धर्म के बारह ज्योतिर्लिंगों में तीसरा स्थान रखने वाले भगवान महाकालेश्वर की पावन नगरी है। यह ज्योतिर्लिंग मन्दिर प्रसिद्ध रुद्र सागर के पश्चिम तट पर स्थित है जबकि इसके पूर्व में 51 शक्तिपीठों में से एक 13वां शक्तिपीठ श्री हरसिद्धि माता के नाम से जाना जाता है। जितनी मान्यता और महत्ता महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की है उतना ही महत्व इस रुद्र सागर का भी है। रुद्र सागर और महाकालेश्वर का उल्लेख हमारे वेदों एवं पुराणों में कई स्थानों पर आता है। शिवपुराण के अतिरिक्त स्कन्दपुराण के अवन्ती खण्ड में भी भगवान महाकाल का भव्य वर्णन मिलता है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा अनजाने काल से प्रचलित है और आज तक निरंतर हो रही है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना कब और किसके द्वारा की गई थी, यह कहना कठिन है। इसीलिए संभवतः इस ज्योतिर्लिंग को स्वयंभू माना जाता है। हालांकि पुराणों में यह संदर्भ मिलते हैं कि महाकाल ज्योतिर्लिंग की स्थापना प्रजापिता ब्रह्माजी के द्वारा हुई थी।
ज्योतिर्लिंग के ‘महाकालेश्वर’ नाम के विषय में भी माना जाता है कि जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग है पहले कभी यहां बहुत बड़ा और घना वन हुआ करता था जिसको महाकाल वन के नाम से जाना जाता था और इसी के नाम से यहां स्थित इस ज्योतिर्लिंग का नाम भी महाकाल ज्योतिर्लिंग पड़ा है। इसके अलावा यह भी मत है कि महाकाल नामक घने वन में ज्योतिर्लिंग होने के कारण ही इस ज्योतिर्लिंग को भी महाकाल ज्योतिर्लिंग के नाम से पुकारा जाने लगा।
स्कन्द पुराण के अवन्तिखण्ड के अनुसार महाकाल वन में अति प्राचीन काल में ऋषि-मुनि, देवगण, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि की अपनी-अपनी तपस्या-स्थली भी रही है। इसी महाकाल वन में भगवान् शिव ने अपनी शक्तियों से अनेक चमत्कारिक कार्य करके अपने महादेव नाम को सार्थक किया। महाकाल वन और अवन्तिका नगरी, भगवान् शिव को अत्यधिक प्रिय रहे हैं, इसी कारण उन्होंने इस क्षेत्र को कभी नहीं त्यागा।
उज्जयिनी के अन्य प्रमुख नामों में अवंतिका, कुमुदवती, कनकश्रृंगा, कुशस्थली, पद्मावती, प्रतिकल्पा, अमरावती और विशाला प्रमुख नाम है। हालांकि इसका अत्यधिक प्रिय और प्रचलित नाम उज्जयिनी कब और कैसे चलन में आया इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। लेकिन अगर इसके नामकरण के पीछे कुछ पौराणिक गाथाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि वे देवताओं के जमाने से जुड़ी हैं। जिसके अनुसार, ब्रह्मा द्वारा ‘‘अभय’’ वरदान प्राप्त कर त्रिपुर नाम के एक राक्षस ने यहां अपने आतंक और अत्याचारों से देवताओं और प्रजा को त्रस्त कर दिया था।
समस्त देवता भगवान् शिव की शरण में आये तो शिव ने देवी चण्डिका की आराधना कर उनसे महापाशुपतास्त्र प्राप्त किया, जिससे उन्होंने त्रिपुर का वध किया। उनकी इस विजय के परिणाम स्वरूप इस नगरी का नाम उज्जयिनी पड़ा। मत्स्य पुराण के एक अन्य उल्लेख के अनुसार अंधक नाम के एक अन्य दानव पर विजय पाकर उसके अत्याचारों से इस क्षेत्र को भगवान शिव ने मुक्त किया था। जिसके बाद इस नगरी को स्वर्ग रचित तोरणों एवं यहां के गगनचुम्बी महलों को स्वर्ण-शिखरों से सजाया गया था। इसी कारण अवन्तिका को कनकश्रृंगा भी कहा गया।
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पुण्य-सलिला माने जाने वाली नदी क्षिप्रा के दाहिने तट पर स्थित इस नगर को भारत की ‘सप्तपुरियों’ में से एक माना जाता है। सभ्यता के उदय के समय से ही यह नगर भारत के प्रमुख तीर्थ-स्थल के रूप में प्रसिद्ध रहा है। यहां का पवित्र रुद्र सागर, क्षिप्रा नदी एवं पावन कोटि तीर्थ के जल से भगवान महाकालेश्वर के विशाल ज्योतिर्लिंग का नियमित अभिषेक युगों-यूगों से होता आ रहा है। इसके अतिरिक्त उज्जयिनी में लगने वाला सिंहस्थ कुंभ का मेला बहुत ही दुर्लभ संयोग लेकर आता है इसलिए इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
हिंदू धर्म के अनुसार सम्पूर्ण भारत एक पावन क्षेत्र है और उसके ठीक मध्य में यह पावन अवन्तिका नगरी है। इसके उत्तर में बदरी और केदार है, पूर्व में पुरी है, दक्षिण में रामेश्वरम् है जबकि इसकी पश्चिम दिशा में द्वारका है। इस क्षेत्र का केन्द्र-स्थल महाकालेश्वर का मन्दिर माना जाता है। अर्थात् अवन्तिका नगरी भारत का केन्द्रीय क्षेत्र होने पर भी अपने आप में एक पूर्ण क्षेत्र है। भगवान महाकाल को क्षेत्र का अधिपति माना जाता है। इस प्रकार भगवान् महाकाल न केवल उज्जयिनी क्षेत्र बल्कि सम्पूर्ण भारत भूमि के ही अधिपति हैं।
पुराणों के अनुसार उज्जयिनी में अनेकों देवी-देवताओं के मन्दिर और तीर्थस्थान मौजूद हैं। स्कन्द पुराण के अवन्तिखंड के अनुसार 84 लिंगों में से 4 शिवालय महाकालेश्वर के इसी प्रांगण में हैं। 84 में 5वें अनादि कल्पेश्वर, 7वें त्रिविष्टेश्वर, 72वें चन्द्रादित्येश्वर और 80वें स्वप्नेश्वर के मंदिर भी यहां हैं। महाकालेश्वर मंदिर के दक्षिण-पश्चिम प्रांगण में वृद्धकालेश्वर या जूना महाकाल का विशाल मंदिर है। इसी प्रांगण में सप्तऋषियों के मंदिर, शिवलिंग रूप में स्थित हैं। यहीं नीलकंठेश्वर और गौमतेश्वर के मंदिर भी मौजूद हैं।
माना जाता है कि स्कंदपुराण के दो भाग इसी नगरी में लिखे गये थे। महाभारत में उज्जैन का उल्लेख अवंती राज्य की राजधानी के रूप में किया गया है। भगवान कृष्ण ने यहीं पर गुरु सांदीपनि से विद्या प्राप्त की थी। भक्त प्रह्लाद ने भी विष्णु एवं शिव से इसी स्थान पर अभय प्राप्त किया था। विक्रमादित्य जैसे महान सम्राट ने भी इस पावन नगरी पर शासन किया और अपना गौरव बढ़ाया था। इस नगर को शिव की भूमि और हिंदू धर्म के सात पवित्र शहरों में से एक माना जाता है।
हिंदू धर्म के 18 महा शक्तिपीठों में भी इस पवित्र तीर्थस्थान को शामिल किया गया है। महा शक्तिपीठ भी एक प्रकार से तीर्थस्थल ही होते हैं और सभी शक्तिपीठ अपनी पवित्र शक्तियों के लिये प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है की उन स्थानों पर जाने से इंसान को आंतरिक शक्ति मिलती है।
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अनेक काव्य-ग्रंथों में महाकालेश्वर मन्दिर का रोचक व गरिमामय उल्लेख है। इनमें बाणभट्ट के हर्षचरित व कादम्बरी, श्री हर्ष का नैपधीयचरित, पुगुप्त का नवसाहसांकचरित मुख्य हैं। अन्य संदर्भों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व छठी सदी में उज्जैन के एक वीर शासक चण्डप्रद्योत ने महाकालेश्वर परिसर की व्यवस्था के लिये अपने पुत्र कुमारसेन को नियुक्त किया था। उज्जयिनी में तीसरी सदी ईसा पूर्व जिन सिक्कों का प्रचलन था उन पर महाकाल की प्रतिमा अंकित थी।
शिवभक्त महाकवि कालिदास ने मेघदूत और रघुवंश नामक अपने महाकाव्यों में महाकालेश्वर मन्दिर का आकर्षण और भव्य रुप प्रस्तुत करते हुए ज्योतिर्लिंग की संध्या आरती को अद्भुत, मनोहारी एवं दिव्य बताया है। कालिदास के अनुसार संध्या काल में वहां दीप झिलमिलाते थे। कई प्रकार के वाद्ययंत्रों की ध्वनि से मन्दिर परिसर गूंजता रहता था। शाम की आरती का दृश्य मनोरम होता था। दूर-दूर से आये भक्तों की भीड़ द्वारा लगाये जाने वाले जयकारों से मन्दिर का प्रांगण सदैव गुंजायमान रहता था। पुजारियों के दल, पूजा-उपासना में व्यस्त रहा करते थे।
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उज्जयिनी को भारत की सांस्कृतिक काया का मणिपूर चक्र माना गया है। महाकवि कालिदास द्वारा वर्णित श्री विशाला-विशाला नगरी तथा भाणों में उल्लिखित सार्वभौम नगरी यही रही है। इस नगरी से ऋषि सांदीपनि, महाकात्यायन, भर्तृहरि, कालिदास, वराहमिहिर, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, जदरूप आदि संस्कृति-चेता महापुरुषों का संबंध रहा है। कृष्ण-बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, मौर्य राज्यपाल सम्राट अशोक, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रप चष्टन व रुद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मुंजराज, भोजदेव व उदयादित्य जैसे महान शासकों का राजनैतिक संस्पर्श इस नगरी को प्राप्त हुआ है।
यह नगर सम्राट अशोक, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसी हस्तियों से भी जुड़ा है। मध्ययुग में भी महाकालेश्वर की चर्चा कई स्थानों पर हुई है। जैन परम्परा में भी महाकाल का उल्लेख विभिन्न सन्दर्भों में आया है। अपने समय के प्रख्यात विद्वान राजा जयसिंह ने यहां जंतर-मंतर नामक वेधशाला का निर्माण करवाया था। उज्जैन शहर ज्योतिष विद्या के लिए भी जाना जाता है। उज्जयिनी समस्त कलाओं और विद्याओं के विशेषज्ञों की भूमि रही है और आज भी है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी भगवान महाकाल की सान्ध्य आरती की गरिमा को रेखांकित किया था।
भगवान महाकालेश्वर आज भी उज्जैन की जनता और उनके जनजीवन पर अपना वर्चस्व रखते हैं, और एक इसका उदाहरण यहां की पारंपरिक हिन्दू परंपराओं में देखने से ही पता चल जाता है। शिवपुराण में उल्लेख है कि महाकाल की सकल अथवा साकार रुप में नगर में सवारी भी निकलती थी, जो आज भी पारंपरिक रूप से जारी है। यहां का विक्रम विश्वविद्यालय अपनी सांस्कृतिक और विद्वतापूर्ण गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है। कालिदास अकादमी, भारतीय शास्त्रीय भाषा संस्कृत का अध्ययन केंद्र है। यहां के हर प्रकार के धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की ओर स्थानिय प्रशासन द्वारा आज भी विशेष ध्यान दिया जाता था।