अजय सिंह चौहान || आज भारत में सबसे अधिक वोटर और समर्थकों की संख्या यदि किसी राजनीतिक पार्टी और किसी संगठन की है तो वो है भारतीय जनता पार्टी और संघ। यहां हम ये भी कह सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी का ही दूसरा नाम संघ है और संघ का ही दूसरा नाम भारतीय जनता पार्टी है। संघ यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को हुई थी, इसीलिए संघ और भाजपा के अनुसार यह देश भी 27 सितंबर 1925 को ही अस्तित्व में आया है। यानी इससे पहले न तो यह देश था और न ही इसकी संस्कृति और न ही इसकी कोई औकात! यहां हम यह भी कह सकते हैं कि भारत की जनता राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कर्जदार है कि उसने हमें पहचान दी है इसलिए न चाहते हुए भी इसके गुणगान करने पड़ते हैं।
हालांकि, वैसे तो यह भूमि और यहां के देवी-देवता, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, तमाम प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक, महान ऋषि-मुनि, तपस्वी, ज्ञानी आदि इस भूमि पर अनंतकाल से ही थे, लेकिन, क्योंकि उस समय तक संघ की स्थापना नहीं हुई थी इसलिए उनकी कोई पहचान नहीं थी इसलिए वे सब काल्पनिक ही थे। ऐसा मैं नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तमाम छोटे-बड़े पदाधिकारी और इसी से निकल कर राजनीतिक दल के रूप में आज सत्ता के सिहासन पर बैठी भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा और इसके तमाम ऐसे नेता जो इसकी जड़ों से यानी संघ से जुड़े हुए हैं वे यही कह रहे हैं और उनके लिए यही सत्य भी है।
उदाहरण के तौर पर संघ की जड़ से जुड़े हमारे आज के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी जी ने अपनी विदेश यात्रा के दौरान किसी सभा में कहा था कि – ‘इनक्रेडिबल इंडिया पत्थर की मूर्तियों में नहीं बल्कि भारत के लोगों में है।’ यानी मोदी जी का यह कथन संघ और भाजपा का वैचारिक और व्यावहारिक डीएनए को ही नहीं बल्कि वैचारिक डीएनए भी उजागर करता है कि आज के भारत की औकात क्या है।
यदि संघ का संविधान और एजेंडा यही कहता है कि – ‘इनक्रेडिबल इंडिया पत्थर की मूर्तियों में नहीं बल्कि भारत के लोगों में है’ तो फिर इसमें गलती तो मोदी जी के समर्थकों की ही हुई, न कि स्वयं मोदी जी की। इनक्रेडिबल इंडिया पत्थर की मूर्तियों में होता तो आज काशी में स्वयं भगवान शिव साक्षात प्रकट हो चुके हैं। चला क्यों नहीं देते बुलडोजर उस गुंबद पर जो मंदिर के अवशेषों पर बना है। सभी जानते हैं कि मोदी बहुत बड़े शिव भक्त हैं, लेकिन, किसी भी व्यक्ति की अपनी निजी आस्था कुछ भी हो सकती है। और क्योंकि मोदी संघ की विचारधारा से जन्में एक राजनीतिज्ञ हैं इसलिए वे आस्था से नहीं बल्कि ‘हम सबका डीएनए एक है’ वाली विचारधारा और नीतियों के अनुसार ही चलेंगे।
मैं यह अच्छी तरह से जानता हूं कि मेरे पूर्वजों की पिछली हजारों पीढ़ियों ने यहीं जन्म लिया, इसी भूमि पर अनाज उपजाया, इसी भूमि पर बहने वाली नदियों का जल पिया था। इसीलिए उनका इस भूमि से जुड़ा डीएनए आज मुझमें जस का तस है। इसीलिए मैं आज भी जन्म, कर्म, आचरण और विचारों से एक सहिष्णु हिंदू हूं, और यही मेरी सबसे बड़ी मजबूरी भी है।
लेकिन, मेरी पीढ़ा और मेरी विवशता को देखिए कि, क्योंकि मेरा जन्म संघ की स्थापना के बाद हुआ है इसलिए मुझे भी विवश होकर यही पहचान बतानी पड़ती है कि मैं यहां का मूल निवासी नहीं हूं। क्योंकि मेरे माता-पिता भी संघ की स्थापना के बाद ही जन्में थे इसलिए वे भी इस भूमि के मूल निवासी नहीं हैं। हालांकि, मेरे दादा और दादी का जन्म 27 सितंबर 1925 से पहले यानी संघ की स्थापना से पहले हो चुका था इसलिए वे यहां यानी इसी भूमि के मूल निवासियों में से ही थे।
अब यहां सवाल आता है कि यदि हमारे पूर्वजों ने यहां हजारों वर्षों से जीवन निर्वाह किया है तो फिर हम भी तो यहां के मूल निवासी ही हुए। लेकिन, यदि संघ कहता है कि मैं यहां का मूल निवासी नहीं हूं तो फिर वो कौन हैं जो इस भूमि के मूल निवासी हैं? इस हिसाब से तो संघ के जनक यानी संस्थापक स्वयं भी यहां के मूल निवासी नहीं हुए। जी हां यह सच भी है और नहीं भी। क्योंकि यहां हम ये भी मान सकते हैं कि हो सकता है कि संघ की स्थापना करने वाले उन विशेष लोगों के पूर्वजों की आत्माएं आज भी यदि ऊपर से देख रही होंगी तो अपने आप को ही कोस सही होंगी कि हमने ऐसा कौन सा पाप किया होगा जो हमारे भविष्य के डीएनए में बदलाव आ गया।
मुझे याद है कि भारत के ही एक डाॅक्टर यास्क गुप्ता ने पिछले करीब तीन वर्ष पूर्व जर्मनी में रहते हुए भारतीय खान-पान और विचारों को लेकर एक रिसर्च की थी। उस रिसर्च में डाॅक्टर गुप्ता ने साबित किया था कि आप जो सोचते हैं और जो खाते-पीते हैं उससे आपका डीएनए भी उसी प्रकार, उसी विचारधारा का हो जाता है, यानी बदल जाता है। भले आप वहां कभी भी नहीं गये हो या फिर उनसे आपका कोई खून का रिश्ता भी न रहा हो। यहां उदाहरण के लिए हम यह कह सकते हैं कि अगर कोई पश्चिमी या अरेबियन विचारधारा से सहमत होते हैं, उसमें रच-बस जाते हैं और उसी प्रकार सोचते हैं, और यदि आप उसी विचारधारा से जुड़ा अन्न या अन्य प्रकार का खान-पान या रहन-सहन अपना लेते हैं तब भी आपका डीएनए परिवर्तित हो जाता है।
बात वर्ष 2019 के दिसंबर माह की है जब हमारी हिंदी फिल्मों की एक नायिका पायल रोहतगी को राजस्थान में किसी डीएनए वाले बयान पर जेल में डाल दिया गया था। संभवतः पायल रोहतगी ने भी डाॅक्टर यास्क गुप्ता की उसी रिसर्च के आधार पर ये बयान दिया होगा। क्योंकि उन दिनों डाॅक्टर यास्क गुप्ता की उस रिसर्च की चर्चा हमारे मीडिया में काफी जोर-शोर से हो रही थी।
मैं कोई डाॅक्टर या विज्ञानी नहीं हूं। लेकिन, मैं डाॅक्टर डाॅक्टर यास्क गुप्ता की उस रिसर्च से शत-प्रतिशत सहमत हूं। क्योंकि, इसमें सबसे बड़ा उदाहरण मैं स्वयं हूं। मेरा परिवार है, मेरे अन्य कई नजदीकी भी हैं। जिनके पूर्वज इस भूमि पर हजारों वर्ष पहले से थे, तभी तो उनके विचार, संस्कार और शिक्षा का असर मेरे साथ है। मेरे विचार, संस्कार और शिक्षा के कारण आज भी मैं ईश्वर को मानता हूं। मूर्ति पूजा करता हूं। किसी का अहित होने या करने पर असहज हो जाता हूं। मैं सरकारी यानी खूद की संपत्ति की रक्षा करने को ही कर्तव्य मानता हूं। शायद इसीलिए क्योंकि मेरा डीएनए इसी भूमि से जुड़ा है।
मैंने हिंदू धर्म के बड़े-बड़े धर्मग्रंथों तो नहीं पढ़े लेकिन, छोटी-छोटी धार्मिक पुस्तकें पढ़ी और हिंधू धर्म से जुड़ी कई लोक कथाओं का भी ज्ञान रखता हूं। गीता, रामायण, महाभारत का विशेष अध्ययन नहीं किया लेकिन, इन धर्मग्रंथों के प्रति विशेष सम्मान रखता हूं। क्योंकि रामायण और महाभारतऔर पुराणों से ही मुझे ज्ञान हुआ है कि मेरे पूर्वज इसी मिट्टी की संतान थे, मैं भी उन्हीं का अंश हूं, अर्थात मेरा डीएनए 27 सितंबर 1925 में स्थापित संघ से भी पहले से यहां से जुड़ा हुआ है। लेकिन, क्योंकि वर्ष 1925 के बाद यहां के मूल निवासी करीब 100 करोड़ हिंदूओं को एक प्रकार से बंधक और बंधुआ बना कर कर रखा हुआ है इसलिए मुझे भी डरना पड़ रहा है कि पता नहीं कब मुझ पर भी कहीं से पत्थरबाजी न हो जाये।
मेरा डीएनए इसी भूमि से जुड़ा है इसलिए मुझे इस भूमि से लगाव है। आज मैं खुल कर बोलना चाहता हूं, क्योंकि मैं राष्ट्रवादी बाद में हूं और सनातनवादी पहले। यदि मैं अपने अंदर के सनातन को जीवित रख पाऊंगा तो राष्ट्र तो अपने आप ही बच जायेगा। लेकिन, यदि मैं पहले राष्ट्र को बचाने में लगा रहूंगा तो सनातन से समझौता करना ही पड़ेगा। यानी राष्ट्र को बचाने के लिए यदि मैं दुश्मनों के आगे अपना गाल आगे कर दूंगा तो वे बिना सोचे मेरे गाल पर थप्पड़ मार देंगे। फिर मुझे राष्ट्र के खातिर दूसरे गाल पर भी थप्पड़ खाना पड़ेगा। तीसरा गाल न होने के कारण वे मेरी गर्दन काट देंगे। और जब गर्दन कटवानी ही है तो, मेरा प्रयास है कि मैं अपने को न बचा कर अपनी आत्मा को पहले बचा लूं, ताकि मेरी आत्मा दूषित न हो सके। यानी मेरा डीएनए न बदलने पाये।
रही बात संघ और भाजपा की या अन्य किसी भी राजनीतिक पार्टी की, तो, उनका क्या, वे तो कहीं भी राष्ट्र बना लेंगे। क्योंकि उनके पास न तो अपना प्राचीन डीएनए है और न ही प्राचीन धर्म। क्योंकि संघ और भाजपा के अनुसार यह देश 27 सितंबर 1925 को ही अस्तित्व में आया है। जबकि संघ का डीएनए तो कब का बदल चुका है।
वर्तमान परिस्थितियों अनुरूप यदि ‘डीएनए’ की परिभाषा बदलें तो भारतीय मानसिकता के अनुसार इसका दूसरा नाम ‘भाई-चारा’ सबसे सटीक बैठता है। हालांकि अब भी हजारों ही नहीं बल्कि लाखों, करोड़ों लोग ऐसे हैं जो अपने डीएनए को ‘भाई-चारा’ की परिभाषा में बदलने को तैयार नहीं हैं। उनमें से मैं भी एक हूं। फिलहाल तो बिल्कुल भी नहीं। हम जानते हैं कि मौत निश्चित है, लेकिन हम यह नहीं जानते कि कब और कहां?