भारत सहित पूरी दुनिया आधुनिक से अत्याधुनिक की तरफ लगातार बढ़ती जा रही है। मानव चांद तक पहुंच गया है। आधुनिक सोच, संसाधनों एवं टेक्नोलाॅजी के कारण पूरी दुनिया सिमट कर बहुत छोटी होती जा रही है किंतु कुछ मामलों में व्यक्ति पहले भी बेहद दकियानूसी था, आज भी है और वर्तमान वातावरण को देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य में भी ऐसा ही देखने को मिलेगा। व्यक्ति किस मामले में दकियानूसी है, यदि उसका विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाये तो अधिकांश लोग अभी भी पुत्री की बजाय पुत्र की चाहत रखते हैं।
भारत सहित पूरी दुनिया में तमाम उदाहरणों से यह भी प्रमाणित हो चुका है कि पुत्रों के मुकाबले पुत्रियां जरा भी उन्नीस नहीं हैं बल्कि अधिकांश मामलों में बीस ही साबित हो रही हैं। बेटे की चाहत रखना अच्छी बात है किन्तु बेटी के जन्म लेने पर उसका दोषी यदि महिला को मान लिया जाये तो यह निहायत ही दकियानूसी सोच तो है ही, साथ ही ऐसा मानना एकदम गलत भी है। बेटे की इच्छा पूरी न होने पर समाज में क्या-क्या हो रहा है, इसकी चर्चा आगे करेंगे, उससे पहले यह जान लेना जरूरी है कि वास्तव में बेटा एवं बेटी के जन्म के संदर्भ में विज्ञान क्या कहता है?
बेटी के जन्म लेने के संदर्भ में समाज में जो भी धारणाएं प्रचलित हों, किंतु सच्चाई यह है कि बेटा या बेटी पैदा करने की सामर्थ्य केवल पुरुषों में ही है क्योंकि पुरुष के पास X के साथ Y क्रोमोजोम्स हैं। स्त्री के पास तो सिर्फ X X क्रोमोजोम्स होते हैं। पुरुष का X और स्त्री का X मिलकर बेटी और पुरुष का Y और स्त्री का X मिलकर बेटे का जन्म निर्धारित करते हैं। इस वैज्ञानिक सच्चाई को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं और जानते भी हैं तो न जानने एवं न स्वीकारने का ढोंग करते हैं। जननी को दोषारोपण करने में सामाजिक सहयोग व अपना मूक योगदान देकर अधिकार समझते हैं।
मनचाही संतान के लिए आम तौर पर महिलाओं को पूजा-पाठ, साधु-संतों, मौलवियों एवं तांत्रिकों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हुए देखा जा सकता है। कारण स्पष्ट है कि महिलाओं को ही लड़का न होने पर दोषी मान लिया जाता है जबकि इसका दोषी तो सीधे तौर पर पुरुष ही होता है। कई बेटियों के होने पर पुरुष अकसर कह देते हैं कि बेटे के लिए दूसरी औरत से शादी करेंगे किंतु उन्हें यह नहीं मालूम कि इसका दोषी तो स्वयं ही हैं, क्योंकि Y क्रोमोजोम तो उन्हीं के पास हैं। X और Y मिलकर ही बेटे को जन्म देते हैं। ऐसी स्थिति में यदि महिलाएं भी यह कहने लगें कि वे अपनी बेटे की चाहत को पूरा करने के लिए दूसरे पुरुष से शादी करेगी तो पुरुषों की बहुत फजीहत हो जायेगी। सामाजिक ताना-बाना हिल जायेगा, भूंचाल आ जायेगा। इस संबंध में वास्तव में निष्पक्षता के साथ विश्लेषण किया जाये तो कहा जा सकता है कि ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ यानी दोषी तो पुरुष है, उल्टा वह महिला को ही दोषी बताता है।
आज समाज में तमाम ऐसे मामले देखने को मिलते हैं जिसमें बेटा न पैदा कर पाने की वजह से महिलाओं का जीवन नर्क बना दिया जाता है। बेटी के जन्म लेने पर घर में जश्न मनाना तो दूर, बल्कि महिला को ठीक तरीके से न तो चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाती है और न ही ठीक से खाना-पीना दिया जाता है। व्यवहार में हीन भावना पैदा कर दी जाती है जिससे महिला मन ही मन कुंठित होकर नई-नई बीमारियों को जन्म दे देती है। अंधविश्वास एवं दकियानूसी सोच की तमाम महिलाएं आये दिन शिकार होती हैं। तमाम बेटियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है।
इच्छा के विरुद्ध यदि कोई बच्ची जन्म ले लेती है तो कई मामलों में ऐसा देखने को मिला है कि उसे कचरे के ढेर पर रख दिया जाता है। उसके भाग्य से यदि किसी की नजर उस पर पड़ जाती है तो वह बच जाती है अन्यथा नवजात बच्ची को कुत्ते एवं अन्य जानवर नोच-नोच कर अपना शिकार बना लेते हैं किंतु यह सब बहुत हो चुका, इस मामले में व्यापक स्तर पर जन जागरण अभियान चलाना होगा और समाज को यह स्पष्ट रूप से बताना होगा कि जिसके लिए पुरुष दोषी है, उसके लिए महिला को दोषी क्यों ठहराया जाता है? अब सारी दुनिया को यह तथ्य स्वीकार करना ही होगा कि बेटा या बेटी को पैदा करने का दायित्व ईश्वर ने सिर्फ पुरुषों को ही दिया है। बेटा न होने पर आये दिन महिलाओं के उत्पीड़न की घटनाएं देखने-सुनने को मिलती रहती हैं, जो हर दृष्टि से गलत है, अमानवीय है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी अस्वीकार्य हैं।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जो महिलाएं सर्वदृष्टि से सक्षम हैं, जिनका न तो किसी रूप में उत्पीड़न हो सकता है और न ही उन पर कोई दबाव डाल सकता है, वे भी बेटे की चाहत में बेचैन रहती हैं और उन्हें भी कई-कई बार बेटे के लिए गर्भपात करवाते हुए सुना गया है यानी यह एक सामाजिक बुराई के रूप में तब्दील हो चुकी है। इसकी जड़ों पर प्रहार करना होगा। जिन कारणों से बेटे की चाहत प्रबल होती है और यह माना जाता है कि उक्त काम सिर्फ बेटा ही कर सकता है तो ऐसी सोच पर ही प्रहार करना होगा। सोचने वाली बात यह है कि जब ईश्वर न बेटा एवं बेटी दो ही का निर्धारण किया है तो इसमें कौन सा ऐसा काम है जो बेटा करेगा और बेटी नहीं कर सकती। इसी सोच और इससे जुड़ी भ्रांतियों पर प्रहार करने की आवश्यकता है।
विश्व शांति के लिए दुनिया को अपने पीछे चलाना ही होगा…
अपने समाज में ऐसी घटनाएं सुनने को मिली हैं कि यदि महिला ने बच्ची का गर्भपात कराने से इनकार कर दिया तो उसके पेट पर लात मार कर उसके गर्भ को समाप्त कर दिया गया। इस कुकृत्य में तो अनेक महिलाओं की जान भी जा चुकी है। एक समय ऐसा आया जब लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या बहुत कम हो गई। इस मामले में तो हरियाणा की स्थिति सबसे खराब रही। लड़के-लड़की के अनुपात को समान बनाने के लिए सरकारी स्तर पर बहुत व्यापक रूप से जन जागरण अभियान चलाया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने तो बिधिवत ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान चलाया जिसका परिणाम अब देखने को मिलने लगा है। इस मामले में स्थिति अब धीरे-धीरे सुधरती जा रही है। हालांकि, मूल सोच पर प्रहार करने की सोच में बदलाव होने की दिशा में बहुत कुछ होना और कर पाना अभी बाकी है।
जो देश अपने को बहुत विकसित समझते हैं और जिनके यहां कहा जाता है कि बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं है, वहां भी बेटे की चाहत में महिलाओं को बेचैन देखा जा रहा है। बेटे के लिए बेचैन होना अच्छी बात है किंतु अब पूरी दुनिया को यह बताना भी होगा कि लिंग निर्धारण में सिर्फ स्त्री की ही भूमिका नहीं होती है, उसमें पुरुष की भी भूमिका होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से यदि बेटा नहीं हो रहा है तो उसका दोषी प्रत्यक्ष रूप से पुरुष ही होता है।
जिस समय गर्भ में भ्रूण के लिंग के बारे में जान पाने की तकनीक विकसित नहीं हुई थी, उस समय बेटे की चाहत में कई बेटियों का जन्म न चाहने के बावजूद हो जाता था। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। बेटों की चाहत में सात बेटियों का जन्म हो गया किंतु उन्होंने अपने सभी बच्चों का पालन-पोषण बहुत ही अच्छे तरीके से किया। हालांकि, इस प्रकर के तमाम उदाहरण देखने-सुनने को मिल जायेंगे।
जिन लोगों को लगता है कि मां-बाप को मुखाग्नि देने के लिए या पितरों का तर्पण करने के लिए बेटे ही जरूरी हैं तो इस धारणा को सिरे से खारिज करना ही होगा और इस धारणा को समाज में विकसित करना होगा कि माता-पिता को मुखाग्नि देने के लिए एवं पितरों का तर्पण करने के लिए बेटियां भी हो सकती हैं।
अब समाज में यह धारणा विकसित करना जरूरी है कि परिवार में जितना उपयोगी बेटा है, उससे कहीं अधिक उपयोगी बेटी है। अब तो समाज में ऐसा भी देखने को मिल रहा है कि बुढ़ापे में मां-बाप को बेटा-बहू भले ही कष्ट दे दें किंतु अधिकांश बेटियां बुढ़ापे में अपने माता-पिता की प्रसन्नता का कारण बनती हैं। कोरोना काल में एक बच्ची साइकिल पर अपने बीमार पिता को अपने गांव ले गई जहां उनका प्राकृतिक और आयुर्वेदिक तरीके से इलाज करवाया। यह वह काल था जिस काल में आदमी आदमी को छूने से डरता था। इस संबंध में एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि जो लोग थोड़ा सा भी धार्मिक हैं, उन्हें यह मान लेना चाहिए कि कुछ बातें ईश्वरीय इच्छा पर भी निर्भर हैं। जो ईश्वर की इच्छा है उसे स्वीकार करना चाहिए, उसके विपरीत किसी को नहीं जाना चाहिए। इसे एक उदाहण के रूप में समझा जा सकता है।
एक बहुत ही धार्मिक किस्म के व्यक्ति जिन्हें पहली पत्नी से 2 पुत्रियों की प्राप्ति हुई और पुत्र की चाहत में पहली शादी के 12 वर्ष बाद दूसरी शादी की। दूसरी पत्नी से 2 वर्ष बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र प्राप्ति के 12 वर्ष तक सब कुछ ठीक चला किंतु एक दिन अकस्मात उनका पुत्र ईश्वर को प्यारा हो गया और वे जहां थे, वहीं फिर आ गये। जिस अंतिम संस्कार, पितरों के तर्पण एवं अन्य कारणों से दूसरी शादी की, आज वे सारे काम उनकी दोनों पुत्रियां ही कर रही हैं। इसी को कहते हैं, होनी बलवान है यानी होना वही है, जो ईश्वर की इच्छा है।
हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि जीवन-मरण, हानि -लाभ एवं यश-अपयश सब विधाता के हाथ में है तो इसमें व्यक्ति क्या कर सकता है? जो लोग धार्मिक बातों पर यकीन नहीं करते हैं वे विज्ञान की बात तो मान ही सकते हैं और मानना ही चाहिए यानी यदि बेटे की चाहत पूरी नहीं हो पाती है तो उसके लिए पुरुष को अपने आप को ही दोषी मानना चाहिए न कि महिला को।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम चरित मानस में लिखा है कि ‘होइहें वही जो राम रचि राखा’ यानी होता वही है जो विधाता ने लिख दिया है। कर्मठता एवं कार्यकुशलता की दृष्टि से देखा जाये तो महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। महिलाएं पुरुषों से ज्यादा सहनशील होती हैं एवं विपरीत परिस्थितियों में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संतुलित तरीके से काम कर लेती हैं।
हमारे धर्म शास्त्रों में भी महिलाओं को ही अधिक शक्तिशाली माना गया है। माता दुर्गा, माता लक्ष्मी, माता सरस्वती, माता अन्नपूर्णा, माता पार्वती आदि सृष्टि का मूल आधार हैं। महिलाएं हर एक मान्यता के अनुसार अधिक कर्मठ, सर्वगुण संपन्न, सहनशील, संयमी, त्यागी, दूरदर्शी, परिवार के प्रति समर्पण भाव, नियमित और अधिक सभ्य होती हैं। यदि ये न हों तो सृष्टि का संचालन ही संभव नहीं है। वैसे भी सृष्टि के ठीक एवं उचित तरीके से संचालन के लिए महिला एवं पुरुष दोनों की समान रूप से आवश्यकता है। ऐसे में किसी का भी प्रभुत्व ज्यादा बढ़ेगा तो संतुलन बिगड़ेगा ही।
जिन लोगों को यह लगता है कि लड़कियों की शादी में काफी पैसा खर्च होता है तो उन्हें सिर्फ यह समझने की आवश्यकता है कि लड़कियां यदि पढ़-लिख कर योग्य बन जायेंगी तो उनकी शादी के लिए बहुत ज्यादा न तो भाग-दौड़ की आवश्यकता होगी और न ही खर्च की। इससे भी बड़ी बात यह है कि समाज में यदि कोई बुराई है तो उसके खिलाफ सभी को मिलकर आवाज उठानी होगी और उसे समाप्त करना होगा।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि अब महिलाओं को ‘अबला नहीं बल्कि सबला’ के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है। इससे बड़ी बात यह है कि जिस मामले में कमी पुरुष की है, उस कमी को पुरुष को स्वीकार करना ही होगा और उस काम के लिए महिला को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति को सिरे से खारिज करना ही होगा। धार्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के हित में प्रखर आवाज के साथ-साथ एक समग्र क्रांतिकारी आंदोलन चलाया जाये जिससे दकियानूसी विचारों पर कुठाराघात कर ऐसी सोच को बदला जा सके कि पुरुष के न जन्मने की स्थिति में महिला ही दोषी होती है। इस पर कुठाराघात करना ही होगा। इसी में राष्ट्र एवं समाज का उज्जवल भविष्य छिपा हुआ है।
– सिम्मी जैन
दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा,
पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली,
पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।