अजय चौहान || राजधानी दिल्ली में स्थित विष्णु स्तंभ, यानी आज जिसे कुतुबमीनार के नाम से जाना जाता है उसके परिसर में खड़ा लौह स्तंभ लगभग 6 हजार किलो वजनी है और कहा जाता है कि यह स्तंभ 98 प्रतीशत लौहे से बना होने के बावजूद 1600 वर्षों से बिना जंग लगे खुले आसमान के नीचे खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगा, और यही बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। सैकड़ों धातु-विज्ञानियों ने कई बार इस पर अपने-अपने शोध किए और इसके जंग न लगने के पीछे अपने-अपने तर्क भी दिए।
आई. आई. टी. कानपुर के विशेषज्ञ बालासुब्रमानियम और उनकी टीम का शोध भी उनमें से एक था। उनकी शोध में पाया गया कि जंग से या किसी भी अन्य प्रकार के नुकसान से बचाने के लिए इस लौह स्तंभ के ऊपर मिसाविट नाम के रसायन की पतली-सी परत चढ़ाई गयी होगी, जो लौह तत्व, आॅक्सीजन और हाइड्रोजन के मिश्रण से बनाई जाती है। और यही कारण है कि इसमें आज तक जंग नहीं लगा।
डाॅक्टर बालासुब्रमन्यम कहते है कि वर्तमान समय जो लोहा उपयोग किया जाता है उसमें फास्फोरस की मात्रा 0.05 प्रतीशत होती है जबकि इस स्तंभ में फास्फोरस की मात्रा 0.10 प्रतीशत है और फास्फोरस की यही मात्रा इसको गलने से बचाती है।
इससे पहले, एक अंग्रेजी पुरातत्वविद् राॅबर्ट हैडफ़ील्ड ने भी सन् 1912 में इस लौह स्तंभ की धातु का विश्लेषण किया था। राॅबर्ट हैडफ़ील्ड को भी आश्चर्य हुआ कि आमतौर पर इस्पात को किसी निश्चित आकार में ढालने के लिए 1300-1400 डिग्री सेंटीग्रेट तक के तापमान की आवश्यकता होती है। लेकिन जो इस्पात इस स्तंभ में प्रयोग किया गया है उस आइरन को गलने के लिए 2,000 डिग्री सेंटीग्रेट से भी अधिक तापमान की आवशयक्ता होती है। और आश्चर्य तो यह है कि 1600 साल पहले अगर आज की तरह की उच्च ताप भट्ठियां नहीं थी तो ये कैसे ढाला गया?
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व मुख्य और विख्यात पुरातत्वविद् डाॅ. ब्रजवासी लाल ने सन 1961 में इस पर विस्तृत शोध किया था। अपने शोध के बाद उन्होंने कहा कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के लगभग 20-20 या 30-30 किलो के टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। डाॅक्टर लाल के अनुसार, 1600 साल पहले गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि इस पूरे स्तंभ में एक भी जोड़ दिखाई नहीं देता। और क्योंकि इसको बनाने वाले कारीगर बहुत कुशल रहे होंगे इसलिए इसमें वक्त भी ज्यादा ही लगा होगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार लगभग 98 प्रतिशत शुद्ध इस्पात से बने हुए इस लौह स्तंभ में फास्फोरस की मात्रा अधिक और सल्फर तथा मैंगनीज की मात्रा कम है। लेकिन, इस स्तंभ के प्रसिद्ध होने की वजह सिर्फ यही नहीं बल्कि कुछ और भी हैं। सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी इसमें जंग न लगने की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है।
लगभग 6 हजार किलो वजनी इस स्तंभ की उँचाई 7.21 मीटर यानी 23 फुट 8 इंच है और यह 1.12 मीटर यानी 3 फुट 8 इंच जमीन के अंदर गड़ा हुआ है। इसके आधार का व्यास 17 इंच है जबकि ऊपर को जाते हुए यह पतला होता जाता है और इसके ऊपर का व्यास 12 इंच है।
इस पवित्र लौह स्तंभ का एक भाग थोड़ा-सा उखड़ा और दबा हुआ है जिसको देखकर लगता है कि किसी तोप द्वारा इसे बिलकुल पास से उड़ाने की कोशिश की गई है। हालांकि इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि किसने इस पर तोप चलवाई थी। लेकिन ज्यादातर इतिहासकारों का यही मानना है कि नादिर शाह ने सन 1739 में दिल्ली पर अपने हमलों के दौरान ही इस पर तोप चलाने का आदेश दिया था।
नादिर शाह को जब इस बात का पता चला कि यह स्तंभ किसी हिंदु राजा से संबंधित है और हिंदू इसको पवित्र मानते हैं तो उसने फौरन इसे तोप से उड़ाने का आदेश दे दिया। लेकिन, तोप का गोला चलने पर स्तंभ पर तो सिर्फ खरोंच ही आई, मगर तोप का वह गोला इस स्तंभ से टकराकर पास ही की मस्जिद के एक हिस्से पर जा लगा और उस मस्जिद को भारी नुकसान पहुँचा जिसके बाद नादिर शाह ने स्तंभ को उड़ाने का इरादा बदल दिया। इसके अलावा सन् 1997 में कुछ शरारती लोगों द्वारा इस पवित्र स्तंभ को नुकसान पहुँचाने के बाद से इसके चारों तरफ लौहे की बाड़ लगा दी गई है।
इतिहासकारों का मानना है कि इस लौह स्तंभ को भारत के उस प्राचीन विज्ञान की झलक के रूप में देखा जाना चाहिए जिसको आज भी पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल समझा जाता है। यह लौह स्तंभ इतिहासकारों और वैज्ञानिकों के लिए किसी रहस्य से कम नहीं है।