अजय सिंह चौहान || हिंदू धर्म के सबसे पवित्र मंदिरों और धर्म स्थलों में से एक है माता हिंगलाज देवी का मंदिर। धर्म ग्रंथों के अनुसार यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। लेकिन हिंदू धर्म के लिए यह बहुत ही बड़ा दूर्भाग्य है कि वे यहां दर्शन करने नहीं जा सकते। और जाहिर है कि अगर वहां जाना हो तो पहले पाकिस्तान जाना होगा। तो इसका मतलब यह हुआ कि हिंगलाज माता के उस पवित्र शक्तिपीठ के दर्शनों के लिए श्रद्धालु पाकिस्तान पर निर्भर हैं। और अगर जाना भी हो तो भारत से कुछ गिने-चुने हिंदू तीर्थयात्रियों को ही पाकिस्तान का वीजा मिल पाता है।
हिंगलाज देवी का यह मंदिर इस समय भारत से बाहर और पाकिस्तान अधिकृत बलूचिस्तान की दुर्गम पहाड़ियों में स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को लगभग 30 किलोमीटर लंबे इस पैदल मार्ग में बहुत सी कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। क्योंकि मंदिर तक पहुंचने के लिए कोई भी सड़क व्यवस्था नहीं है।
यह मंदिर थरपारकर क्षेत्र से लगा हुआ है और यहां ज्यादातर श्रद्धालु थरपारकर क्षेत्र से ही आते हैं, क्योंकि वहां पर बलुचिस्तान और पाकिस्तान की सबसे ज्यादा हिंदू आबादी रहती है।
इस सिद्ध शक्तिपीठ मंदिर तक जाने के लिए श्रद्धालुओं के पास दो रास्तों का विकल्प होता है। जिसमें से एक रास्ता ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों से होकर जाता है तो दूसरा थरपारकर या थार रेगिस्तान से होकर जाता है। पहाड़ी रास्ता जितना मुश्किलों से भरा है उससे कहीं अधिक रेगिस्तान का रास्ता भी खतरनाक और थका देने वाला है।
यहां दोनों ही रास्तों पर दूर-दूर तक आबादी का कोई नामो-निशान तक नजर नहीं आता। एक रास्ते में कई छोटे-बड़े बरसाती नाले मिलते हैं तो दूसरे रास्ते में रेत ही रेत। इस यात्रा के लिए पाकिस्तान सरकार की तरफ से सुविधाओं का तो कोई नामोनिशान तक नहीं है।
लगभग 30 किलोमीटर लंबे पहाड़ी यात्रा मार्ग में जाने पर माता काली का एक मंदिर पड़ता है। इस मंदिर का इतिहास बताता है कि यह लगभग 2,000 वर्ष पुराना है। इस मंदिर से थोड़ा आगे चलने के बाद रेतीले पहाड़ों के बीच माता हिंगलाज देवी की गुफा आती है जो प्रमुख मंदिर है। इस मंदिर में दाखिल होने के लिए पत्थर की सीढियां चढ़नी पड़ती हैं। इसमें माता हिंगलाज देवी की प्रतिमा साक्षात माता वैष्णो देवी का रूप हैं।
इस मंदिर में न तो कोई दरवाजा ही है और न ही कोई पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था है। यात्री गुफा के एक रास्ते से दाखिल होकर दूसरी ओर निकल जाते हैं।
इस मंदिर के को लेकर मान्यता है कि अपने पिता दक्ष द्वारा अपमानित होकर देवी सती ने आत्मदाह कर लिया था। क्रोध में आकर भगवान शिव ने वैराग्य धारण कर लिया और माता सती के उस शव को अपने कंधे पर उठाए ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने रहे। उनके वैराग्य धारण कर लेने से सृष्टि का संचालन बाधित हो रहा था इसलिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े कर दिए थे।
जहां-जहां सती के शव के अंग गिरे थे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई, जिनकी रक्षा आज भी स्वयं भगवान शिव अपने भैरव रूप में करते हैं। और पाकिस्तान अधिकृत बलूचिस्तान प्रांत के जिस क्षेत्र में आज हिंगलाज माता का मंदिर स्थापित है, वहां देवी सती का सिर आकर गिरा था। जबकि भगवान शिव भैरवलोचन या भीमलोचन के रूप में वहां प्रतिष्ठित हैं।
माता हिंगलाज मंदिर परिसर में श्रीगणेश, कालिका माता की प्रतिमा के अलावा ब्रह्मकुंड और तीरकुंड आदि प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि इस प्रसिद्ध मंदिर में माता के पूजन और दर्शन के लिए गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव जी, दादा मखान जैसे महान आध्यात्मिक संत भी आ चुके हैं। लोककथाओं के अनुसार भगवान श्री राम भी इस शक्तिपीठ के दर्शन कर चुके हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्रि ने यहां घोर तप किया था।
नवरात्रि के दौरान तो यहां पर नौ दिनों तक शक्ति की उपासना का विशेष आयोजन होता है। सिंध-कराची के सैकड़ों सिंधी श्रद्धालु यहां माता के दर्शन को आते हैं। माता की यह प्राचीन मूर्ति मानवनिर्मित नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से निर्मित यानी स्वयंभू मूर्ति मानी जाती है। मूर्ति पूरी तरह से सिंदूर से ढंकी हुई है।
हिंगलाज माता का यह मंदिर थरपारकर क्षेत्र में आता है जो पाकिस्तान अधिकृत बलुचिस्तान का सबसे पिछड़ा हुआ क्षेत्र है। पाकिस्तानी सरकार के आंकड़ों पर यदि गौर करें तो वे बताते हैं कि यहां हर साल लगभग 25 से 30 हजार श्रद्धालु हर साल दर्शन करने पहुंचते हैं। जिनमें सबसे अधिक संख्या पैदल श्रद्धालुओं की होती है।
हिंगलाज माता के इस मंदिर से जुड़े कुछ अन्य रोचक तथ्य –
- हिंगलाज माता के इस मंदिर का इतिहास महाभारत काल से भी पुराना है।
- हिंगलाज देवी को पांडवों और क्षत्रियों की कुलदेवी के रूप में भी जाना जाता है।
- इसे माता हिंगुल या हिंगुलाज शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है।
- जबकि भगवान शिव भैरवलोचन या भीमलोचन के रूप में वहां प्रतिष्ठित हैं।
- हिंगलाज माता के नाम से ही इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी का नाम हिंगोल नदी पड़ा है।
- हिंदुओं के लिए यह शक्तिपीठ है जबकि मुस्लिमों के लिए यह बीबी नानी का मंदिर है।
- स्थानीय आदिवासियों के लिए यह मंदिर नानी की हज के नाम से जाना जाता है।
- वे महिलाएं जो इस माता का दर्शन कर लेतीं हैं वे हाजियानी कहलातीं हैं।
- हर साल अप्रैल के महीने में यहां चार दिवसीय मेला भी लगता है।
- इस मेले में पाकिस्तान और बलुचिस्तान के लगभग हर कोने से हिन्दू और मुस्लिम यहां आते हैं।
- यहां हिंदू और मुस्लिम लगभग समान रूप से पूजा-अर्चना करते हैं।
- भारत और पाकिस्तान के बंटवारे से पहले यहां बारहों मास भक्तों की भीड़ लगी रहती थी।
- हिंगलाज माता का यह मंदिर एक गुफा में है। और यह गुफा एक प्राकृतिक गुफा है।
- इस गुफा में हिंगलाज माता की जो पवित्र मुर्ति है वह किसी कलाकार द्वारा दी गई आकृति नहीं बल्कि प्राकृतिक मुर्ति है।
- और यह साधारण-सी प्राकृतिक आकार वाली पवित्र मूर्ति सिंदूर से लिपटी हुई है।
- हिंगलाज शब्द की उत्पत्ति संभवतः संस्कृत के शब्द हिंगुला से है।
- संस्कृत में हिंगुला का अर्थ सिंदूर होता है।
- स्थानीय भाषा में हिंगलाज माता को कोट्टारी, कोट्टावी और कोट्टारिशा आदि नामों से भी जाना जाता है।
- यह मंदिर अरब सागर से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर है जबकि कराची से लगभग 250 किमी दूर है।