भारत सहित पूरे विश्व में व्यक्तिगत स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक तमाम तरह की समस्याएं देखने को मिल रही हैं और अधिकांश मामलों में लोग हताश-निराश एवं परेशान देखे जा रहे हैं। समस्याओं का प्रकार अलग-अलग जरूर हो सकता है किन्तु समस्याएं तो लोगों को परेशान कर ही रही हैं। अफगानिस्तान में जब हेलीकाॅप्टर से लटक कर जाते हुए लोगों को देखा तो बहुत से लोगों के मन में यह भाव आया कि क्या इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है?
आजकल इसी प्रकार के हालात यूक्रेन में देखे जा रहे हैं। लोग अपना घर-बार छोड़कर इधर से उधर भटकने के लिए विवश हो रहे हैं। विभिन्न कारणों से शरणार्थी बनकर जो लोग दूसरे देशों में शरण लेने के लिए विवश हो रहे हैं। तमाम देश उन्हें इसलिए भी शरण नहीं देना चाहते हैं कि जो लोग आज शरणार्थी हैं, कल वे शरण देने वालों के लिए ही समस्या बन सकते हैं यानी समस्याओं का अंत होता दिख नहीं रहा है।
हिन्दुस्तान में एक बहुत प्राचीन कहावत है कि यदि किसी को खड़े होने की जगह दे दी जाये तो वह बैठने की जुगाड़ बनाने लगता है, यदि बैठने की जगह मिल जाती है तो सोने की जगह की व्यवस्था में लग जाता है। यदि उसके सोने की व्यवस्था हो जाती है तो जिसने उसे खड़े होने के लिए जगह दी थी उसके लिए ही समस्या बन जाता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि समस्या दाल-रोटी और आवास की ही सिर्फ नहीं है बल्कि समस्या सोच एवं विचारों की है। हिन्दुस्तान के एक प्रांत कश्मीर की बात की जाये तो वहां से 5 लाख से अधिक हिन्दुओं को 32 साल पहले आतंक के साये में अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा था। कश्मीरी हिन्दुओं के वहां से भागने से भी समस्या दूर नहीं हुई, बल्कि आज समस्या इस बात की है कि कश्मीरी हिन्दुओं में दुबारा वहां जाने की हिम्मत न आये, उस प्रकार का खौफ बनाये रखना भी एक समस्या है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि समस्याओं का कोई ओर-छोर नहीं है। समस्या तो यहां तक है कि कोई खाने बिना मर रहा है तो कोई खा-खाकर परेशान है। इन परिस्थितियों में मुख्य प्रश्न यह पैदा होता है कि आखिर इन समस्याओं से कैसे निजात पाई जाये? यह भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि समस्या वही पैदा करता है जो शक्तिशाली होता है। श्रीरामचरित माानस में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा भी है कि ‘समरथ को नहीं दोष गोसाईं’ यानी जो समर्थ होता है, उसका कोई दोष नहीं होता इसलिए भारत सहित पूरे विश्व में श्ािक्तशाली चाहे कोई व्यक्ति हो, समाज हो, समूह या राष्ट्र हो, उसका उपयोग मानवहित एवं शांति के लिए ही होना चाहिए।
वैसे भी देखा जाये तो पहलवान ही पहलवानी सिखा सकता है, ज्ञानी व्यक्ति ही ज्ञान की बात कर सकता है, दैवीय कृपा से परिपूर्ण व्यक्ति ही धर्म-अध्यात्म की बात सिखा सकता है। जादूगर ही जादू सिखा सकता है, कमजोर व्यक्ति तो डर, हताशा एवं निराशा की ही बात कर सकता है। इस प्रकार देखा जाये तो शक्तिशाली व्यक्ति ही शांति की बात कर सकता है। शक्तियों की यदि बात की जाये तो वे भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। कोई धन से संपन्न होता है, कोई तन-मन से संपन्न होता है तो किसी के पास जन समूह की ताकत होती है, तो किसी के पास धर्म-अध्यात्म की ताकत हो सकती है।
कहने का आशय इस बात से है कि ताकत किसी भी प्रकार की हो और किसी के पास हो, उसका उपयोग यदि मानवहित एवं शांति के लिए हो तो देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में व्याप्त तमाम समस्याओं का समाधान हो सकता है और लोगों के जीवन में तकलीफों-परेशानियों का नामो-निशान न हो। उदाहरण के तौर पर भारत में यदि सम्राट अशोक को लिया जाये तो उन्होंने युद्धों एवं तलवार के दम पर अपना बहुत बड़ा साम्राज्य स्थापित किया किन्तु एक समय ऐसा आया जब उन्हें यह आभास हुआ कि खून की नदियां बहाकर यह साम्राज्य किस काम का? तलवार की धार पर खड़े किये गये साम्राज्य से उन्हें घृणा होने लगी,तब बौद्ध धर्म स्वीकार कर पूरे विश्व में शांति के प्रयास में लग गये।
सम्राट अशोक ने विश्व शांति के लिए स्वयं तो प्रयास किया ही, साथ ही उन्होंने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी शांति संदेश के लिए विभिन्न देशों में भेजा। कुल मिलाकर यहां कहने का आशय यही है कि विभिन्न प्रकार की शक्तियों से परिपूर्ण देश एवं प्रभावी लोग यदि अपने प्रभाव का इस्तेमाल शांति के लिए करें तो पूरे विश्व में शांति स्थापित हो सकती है, बशर्ते इसके लिए ईमानदारी से प्रयास होना चाहिए।
आज यूक्रेन युद्ध की आग में झुलस रहा है। उसका सीधा-सा कारण है कि रूस उससे बहुत शक्तिशाली है। ऐसी स्थिति में यूक्रेन के चाहने से शांति की स्थापना नहीं हो सकती है। शांति की स्थापना तब तक नहीं हो सकती जब तक रूस नहीं चाहेगा। पूरी दुनिया को यह बात मालूम है कि अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसी महाशक्तियां आपस में एक दूसरे को लड़ाकर अपने को और अधिक मजबूत बनाने का काम करती हैं। जब दो देश आपस में लड़ेंगे, तभी महाशक्तियों के हथियार बिकेंगे और उनका अर्थतंत्र मजबूत होगा। दूसरे देशों को लगता है कि महाशक्तियां भी आपस में बंटी हुई हैं किन्तु यह भी अपने आप में सत्य है कि एक महाशक्ति दूसरी महाशक्ति के खिलाफ जल्दी खड़ी नहीं होती है। विरोध में सिर्फ खड़ा होने का नाटक करती हैं।
कहने का आशय यही है कि महाशक्तियां अपना व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़कर त्याग-तपस्या के रास्ते पर आगे बढ़कर जब तक शांति के लिए प्रयास नहीं करेंगी तब तक शांति कैसे स्थापित हो सकती है यानी कि शक्ति संपन्न लोगों को ही त्याग-तपस्या का भाव रखकर आगे बढ़ना होगा। भारत में आजादी के आंदोलन से लेकर चिपको आंदोलन सहित तमाम आंदोलनों की सफलता अहिंसा के रास्ते पर ही चलकर संभव हो सकी है। मात्र हिंसा के बल पर चलने वाला आंदोलन लंबे समय तक कारगर साबित नहीं हो सका है। द्वापर युग में पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य एवं दानवीर कर्ण जैसे योद्धा यदि अपनी शक्ति का उपयोग समय रहते किये होते तो शायद महाभारत का युद्ध होता ही नहीं क्योंकि शांति वही स्थापित कर सकता है जो शक्ति संपन्न हो।
त्रेता युग में यदि देखा जाये तो भगवान श्रीराम ने रावण जैसे अभिमानी राजा का अंत किया, बानरराज बाली जैसे योद्धा का बध किया, साधु-संन्यासियों को मार कर उनकी हड्डियों का ढेर लगाने वाले अनगिनत राक्षसों का वध कर शांति की स्थापना की। ऐसा वे सिर्फ इसलिए कर सके कि वे स्वयं त्याग-तपस्या के मार्ग पर चले थे। उनके मन में सिर्फ मानव कल्याण की भावना थी। त्याग-तपस्या के बल पर ही उन्होंने सबका दिल एवं विश्वास जीता।
महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला, मदर टेरेसा, आचार्य विनोबा भावे, पं. मदन मोहन मालवीय, पं. दीन दयाल उपाध्याय, दलाई लामा जैसी आदि विभूतियों ने अहिंसा के रास्ते पर ही चलकर वैश्विक स्तर पर व्यापक तमाम समस्याओं के समाधान की बात कही है और इन लोगों ने अहिंसा के रास्ते पर चलकर दिखाया भी है। गुरू नानक देव, संत कबीर, देवरहा बाबा, आचार्य विद्या सागर जी महाराज जैसी महान दैवीय शक्तियों ने भी समाज को यही संदेश दिया है कि त्याग-तपस्या के रास्ते पर ही चलकर शांति के रास्ते पर बढ़ा जा सकता है।
शक्ति एवं साधन संपन्नता की दृष्टि से देखा जाये तो भारत को सोने की चिड़िया यूं ही नहीं कहा जाता था। उस समय के भारत की बात की जाए तो ज्ञान-विज्ञान एवं आचार-विचार में सर्वोच्च था। भारत के जन-जन में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना विद्यमान थी यानी भारत के लोग पूरी वसुधा यानी पृथ्वी को अपना परिवार मानते थे।
आज भी भारत के मंदिरों में जयघोष होता है तो सिर्फ अपने परिवार एवं अपने ही राष्ट्र के कल्याण के लिए घोष नहीं किया जाता है, बल्कि विश्व कल्याण के लिए जय घोष किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत में संयुक्त परिवारों की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है। संयुक्त परिवारों की महान परंपरा भारत में इसलिए खूब फली-फूली कि घर का मुखिया परिवार में शक्तिशाली होता तो था किन्तु परिवार में त्याग-तपस्या की भावना सबसे अधिक उसी में ही होती थी। घर का मुखिया यदि अपने लिए धन का संचय करने लगे तो न तो उसकी कोई बात मानेगा, न ही घर-परिवार में सुख-शांति स्थापित हो पायेगी।
इस दृष्टि से यदि आज की वैश्विक परिस्थितियों की बात की जाये तो अधिकांश शक्तिशाली लोगों एवं देशों में त्याग-तपस्या की भावना नहीं के बराबर है। आज महाशक्तियां शांति के लिए जो कुछ भी कर या दिखा रही हैं, वह सब महज दिखावटी है। महाशक्तियां पूरी दुनिया को हथियारों के निरस्त्रीकरण के लिए प्रेरित तो करती हैं किन्तु वह फार्मूला अपने ऊपर लागू नहीं करती हैं। शायद इसी को कहते हैं, हाथी के दांत खाने के और होते हैं, दिखाने के और।
आधुनिक भारत में जैन मुनि आचार्य विद्या सागर जी महाराज ने जिस प्रकार आगे बढ़कर राष्ट्र एवं समाज को दिशा देने का काम किया है, उसका अनुकरण कर अन्य लोगों को भी समाज कल्याण के काम में आगे बढ़ना चाहिए। ईश्वर की कृपा और अपनी तपस्या के बदौलत प्राप्त हुई दैवीय शक्तियों के द्वारा राष्ट्र एवं समाज के कल्याण में तो वे लगे ही हैं, साथ ही साथ आचार्य जी की कृपा से चार हजार बेड का अस्पताल भी बना है, जिसका लाभ आम जनता को मिल भी रहा है। इसके अतिरिक्त 16-17 जिलों के कैदियों को आपराधिक मानसिकता से परिवर्तित कर विभिन्न प्रकार के कौशल सिखाने का काम उनकी कृपा से किया गया है जिससे वे अपनी अजीविका स्वयं चला सकें।
आचार्य विद्या सागर महाराज जी का उदाहरण देना यहां इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उनके पास दैवीय रूप से भी बहुत शक्ति है और जन-समूह की ताकत बहुत बड़ी है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने यह शक्ति त्याग, तपस्या, नियम, अनुशासन एवं अनुशरण से ही अर्जित की है। इस ताकत का उपयोग महाराज जी ने अपने लिए कभी नहीं किया बल्कि इसका उपयोग उन्होंने मानवहित एवं विश्व कल्याण के लिए किया। आज की परिस्थितियों में तो भगवान महावीर के दोनों सिद्धांतों- ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो’ की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। भगवान महावीर जी के दोनों सिद्धांतों का उपयोग यदि विश्व शांति के लिए किया जाये तो वैश्विक स्तर पर न सिर्फ शांति की स्थापना होगी बल्कि देश एवं दुनिया में व्याप्त तमाम समस्याओं से निजात भी मिलेगी।
कुल मिलाकर मेरा आशय इस बात से है कि शक्ति चाहे धन की हो, मन की हो, जन की हो, धर्म-अध्यात्म की हो या फिर दैवीय हो, उसका उपयोग मात्र मानवता की रक्षा एवं विश्व शांति के लिए होना चाहिए, इसी में मानव जाति एवं समस्त विश्व का कल्याण है। इसके अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)