अजय सिंह चौहान || अगर बात करें कि दाल-बाटी कैसे बनाया जाता है तो यह विधि तो आपको गुगल पर आसानी से मिल ही जायेगी। लेकिन, इस व्यंजन के इतिहास और इसके वर्तमान के बारे में बात करने पर मालूम होता है कि भले ही शुरूआत में यह योद्धाओं, मेहनतकश और गरीबों का भोजन रहा हो लेकिन अब तो यह साधारण और आम आदमी के लिए एक प्रकार से शाही और पारंपरिक व्यंजन बन चुका है।
दरअसल, दाल-बाटी के विषय में आम लोगों को मात्र इतना ही ज्ञान है कि यह पकवान राजस्थान का सबसे मशहूर पकवान है। लेकिन, अगर इसके विषय में और भी अधिक जानकारियां जुटाई जायें तो मालूम होता है कि यह पकवान न सिर्फ राजस्थान में बल्कि संपूर्ण मालव सहित, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों का भी यह सबसे प्रिय भोजन है।
आज भी किसी भी आम आदमी या किसी भी मध्यम वर्गीय परिवार में जब कभी छुट्टी का माहौल हो, या फिर घर में मेहमानों की चहल-पहल हो, शादी-ब्याह का समय हो, या कोई अन्य अवसर हो तो बिना सोचे समझे हर कोई एक ही बात सोचता और कहता है चलो दाल-बाटी बना लेते हैं। ऐसे में ना तो किसी हलवाई की आवश्यकता है और ना ही किसी खास रसोइये की। मेहमान हो या दोस्त, सभी मिलजुल कर शुरू हो जाते हैं। और फिर देखते ही देखते बन कर तैयार हो जाता है दाल-बाटी का सबसे स्वादिष्ट और शाही पकवान।
अब अगर हम बात करें दाल-बाटी के बाजारवाद की तो पता चलता है कि अब तो यह इतना प्रसिद्द पकवान हो चुका है कि इसका स्वाद लेने वालों में देश के ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटक और विशेष अतिथि भी शामिल हो चुके हैं और पांच सितारा होटलों और रेस्टारेंट्स में भी इसकी मांग करने लगते हैं।
भले ही बाटी बनने की शुरुआत पेट भरने के लिए हुई होगी लेकिन आज यही पकवान दुनिया में बड़े प्यार से खाया जा रहा है.मालवा और राजस्थान में इसे बाटी कहा जाता है जबकि, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में इसे लिट्टी के नाम से पहचाना जाता है। इसमें मात्र शब्दों का फेर कह लो या फिर बनाने का नया तरीका, लेकिन है तो बाटी ही।
यह तो हुई इसकी विशेषता, लेकिन सवाल यह है कि दाल-बाटी की शुरूआत कब और कैसे हुई? और किसने इसको सबसे पहले पकाया होगा? तो इतिहास के पन्नों में जाकर देखने से पता चलता है कि आज से करीब 1300 वर्ष पहले यानी 8वीं शताब्दी में सबसे पहले बप्पा रावल के सैनिकों के हाथों इसे तैयार करने का उल्लेख मिलता है।
दरअसल बाटी बनने की शुरुआत तब हुई थी जब बप्पा रावल के सैनिक एक छावनी में रह कर युद्ध के लिए तैयारी कर रहे थे। उस दौर में युद्ध की स्थिति में हजारों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबंध करना अक्सर चुनौतीपूर्ण काम होता था, ऐसे में कई बार तो सैनिक भूखे भी रह जाते थे। ऐसे ही एक बार कुछ सैनिकों ने सुबह रोटी के लिए आटा तो गूंथ लिया, लेकिन जब रोटी बनाने से पहले उनके सामने अचानक युद्ध की घड़ी आ गई तो वे सैनिक उस आटे की लोइयों को रेगिस्तान की तपती रेत पर छोड़कर युद्धभूमि में चले गए।
और जब शाम को वे अपने शिविरों में लौटे तो उन्होंने देखा कि आटे की वही लोइयां गर्म रेत में दब चुकी थीं। उन सैनिकों ने जब उन्हीं लोइयों को रेत से बाहर निकाला तो देखा कि दिनभर सूर्य और रेत की तपन में रहने के कारण वे पूरी तरह सिंकी हुई और पकी हुई लग रही थीं। थके-मांदे और भूखे सैनिकों में से किसी ने उस सिंकी हुई लोई को खा कर देखा तो उसे वह पकी हुई और स्वादिष्ट लगी।
अब तो उस सैनिक की खुशी का ठीकाना नहीं रहा। उसने तुरंत ही यह बात अपने अन्य साथियों को भी बताई और उन्होंने भी उसे आपस में बांट कर खाया। और क्योंकि उन सैनिकों ने इसे बांट कर खाया था इसलिए इस पकवान को वहीं का वहीं नाम भी मिल गया ‘बाटी’। बस यहीं से बाटी का जन्म हुआ, या फिर यूं कहें कि बाटी की शुरूआत भी हुई।
इसके बाद तो हर रोज सुबह सैनिक आटे की गोलियां बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर आटे की उन्हीं पकी हुई गोलियों को चटनी के साथ, अचार के साथ या फिर रणभूमि में मौजूद ऊंटनियों और बकरियों के दूध से बने दही के साथ खाने लगे। धीरे-धीरे यह भोजन उन सैनिकों के लिए बाटी एक आम दिनों के भोजन में शामिल हो चुका था।
लेकिन, यहां एक समस्या यह भी आ रही थी कि अगर यही बाटी दूसरे भोजन की तरह तुरंत ही तैयार करनी होती थी फिलहाल तो यह संभव नहीं था। ऐसे में किसी सैनिक ने इसका भी हल निकाल लिया और आटे की उन गोलियों को गोबर के कंडो की आग पर सेंक कर पका कर वह कमी भी पूरी कर ली। जैसे की आज के दौर में पकाया जाता है।
जल्द ही ‘बाटी’ युद्ध के दौरान खाया जाने वाला सबसे सरल और सबसे पसंदीदा ऐसा भोजन बन गया जिससे उन्हें ऊर्जा भी मिलती थी और समय भी बचता था।
इसके अलावा युद्ध के समय सबसे आसानी से पकाया जाने वाला और सैनिकों के लिए इसे साथ में रखने में भी सबसे आसान भोजन बन गया था। बाटी की इन सबसे अलग विशेषताओं के कारण इसे आगे चल कर आधिकारिक भोजन के रूप में भी मान लिया गया।
बाटी का विशेष आकार ही इतिहास के उस दौर के सैनिकों के बीच इसकी खपत का खास कारण बना और प्रसिद्ध भी हुआ। राजस्थान के कई गावों में तो आज भी गर्मियों के दिनों में गर्म रेत में बाटियां पकाई जाती हैं जैसे बप्पा राव जी के दौर में पकाई जाती थीं।
आज भले ही दाल-बाटी को एक खास और शाही व्यंजन के रूप में पहचाना जाता है लेकिन इसके जन्म के शुरूआती दिनों में इसे दाल के साथ खाने का कोई खास प्रचलन नहीं था। जबकि, आवश्यकता, सहुलियत और स्वाद के अनुसार धीरे-धीरे इसके साथ विशेष कर अरहर यानी तुवर की दाल और चटनी का भी प्रयोग किया जाने लगा।
धीरे-धीरे बाटी का आधुनिकीकरण होता गया और देखते-ही देखते यह राजसी व्यंजनों में भी शामिल होती गई जहां इसे तुवर यानी अरहर की दाल के साथ सबसे अधिक खाने का प्रचलन इसलिए भी शुरू हो गया, क्योंकि अरहर की दाल के साथ खाने पर बाटी सबसे स्वादिष्ट लगने लगी।
हालांकि, इसके कुछ ही सालों बाद इसका एक और नया अवतार भी हुआ जिसमें बाटी से बाफले भी बनाये जाने लगे और फिर बाफले से चूरमा भी बन गया और चूरमें के लड्डू भी बनाये जाने लगे और देसी घी के साथ खाया जाने लगा। अब तक तो यह पकवान एक प्रकार से शाही व्यंजन का रूप ले चुका था, जिसमें यह मात्र दाल और बाटी ही न रहकर दाल बाफले, चूरमा और फिर लड्डूओं के रूप में भी प्रसिद्ध हो गया।
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बाटी के इतने रूप और स्वाद मात्र कुछ ही समय में एक प्रकार से प्रतिष्ठा के प्रतिक बन चुके थे। लेकिन फिर भी बाटी तो बाटी ही रही। यानी लड़ाकों, मेहनतकश लोगों और आम आदमी के लिए तो बाटी ही सबसे अच्छा और सबसे खास व्यंजन रहा और आज भी है। तभी तो आज भी जब मालवा में रहने वाले कोई भी परिवार किसी दूसरे शहर या गांव की यात्रा पर निकलते हैं तो वे अपने साथ जरूरत के अनुसार आटा और एक थाली लेकर ही निकल लेते हैं।
जहां चाहा वहां डेरा डाला, थाली में आटा गुंथा और सूखे कंडे या सूखा गोबर इकट्ठा करके उसकी आग जलाई और उसमें गेंद के आकार की आटे की गोलियां बनाकर सेंक ली, बस यही है बाटी। फिर चाहे इसे आप सूखा खायें या फिर हरी मिर्च या चटनी के साथ या अरहर की दाल के साथ, या फिर आप इसे किसी भी अच्छी से अच्छी सब्जी के साथ। लेकिन, गरीब का पेट तो बाटी से ही भरता है।