अजय सिंह चौहान || सतपुड़ा पर्वत श्रंखलाओं की हरी भरी वादियों में मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले में स्थित राजपुर तहसील के नागलवाड़ी गांव में नागदेवता को समर्पित सैकड़ों साल पूराने और प्रसिद्ध मंदिर श्री भीलट देव शिखरधाम की महिमा स्थानीय लोगों में ही थी नहीं बल्कि देश और दुनियाभर के लोगों के लिए अपरंपार है। सैकड़ों वर्षों से यह तीर्थ शिखरधाम के नाम से प्रसिद्ध है। हर साल यहां नागपंचमी के विशेष अवसर पर लाखों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं।
नागलवाड़ी के इस भीलट देव जी के मंदिर में सावन की नागपंचमी पर श्री भीलट देव संस्थान की ओर से गांव और जिला प्रशासन के सहयोग से यहां श्री भीलट देव का 5 दिवसीय मेला भी आयोजित किया जाता है जिसमें प्रतिदिन कई विशेष धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। इस विशेष अवसर पर हर साल दूर-दूर से लगभग पांच लाख से भी ज्यादा लोग भगवान के दर्शन करने और मेले में शामिल होने के लिए आते हैं।
बाबा भीलट देव नाम से प्रसिद्ध और नागदेवता को समर्पित सैकड़ों साल पूराने इस मंदिर और इसमें विराजित भीलट देव के विषय में कई प्रकार के किस्से और कहानियां प्रचलित हैं। यहां प्रचलित मान्यताओं और किंवदंतियों के आधार पर बाबा भीलट देव का जन्म आज से लगभग 800 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के हरदा जिले के रोलगांव पाटन में हुआ था।
उनकी माता का नाम मेंदाबाई व पिता का नाम रेव जी गवली था। भीलट देव के माता-पिता एक मध्यम वर्गिय परिवार से संबंध रखते थे और दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त माने जाते थे। शिव के परम भक्त होने के बाद भी इनके घर कोई संतान नहीं थी। ऐसे में उन्होंने सोचा कि शायद उनकी भक्ति में कहीं चूक हो गई होगी इसलिए उन्होंने और अधिक कठोर तपस्या की।
इतनी कठोर तपस्या और साधना से प्रसन्न होकर भोलेनाथ और माता पार्वती ने उन्हें वरदान के रूप में एक सुंदर बाल का आशीर्वाद दिया। माता-पिता ने प्यार से उस बालक का नाम भीलट रखा। लेकिन साथ ही माता मेंदाबाई व पिता रेव जी से यह भी वचन लिया कि हम लोग प्रतिदिन तुम्हारे घर पर भिक्षा मांगने आया करेंगे। और यदि किसी भी दिन आप लोगों ने हमें या इस बाालक को अनदेखा किया तो फिर हम इस बालक को अपने साथ ले जाएंगे। कहा जाता है कि भीलट देव ने बचपन से ही अपनी चमत्कारिक लीलाओं से परिवार व ग्रामवासियों को आश्चचर्यचकित कर दिया था।
किंवदंतियों के अनुसार, एक दिन भीलट देव के माता-पिता शिव-पार्वती को दिए अपने वचन को भूलकर भक्ति में लग गए। तभी भगवान शिव ने बालक को पालने में से उठाया और उसके स्थान पर अपने गले के नाग को वहां रख कर बालक को अपने साथ लेकर चले गए। इधर, पालने में अपने बालक भीलट देव को न पाकर उसके स्थान पर नाग देवता को देखकर भीलट देव के माता-पिता समझ गए कि हमसे भूल हो गई है। ऐसे में उन्होंने एक बार फिर से शिव-पार्वती की आराधना की। तब शिव-पार्वती ने कहा कि हमारे वचन अनुसार आप ने हमें पहचाना नहीं इसलिए अब हम खुद ही इस बालक की शिक्षा-दीक्षा करेंगे और उस पालने में हमने जो नाग छोड़ा है, उसकी पूजा अब तुम भीलट देव और नाग देव दोनों ही रूपों में करोगे। कहा जाता है कि तभी से यहां भीलट देव और नाग देव दोनों ही की पूजा एक साथ की जाने लगी है।
यहां प्रचलित एक अन्य दंतकथा के अनुसार भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले भगवान भैरवनाथ ने स्वयं पचमढ़ी के चैरागढ़ क्षेत्र में उस बालक भीलट देव का लालन-पालन किया। उन्हीं के मार्गदर्शन में शिक्षा-दीक्षा अर्जित कर तंत्र-मंत्र और युद्ध की समस्त कलाओं में दक्ष होकर भीलट देव ने भैरवनाथ के साथ मिलकर भगवान भोलेनाथ की इच्छा के नुसार अनुसार बंगाल क्षेत्र में स्थित कामख्या देवी मंदिर के आस-पास के घने जंगलों का रुख किया और वहां के कुछ खास जादूगरों से हूनर भी सीखे।
बंगाल में रहकर भीलट देव ने बंगाल की राजकुमारी राजल से विवाह भी किया और भगवान भोलेनाथ और पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त किया। तब जाकर भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती ने कहा कि अब तुम अपने माता-पिता के पास जाओ और वहां से नागलवाड़ी के पास सतपुड़ा शिखर चोटी पर अपना निवास बनाओ और लोगों का कल्याण करो। नागलवाड़ी में तुम सदैव भीलट नाग देवता के रूप में पूजे जाओगे। तभी से भीलट देव ने अपनी तपस्या स्थली और कर्मभूमि दोनों ही के लिए सतपुड़ा की इस इस ऊंची पहाड़ी के शिखर को चुना। कहा जाता है कि तभी से भीलट बाबा नागलवाड़ी से 4 किमी की दूरी पर सतपुड़ा के शिखर धाम पर मौजूद हैं।
उनकी तंत्र शिक्षा को लेकर भी कई किस्से और कहानियां प्रचलित हैं। मान्यता है कि अपनी तांत्रिक शक्तियों को आजमाने के लिए बाबा भीलट देव ने अपने गुरू भैरवनाथ जी के सहयोग से कई तांत्रिकों और ओझाओं को पराजित कर अपना लोहा मनवाया था।
अपने समय में भीलट देव ने अपनी कई प्रकार की चमत्कारी शक्तियों से इस क्षेत्र के जनमानस की सेवा की और आज भी उनके चमत्कार यहां देखे जाते हैं। सतपुड़ा की हरीभरी वादियों के शिखर पर स्थित बाबा भीलट देव के इस मंदिर में आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है। भीलट देव के श्रद्धालुओं और भक्तों में विशेषकर संतान के सुख की चाह रखने वाले दंपत्ति यहां बड़ी संख्या में पहुंचते हैं।
यह मंदिर धर्म और अध्यात्मक के लिहाज से ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। करीब 800 वर्ष पुराने आस्था और विश्वास के इस पवित्र मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु दर्शन और पूजन करने आते हैं। वर्ष 2004 में बन कर तैयार हुआ भीलट देव का यह नया मंदिर भव्य और मनमोहक है। इसमें लगे गुलाबी पत्थरों को तराश कर आकर्षक और नक्काशीदार बनाया गया है।
भीलट देव के इस मंदिर तक पहुंचने के लिए महाराष्ट्र के धुले-इंदौर-खंडवा-खरगोन से आसानी से नागलवाड़ी शिखर धाम आया जा सकता है। इसके अलावा गूगल मैप के जरिए भी भीलट देव की लोकेशन देखकर नागलवाड़ी शिखरधाम जाया जा सकता है।
मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में बड़वानी और खरगोन जिले की सीमा पर नागलवाड़ी में स्थित भीलटदेव का यह मंदिर इस क्षेत्र के लिए बहुत ही महत्व रखता है। इसलिए, हर दिशा से यहां पहुंचने वाले यात्रियों के लिए बारहों मास आवागमन के साधन उपलब्ध हैं।
खरगोन से इस मंदिर तक पहुंचने के लिए दूरी 50 किमी, सेगांव से 18 किमी, केली से 18 किमी और बड़वानी के जिला मुख्याल से लगभग 74 किमी है। इसके अलावा यह मंदिर मुंबई-आगरा रोड पर गवाघाटी से 18 किमी व सेंधवा से 27 किमी की दूरी पर स्थित है।
मंदिर तक पहुंचने वाले सभी रास्ते पक्के बने हुए हैं। जबकि सड़क मार्ग के बाद लगभग एक हजार मीटर की ऊंचाई वाली पहाड़ी पर बने इस विश्व प्रसिद्ध भीलट देव मंदिर तक पहुंचने के लिए जो रास्ता है अभी तक कच्चा ही है लेकिन जल्द ही उसको भी बनाने की योजना चल रही है।
इसके अलावा यहां का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन सलासनेर है जो यहां से लगभग 37 किलोमीटर दूर है।
यहां आने के लिए सबसे उत्तम समय अगस्त से मार्च के बीच का सबसे अच्छा कहा जा सकता है। बरसात के दिनों में सतपूड़ा के पहाड़ों की हरियाली और पहाड़ की ऊंचाई से बादलों को छू कर देखने का एक अपना ही अनुभव होता है।