आजकल अपने देश में जातीय जनगणना की चर्चा बहुत जोरों पर चल रही है। हर जाति के नेता अपनी जाति की बदौलत राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहते हैं। जातीय जनगणना के संदर्भ में एक विशेष पहल यह हुई है कि बिहार में जातीय जनगणना को लेकर वहां के विभिन्न दलों के ग्यारह प्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है। श्री नीतीश कुमार की मांग पर क्या होगा, यह तो भविष्य पर निर्भर है किन्तु एक प्रश्न यहां यह उठता है कि आखिर तमाम राजनीतिक लोग जातीय भावना को और अधिक बढ़ावा देने के लिए इतना अधिक उत्सुक क्यों हैं? यह तो जग जाहिर है कि जिन्हें जातीय आधार पर राजनीति, नौकरी एवं अन्य स्थानों पर किसी प्रकार का लाभ मिल रहा है तो वे किसी भी कीमत पर नहीं चाहेंगे कि जातियां देश से जायें।
जातियां क्यों बनीं, अस्तित्व में कैसे आईं, इनका क्या लाभ और नुकसान है, इस पर एक लंबी बहस हो सकती है किन्तु सृष्टि की उत्पत्ति के समय की बात की जाये तो सृष्टि के साथ जब मानव की उत्पत्ति हुई तो उस समय मानव केवल मानव था, उसका न तो कोई संप्रदाय था, न ही कोई जाति एवं धर्म।
सृष्टि की उत्पत्ति के बाद जैसे-जैसे सभ्यताओं का विकास होता गया, वैसे-वैसे मानव क्षेत्रीय एवं अन्य आधार पर कबीलों एवं गुटों में बंटता गया। उस समय प्राकृतिक आपदाओं, अन्य जरूरतों एवं जंगली जानवरों से बचने के लिए ऐसा जरूरी भी था। कालांतर में धीरे-धीरे कार्य के आधार पर मानव का वर्गीकरण होता गया। धीरे-धीरे यही वर्गीकरण जातियों के रूप में बढ़ता गया।
उस समय जरूरत के हिसाब से यह सब जरूरी एवं जायज था किन्तु मानव में कबीलों, गुटों एवं कार्यों के आधार पर अपने वर्ग का नेतृत्व करने की लालसा जगी तो वर्गीकरण का मामला और अधिक बढ़ता ही गया। धीरे-धीरे बात यहां तक आ गई कि लोगों का वर्गीकरण गोत्र तक आ पहुंचा। यह सब कब तक चलेगा और इसकी इंतहा कब होगी, इसके बारे में अभी स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है किन्तु जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए भारत में आजादी से काफी पहले से ही कार्य प्रारंभ हो चुका है। यह कार्य तब से किया जा रहा है, जब अंग्रेज जातियों के आधार पर हिन्दुस्तान में सदा के लिए शासन की उम्मीद लगाये बैठे थे किन्तु 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघ चालक श्रद्धेय डाॅ. केशवराव बलिराम हेडगेवार द्वारा जो बीज रोपा गया, वह आज वट वृक्ष बन चुका है।
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गौरतलब है कि 1925 में पूज्यनीय डाॅ. हेडगेवार जी ने विजयदशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, तब से लेकर आज तक संघ का कारवां निरंतर बढ़ता जा रहा है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां संघ का किसी न किसी रूप में कार्य न हो। आज तो स्थिति यह है कि देश के प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति भी संघ के स्वयंसेवक हैं। संघ की जब स्थापना हुई तो उस समय महत्वपूर्ण कार्य यह हुआ कि कोई भी स्वयंसेवक अपने नाम के आगे ‘सरनेम’ यानी जाति नहीं लिखेगा अर्थात किसी को यह पता ही न चले कि कौन किस जाति का है? जब किसी को किसी की जाति का ही पता नहीं चलेगा तो जाति के आधार पर न तो किसी का मूल्यांकन होगा और
न ही जातीय आधार पर किसी के प्रति ईष्र्या-द्वेष का वातावरण पैदा होगा किन्तु राजनीति तो राजनीति ही है। यहां तो जिन लोगों की राजनीति एवं अस्तित्व सिर्फ जाति के नाम पर ही टिका है और जाति के ही आधार पर सत्ता एवं आरक्षण का लाभ ले रहे हैं, इसके लाभ से वे क्यों वंचित होना चाहेंगे?
अतः, आज आवश्यकता इस बात की है कि यदि समाज से जाति नाम की संस्था को समाप्त करना है तो नाम के आगे ‘सरनेम’ हटाना ही होगा। यह काम चाहे लोग स्वतः कर लें या कानून के माध्यम से किया जाये। हालांकि, ‘सरनेम’ न लगाने के पक्ष-विपक्ष में तमाम तरह के तर्क दिये जा सकते हैं किन्तु सच्चाई यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यदि नाम के आगे ‘सरनेम’ न लगाने का निर्णय लिया है तो इसके पीछे डाॅ. हेडगेवार जी की बहुत ही दूरदर्शी एवं दूरगामी सोच रही होगी।
आज यह बात बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही है कि जो बात उन्होंने 1925 में सोची थी, आज भी कदम-कदम पर उसकी सार्थकता एवं उपयोगिता महसूस हो रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच, विचार एवं कार्य को देश के सभी दल एवं नागरिक आत्मसात कर लें तो शायद जाति के आधार पर जनगणना की नौबत ही नहीं आयेगी। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि नाम के आगे से ‘सरनेम’ यानी जाति हटाना समय की मांग है। इस दिशा में राष्ट्र एवं समाज को आगे बढ़ना चाहिए।
वैसे भी, भारत में करीब तीन हजार जातियां एवं उप-जातियां हैं। जनतांत्रिक स्रोतों एवं विकास योजनाओं का समायोजन इतनी बड़ी जातीय इकाइयों में कैसे संभव है? जातिगत गणना का सीधा सा अभिप्राय है कि प्रत्येक जाति की गणना। अभी तक आदिवासियों एवं अनुसूचित जातियों की गणना होती रही है। वैसे, आजादी से पहले देश में जातिगत जनगणना होती थी किन्तु 1931 के बाद देश में ऐसी गणना अभी तक नहीं हुई है। कुल मिलाकर कहने का सीधा सा आशय यह है कि जातियों के मकड़जाल से यदि देश को बाहर निकालना है तो जातिविहीन समाज की स्थापना करनी ही होगी और इसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि नाम के आगे ‘सरनेम’ न लगाया जाये। जहं तक मेरा व्यक्तिगत रूप से विचार है कि इस दिशा में देश को आगे बढ़ना चाहिए। निश्चित रूप से इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।
– हिमानी जैन