अजय सिंह चौहान || भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात में अरब सागर, यानी जिसका प्राचीन और पौराणिक नाम सिंधु सागर है उसके तट पर स्थित भगवान श्री द्वारिकाधीश का मंदिर जितना प्रसिद्ध है उतना ही इसके शिखर पर लहराता पवित्र ध्वज भी है। क्योंकि किसी भी मंदिर के शिखर पर लगा ध्वज न सिर्फ उसकी पहचान के रूप में होता है बल्कि उस संरचना के आध्यात्मिक महत्व को भी दर्शाता है।
गुजरात की द्वारिका नगरी में स्थित श्री द्वारिकाधीश जी का यह मंदिर भी अपने शिखर पर लहराते ध्वज के कारण संपूर्ण सनातन जगत में विशेष स्थान रखता है। इसके ध्वज की विशेषता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे प्रतिदिन पांच बार बदला जाता है, जिसमें सुबह से दौपहर तक तीन बार और संध्या के समय दो बार बदला जाता है। इसके अलावा इसकी विशेषता यह भी है कि प्रतिदिन पांचों बार बदली जाने वाली इसकी हर एक ध्वजा को 52 गज कपड़े से तैयार किया जाता है और हर एक ध्वजा पर सूर्य तथा चंद्रमा की छवियों को भी दर्शाया जाता है।
भगवान श्री द्वारिकाधीश का यह मंदिर करीब 250 फीट ऊँचा है, यानी आजकल की किसी भी 24 से 25 मंजिला इमारत के बराबर। मंदिर के इस विशाल एवं ऊंचे शिखर से भी करीब 25 फीट ऊंचा इसका ध्वजदंड लगाया जाता है जिसपर धर्म-ध्वजा को फहराया जाता है। ध्वजा की दिव्यता इतनी तेज है कि इसके दर्शन मंदिर से करीब 10 से 12 किमी. की दूरी से भी हो जाते हैं।
श्री द्वारिकाधीश मंदिर के शिखर पर ध्वज को बदलना मात्र एक नियमित प्रक्रिया ही नहीं बल्कि एक बड़े समारोह या उत्सव की तरह होता है और यह उत्सव भी ऐसा कि इसे प्रतिदिन पांचों बार मनाया जाता है। ऐसा उत्सव न तो संसार के अन्य किसी मत या पंथ में संभव है और न ही उनमें से किसी ने आज तक इसकी कल्पना भी की होगी।
क्योंकि, इसकी प्रत्येक ध्वजा अलग-अलग परिवारों के द्वारा बड़े ही लंबे इंतजार और मन्नतों के बाद अर्पित की जाती है। उन परिवारों को इसके लिए यहां कम से कम तीन से चार वर्षों तक का इंतजार करना होता है। और जब शिखर पर ध्वजा अर्पित करने की उनकी बारी आती है तो वे अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली मानते हैं और उस भाग्य को एक उत्सव का रंग देते हुए समस्त कुटुम्बजनों को इसमें आमंत्रित कर इस उत्सव को एक पारिवारिक समारोह में बदल देते हैं।
श्री द्वारिकाधीश मंदिर के शिखर पर ध्वज अर्पित करने वाले परिवार के सदस्य इसे एक समारोह की भांति ढोल-नगाड़े बजाते हुए पवित्र ध्वज को अपने सिर पर रख कर, नाचते-गाते हुए मंदिर में लाते हैं और उसे भगवान को अर्पित करने के पश्चात मंदिर के कुछ विशेष प्रशिक्षित ब्राम्हणों को सौंप देते हैं। वे ब्राम्हण उस ध्वजा को लेकर मंदिर के 250 फिट ऊंचे शिखर पर जाते हैं और ध्वजदंड में उसे लहरा देते हैं। इसके पश्चात, ध्वज अर्पित करने वाला वह परिवार विधि-विधान पूर्वक द्वारिकाधीश मंदिर में पूजा अर्चना करता है और मंदिर के ब्राम्हणों को भोग लगाता है।
श्री द्वारिकाधीश मंदिर के शिखर पर फहराये जाने वाले इस ध्वज के रंगों में काले रंग को छोड़ कर अन्य कोई भी एक या एक से अधिक रंग हो सकते हैं। उस ध्वज पर सूर्य तथा चन्द्रमा के चिन्ह भी अंकित होने अनिवार्य हैं। ध्वज को तैयार करने के लिए मंदिर के आस-पास ही में कुछ विशेष दर्जी होते हैं जिनसे इसको तैयार करवाया जा सकता है। यदि आप भी श्री द्वारिकाधीश मंदिर के शिखर पर ध्वजा फहराना चाहते हैं तो इसके लिए मदिर समिति से संपर्क करना होता है जहां से आपको बताया जायेगा कि इसके लिए आपका नंबर कितने वर्षों या महीनों के बाद आयेगा।
मंदिर के ध्वज में रंगों का जितन महत्व होता है उतना ही इसका आकार भी महत्व रखता है। श्री द्वारिकाधीश मंदिर के शिखर पर फहराये जाने वाले प्रत्येक ध्वज में 52 की संख्या का विशेष पौराणिक महत्व माना जाता है, इसलिए इसमें 52 छोटे-छोटे ध्वजों को जोड़ कर इसको 52 गज का आकार दिया जाता है। माना जाता है कि 52 की संख्या के द्वारा इसमें प्राचीन द्वारिका नगरी के 52 अधिकारियों तथा यादवों की 52 उपजातियों को महत्व दिया जाता है।
इसके अलावा, श्री द्वारिकाधीश मंदिर के शिखर पर फहराये जाने वाले प्रत्येक ध्वज में 52 की संख्या को लेकर एक मान्यता ये भी है कि यह संख्या उन 52 द्वारों को दर्शाती जो श्रीकृष्ण की प्राचीन द्वारिका नगरी में हुआ करते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि, उस प्राचीन द्वारिका का एक नाम ‘द्वारावती’ भी था। इसके अलावा कुछ लोग यह भी मानते हैं कि ध्वज के आकार में 52 की संख्या का अभिप्राय है कि इसमें 12 राशि चक्र, 27 नक्षत्र, 10 दिशाएँ, एक सूर्य, एक चन्द्रमा तथा एक श्रीकृष्ण, अर्थात कुल मिलाकर 52 की संख्या होती है।