अजय सिंह चौहान | मध्य प्रदेश के उत्तर मध्य में स्थित और विंध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं के बीच, आज का सागर जिला (District Sagar MP) और इसके आस-पास का यह संपूर्ण क्षेत्र आमतौर पर बुंदेलखंड के रूप में जाना जाता है। पुराने समय से या फिर यूं कहें कि प्राचीन काल से ही यह मध्य भारत का एक अति महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। हालांकि, इसके प्रारंभिक इतिहास की कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कुछ पौराणिक और ऐतिहासिक दस्तावेजों में आज के सागर जिले या इस सागर क्षेत्र से संबंधिक कई विवरण दर्ज हैं।
अगर हम आज के सागर जिले से जुड़े कुछ पौराणिक और ऐतिहासिक दस्तावेजों को आधार मानें तो उनके अनुसार प्रागैतिहासिक काल में यानी आज से कई हजार वर्ष पहले या फिर यूं कहें कि रामायण और महाभारत युग से भी बहुत पहले तक यह क्षेत्र गुहा मानव, यानी कि गुफाओं में रहने वाले मनुष्यों के समय और उस दौर की मानव सभ्यता का भी साक्षी है आज का यह सागर जिला। इसके अलावा, हमारे कई पौराणिक गं्रथों में ऐसे साक्ष्य और संकेत भी मिलते हैं कि इस जिले का भू-भाग रामायण और महाभारत काल में विदिशा और दशार्ण के जनपदों तक में भी शामिल था।
महाभारत युद्ध के बाद, और ईसा पूर्व छटवीं शताब्दी तक, यह संपूर्ण सागर जिला क्षेत्र उत्तर भारत के विस्तृत महाजनपदों में से एक, चेदि साम्राज्य का हिस्सा भी हुआ करता था। और उस दौर के चेदि साम्राज्य के विषय में कहा जाता है कि यह आज के बुंदेलखंड सहित यमुना के दक्षिण में स्थित चंबल नदी और केन नदियों तक फैला हुआ था।
हालांकि, चेदि साम्राज्य के बाद हमें यह भी संकेत मिलते हैं कि इसे पुलिंद देश में मिला लिया गया। उस समय पुलिंद देश में बुंदेलखंड का पश्चिमी भाग और सागर जिले के अधिकांश भाग शामिल थे। वर्तमान सागर जिला क्षेत्र के इतिहास से संबंधित कई जानकारियां हमें मिश्र से आए एक भूगोलवेत्ता और इतिहासकार यात्री, क्लाडियस टाॅलमी के ऐतिहासिक विवरणों में भी मिलता है। क्लाडियस टाॅलमी ने अपने विवरण में लिखा है कि ‘फुलिटों’ यानी पुलिंदौं का नगर ‘आगर’ यानी सागर था।
अगर हम सागर जिले के इतिहास की आधुनिकता में झांके तो पता चलता है कि गुप्त वंश के स्वर्णिम शासनकाल में भी इस क्षेत्र को खास तौर पर महत्व मिला हुआ था।
सम्राट समुद्रगुप्त के समय में आज का यह संपूर्ण सागर जिले का क्षेत्र एरण या फिर ऐरिकिण नगर के रूप में पढ़ने को मिलता है। यहां से प्राप्ज कई प्राचीन सिक्कों पर इसका नाम ऐरिकिण लिखा है। सागर से करीब 90 किमी दूर स्थित एरण नामक वह स्थान और उसके वे अवशेष आज भी यहां मौजूद हैं जिनमें उस दौर के वाराह, विष्णु तथा नरसिंह मन्दिर स्थित हैं।
कुछ जानकारों का मानना है कि एरण के सिक्कों पर नाग का चित्र है, इसलिए इस स्थान का नामकरण भी एराका यानी नाग से हुआ है। जबकि कुछ जानकार यहां यह भी तर्क देते हैं कि बीना और रेवता नदी के संगम पर स्थित इस एरण नामक स्थान का नाम यहां अत्यधिक मात्रा में उगने वाली ‘एराका’ नाम की घास के कारण ही रखा गया होगा।
नवमीं शताब्दी के आते-आते यहां कलचुरी और चंदेल राजवंशों का अधिकार हो चुका था जो करीब-करीब 12वी सदी तक चला। हालांकि, इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि यहां कुछ समय तक परमारों का शासन रहा, लेकिन, वह इतना प्रभाव नहीं छोड़ पाया। जबकि, 13वी और 14वीं शताब्दी में यहां मुगलों का कब्जा हो गया। इसी प्रकार यहां सत्ता, शासन और शक्ति प्रदर्श तथा परिवर्तन होते-होते सन 1818 में यहां अंग्रेजों ने अपना कब्जा जमा लिया।
बुंदेलखंड क्षेत्र के सागर जिले और इसके आसपास के कई क्षेत्रों में आज भी अनेकों युगों और वर्षों की ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व की प्राचीन और अति प्राचीन संपदा के अवशेष बिखरे पडे़ हैं। इस बात के प्रमाण हमें सागर से करीब 90 किमी की दूरी पर स्थित एरण नामक स्थान आज भी देखने को मिल जाते हैं।
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सागर जिले में स्थित एरण कस्बे से प्राप्त कई प्रचीन और ऐतिहासिक व पुरातात्विक अवशेर्षों से यह सिद्ध हो जाता है कि ईसा से भी पहले यह स्थान आबाद हुआ करता था। एरण के बारे में प्रमुख तौर पर प्राप्त जानकारियों से यह सिद्ध होता है कि गुप्तकाल के दौरान यहां बहुत ही महत्वपूर्ण और वैभवशाली नगर हुआ करता था। यहां से प्राप्त मूर्तिकला और वास्तु को एक विशेष मान्यता दी गई है।
एरण कस्बे में आज पौराणिक और ऐतिहासिक अवशेषों का विशाल संकलन मौजूद है। यहां मौजूद कई प्रकार के खंडहरों में से एक डांगी शासकों के द्वारा बनवाए गए किले के अवशेष भी देखने को मिल जाते हैं।
मुगल काल के दौरान यहां नष्ट किये गये कई मंदिरों और मूर्तियों के आधे-अधूरे और खंडित अवशेषों में गुप्तकाल में बनवाया गया भगवान विष्णु का मंदिर और उसके दोनों तरफ भगवान नृसिंह और वराह का मंदिर सबसे प्रमुख है। इस मंदिर में मौजूद वराह की इतनी विशाल प्रतिमा संभवतः भारत में और कहीं नहीं है।
वराह की इस मूर्ति के पेट, मुख तथा पैर सहीत अन्य सभी अंगों में विभिन्न देवों की प्रतिमाएँ उकेरी हुई है। इसके अलावा इसी विष्णु मंदिर के सामने 47 फुट ऊंचा एक गरुड़-ध्वज भी देखने को मिलता है। यहां मौजूद अन्य और भी कई आधे-अधूरे और टूटे-फूटे अवशेषों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुगल काल के दौरान यहां क्या हुआ होगा।
यह तो हुआ सागर जिले का वह पौराणिक इतिहास जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा। लेकिन, अधिकतर लोग जो सागर जिले का इतिहास जानते हैं वह सिर्फ यही है कि सागर जिला सन 1660 में से अस्तित्व में आया और यहीं से इसका इतिहास भी शुरू होता है।
कहा जाता है कि जब निहालशाह के वंशज उड़ानशाह ने यहां के तालाब के किनारे पर एक छोटे किले का निर्माण कराया और इसके आसपास एक परकोटा यानी चार दिवारी भी बनवा दी और उस परकोटे के चारों तरफ कई छोटे-बड़े गांवों को बसाया गया। हालांकि, वर्तमान में वह परकोटा करीब-करीब ध्वस्त ही हो चुका है और उसके आसपास बसावट हो चुकी है और वह परकोटा सागर शहर के मध्य में पहुंच चुका है।
खंडित मूर्तियों वाला एक प्राचीन अष्टभुजा धाम मंदिर | Ancient Ashtabhuja Dham Temple
अब अगर हम बात करें कि सागर जिले को यह नाम कैसे मिला तो उसके बारे में यहां कहा जाता है कि, क्योंकि, इस क्षेत्र का राजपाट इस विशाल सरोवर के किनारे स्थित इसी किले से हो रहा था और यह किला इस सरोवर के तट पर स्थित है इसलिए इसे सागर नाम दिया गया होगा।
सागर जिले के अन्य ऐतिहासिक और पर्यटन स्थलों में खिमलासा का किला, धामोनी, गढ़पहरा, राहतगढ़, नौरादेही अभयारण्य, रहली का सूर्य मंदिर, 750 गढ़ों वाला शाहगढ़ तथा सानौधा का किला है।
वर्तमान में सागर के लिए निकटतम घरेलू हवाई अड्डा जबलपुर का डुमना हवाईअड्डा है। दूसरा निकटतम घरेलू हवाई अड्डा भोपाल में राजा भोज हवाई अड्डा है।
सागर में मध्य प्रदेश के प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ रेलवे स्टेशन है जो दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, जम्मू, अमृतसर, ग्वालियर, आगरा, मथुरा, भोपाल, चेन्नई, गोवा और हैदराबाद जैसे कई शहरों से जुड़ा हुआ है ।
सड़क मार्ग से जाने पर दमोह से 85 किलोमीटर, गढ़ाकोटा से यह 64 किलोमीटर, जबलपुर से 160 किलोमीटर, भोपाल से 180 किलोमीटर और झांसी से 210 किलोमीटर जबकि इंदौर से 375 किलोमीटर की दूरी पर है।