यदि आप गुजरात में जाकर भगवान द्वारकाधीश के दर्शन करते हैं तो आपको माता लक्ष्मी के रुक्मिणीरूपी अवतार यानी ‘रुक्मिणी देवी मंदिर’ (Rukmini Devi Temple in Dwarka- Evidence and Modern Significance in Hindi) में भी दर्शनों के लिए अवश्य ही जाना चाहिए। श्री द्वारकाधीश मंदिर से रुक्मिणी देवी मंदिर की दूरी करीब तीन किलोमीटर और द्वारका शहर की उत्तरी दिशा में जाने वाली सड़क और भागीरथी नदी के तट पर स्थित है। यदि आप गुजरात में स्थित द्वारका नगरी की यात्रा पर जाना चाहते हैं तो इसके बारे में यह भी जान लेना चाहिए कि यह नगरी भगवान श्रीहरी विष्णु के श्रीकृष्ण अवतार यानी द्वारकाधीश की कर्मभूमि और श्रीकृष्ण की पटरानी एवं माता लक्ष्मी के देवी रुक्मिणी (Rukmini Temple in Dwarka) का घर भी है जो अरब सागर के तट पर स्थित गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है।
रुक्मिणी देवी के मंदिर को लेकर एक सबसे खास बात ये है कि यहां पौराणिक काल से लेकर आज तक भी आसपास कोई मानव बस्ती नहीं देखी गई है। लेकिन, जब से इस मंदिर के पास से सड़क का निर्माण हुआ है तब से लेकर आज तक यहां वाहनों की चहल-पहल और श्रद्धालुओं की संख्या में और अधिक बढ़ोतरी जरूर देखी जा रही है। इसके अलावा यहां माता के श्रृंगार, पूजा-पाठ और प्रसाद आदि के अलावा कुछ चाय-नाश्ते की दुकानें भी खुल चुकी हैं।
रुक्मिणी देवी मंदिर की संरचना –
रुक्मिणी मंदिर (Rukmini Devi Temple in Dwarka- Evidence and Modern Significance in Hindi) की वर्तमान संरचना 12वीं शताब्दी की बताई जा रही है। यानी इस मंदिर का निर्माण भी द्वारकाधीश मंदिर के समकालीन ही है। इसमें प्राचीनकाल की विशिष्ट स्थापत्यकला और नागर शैली के साथ सूक्ष्म नक्काशी और मूर्तिकला मनमोहक है। इसके गुंबद और स्तंभों पर आकर्षक नक्काशी को देखने के लिए दुनियाभर के पर्यटक और तीर्थ यात्री आते हैं। मंदिर के गर्भगृह में संगमरमर पत्थर पर उकेरी गई देवी रुक्मिणी की चतुर्भुज प्रतिमा के दर्शन करने को मिलते हैं। रुक्मिणी देवी की प्रतिमा के चार हाथों में पद्म, शंख, चक्र और गदा को दर्शाया गया है जो कि माता लक्ष्मी के प्रतीक हैं।
रुक्मिणी मंदिर (Rukmini Devi Temple in Dwarka- Evidence and Modern Significance in Hindi) के शिखर पर प्राचीन नक्काशियां टूटी-फूटी और खंडित अवस्था में अब भी स्पष्ट देखी जा सकती हैं। मुगल आक्रमणों के दौरान इन नक्काशियों को भारी क्षति पहुंची थी। शिखर के संपूर्ण सतह पर नृत्य मुद्राओं में स्त्रियों की प्रतिमाएं अंकित हैं। जबकि मंदिर का आधार यानी भूमि से लगा भाग उल्टे कमल पुष्प के आकार का है और इस आकार के ऊपर उकेरी गई सुंदर हाथियों की कतार दिखाई देती है। इन हाथियों के ऊपर बने आलों के भीतर भगवान विष्णु की प्रतिमाएं नजर आती हैं। मंदिर के शिखर पर फहराता पवित्र केसरिया ध्वज दूर से ही नजर आ जाता है।
रुक्मिणी देवी मंदिर की निर्माण शैली –
आम तौर पर उत्तर भारतीय और पश्चिमी भारतीय क्षेत्रों के समस्त प्राचीन मंदिर नागर शैली में ही बनाये जाते हैं, इसलिए रुक्मिणी देवी का यह मंदिर (Rukmini Devi Temple in Dwarka- Evidence and Modern Significance in Hindi) और द्वारकाधीश का मंदिर भी प्राचीन और पश्चिमी नागर शैली में ही बने हैं। पश्चिमी क्षेत्र की नागर शैली के अनुसार इस शैली में उत्तरी क्षेत्र से थोड़ा अगल बदलाव भी साफ देखा जा सकता है, और यह बदलाव है इन मंदिरों के शिखरों के ऊंचे, लंबे और जटिल आकार के गुंबद। रुक्मिणी मंदिर का गुंबद भी उसी प्रकार से ऊंचा बना हुआ है। हालाँकि द्वारका रुक्मिणी देवी मंदिर द्वारकाधीश मंदिर से बहुत छोटा है, लेकिन यह भी बहुत ही कलात्मक और मनमोहक है।
रुक्मिणी देवी मंदिर का सभा मंडपल –
रुक्मिणी देवी मंदिर (Rukmini Devi Temple in Dwarka- Evidence and Modern Significance in Hindi) की भांति ही इसके सभामंडप का भी निर्माण होना चाहिए था लेकिन, यहां हमें इसका अभाव नजर आता है। क्योंकि मंदिर के शिखर की भांति इसका मंडप भाग संरचना से मेल नहीं खाता। दरअसल, सभामंडप का उपरी भाग शिखर की बजाय गुम्बदाकार छत के आकार में बहुत ही साधारण सा बना हुआ है। इसलिए यहां अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंदिर संरचना के बनने के काफी वर्षों बाद ही इस मंडप का निर्माण किया गया होगा, या फिर मुगलकाल के आक्रमणों में इस सभामंडप का शिखर ध्वस्त कर दिया गया होगा, जिसे बाद में यहां के किसी राजा के द्वारा जिर्णोद्धार के रूप में यह आकार दिया गया है।
रुक्मिणी देवी मंदिर की स्थपना कब हुई –
द्वारका नगरी में स्थित इस रुक्मिणी मंदिर की वर्तमान संरचना का निर्माणकाल भी द्वारकाधीश मंदिर के समय का यानी 12वीं शताब्दी का ही बताया जा रहा है। हालांकि, किस राजा के शाशनकाल के दौरान इस मंदिर की वर्तमान संरचना का निर्माण करवाया गया है इस बात के स्पष्ट प्रमाण फिलहाल मुझे प्राप्त नहीं हो सके हैं। और यदि प्राप्त होंगे तो मैं उसपर भी अलग से जानकारी देने का प्रयास करूँगा। लेकिन, पौराणिक मान्यता है कि द्वारकाधीश मंदिर और रुक्मिणी मंदिर दोनों ही अपने उन्हीं पवित्र और मूल स्थानों पर बने हुए हैं जहां भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने पहली बार स्वयं बनवाये थे। इसके बाद तो समय के साथ-साथ कई बार इन मंदिरों का पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार हो चुका है।
रुक्मिणी देवी पर मुगल आक्रमणों का प्रभाव –
गुजरात की द्वारका नगरी में स्थित रुक्मिणी देवी मंदिर (Rukmini Temple in Dwarka) पर मुगलकाल के दौर में हुए कई प्रकार के भीषण और विभत्स आक्रमणों और लूटपाट की घटनाओं के दौरान इस मंदिर को भी भारी क्षति हुई थी। मंदिर में मौजूद हीरे, मोती, सोना चांदी और अन्य कीमती रत्नों को लूटकर मुगल अपने साथ ले गये और मंदिर संरचना को भारी क्षति पहुंचाई। हालांकि, उसके बाद के राजाओं ने इसमें कई बार जिर्णोद्धार के रूप में कार्य करवाये थे लेकिन, इस मंदिर के निर्माणकाल के दौरान की गई कलात्मक नक्काशी और प्रतिमाओं का जिर्णोद्धार करना आसान काम नहीं था, संभवतः इसलिए उन्हें वैसा ही छोड़ दिया गया होगा।
रुक्मिणी देवी में नक्काशी का प्रभाव –
मंदिर की बाहरी और भीतरी दिवारों तथा स्तंभों पर की गई कलात्मक नक्काशी का काम आश्चर्यचकित कर देने वाला है। पुरातत्व विज्ञानियों के अनुसार देवी रुक्मिणी के इस मंदिर संरचना का निर्माण पास ही में स्थित अरब सागर से लाये गये समुद्री पत्थरों से किया गया है। इसलिए इसमें नमकीन जलवायु का असर बहुत कम होता है। लेकिन, क्योंकि यह संरचना अब अधिक प्राचीन हो चुकी है इसलिए ध्यान से देखने पर इसमें समुद्र की नमकीन जलवायु की कुछ विकृतियों का असर देखने को मिल रही हैं और अब यह संरचना फिर से आंशिक जिर्णोद्धार मांग रही है।
रुक्मिणी देवी के पौराणिक साक्ष्य –
गुजरात की द्वारका नगरी में स्थित इस रुक्मिणी देवी मंदिर के समीप ही एक छोटा जल स्त्रोत भी है जिसके बारे में पौराणिक मान्यता है कि इसको भगवान श्रीकृष्ण ने देवी रुक्मिणी की प्यास बुझाने के लिए उत्पन्न किया था। इसके अलावा देवी रुक्मिणी का यह मंदिर द्वारका नगरी से बाहर और द्वारकाधीश मंदिर से दूर क्यों बना हुआ है इस विषय में भी एक पौराणिक कथा प्रचलित है। जिसके अनुसार, एक बार भगवान श्रीकृष्ण और रानी रुक्मिणी रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण के लिए निकले, भ्रमण करते-करते नगर से दूर तक चले गये। वहां उन्हें बहुत तेज प्यास लगी। प्यास से उनका कंठ सूखने लगा। उन्होंने श्रीकृष्ण आग्रह किया कि वे शीर्घ ही जल का प्रबंध करें। स्थिति को भांप कर श्रीकृष्ण ने शीघ्र अपने दाहिने चरण का अंगूठा धरती पर दबाया और वहीं जलधारा प्रकट हो गयी।
कहा जाता है कि ऋषी दुर्वासा का आश्रम द्वारका से कुछ दूरी पर, यानी इसी स्थान के पास ही में था इसलिए वे उसी समय वहां से गुजर रहे थे। बहुत तेज प्यास के कारण देवी रुक्मिणी से यहां एक बड़ी भूल हो गयी और वे दुर्वासा मुनि से पहले जल ग्रहण करने का आग्रह करना भूल गयीं और स्वयं ही जल ग्रहण कर लिया। अपना अपमान होते देखकर दुर्वासा मुनि क्रोधित हो गए। उन्होंने वहीं श्रीकृष्ण व देवी रुक्मिणी को 12 वर्षों के विरह का यानी बिछड़ने का श्राप दे डाला। कहा जाता है कि उसके बाद श्रीकृष्ण तो द्वारका नगरी में लौट आये, लेकिन देवी रुक्मिणी ने नगर के बाहर, उसी स्थान पर एक कुटिया बनाकर 12 वर्ष बिताये। यही कारण है कि देवी रुक्मिणी का यह मंदिर द्वारकाधीश मंदिर से दूर और नगर के बाहर एक सूनसान स्थान पर बना हुआ है।
रुक्मिणी मंदिर में दर्शनों का समय –
देवभूमि द्वारका में स्थित देवी रुक्मिणी के मंदिर में दर्शनों के लिए जाने के लिए ध्यान रखें कि यह मंदिर प्रति दिन प्रातः 6 बजे खुलता है और दोपहर 12 बजे बंद हो जाता है। इसके बाद शाम 5 बजे से रात साढ़े 9 बजे तक खुला रहता है। इसके अलावा कुछ विशेष दिन जैसे कुछ उत्सवों और त्योहारों के अवसर पर यह समय बदलता रहता है।
रुक्मिणी देवी मंदिर में कोई विशेष फल या किसी भी प्रकार के आहार का प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता बल्कि जल का अर्पण किया जाता है और यही यहां का प्रसाद भी होता है, साथ ही यहां जल का ही दान भी किया जाता है। इसके अलावा रुक्मिणी देवी के मंदिर के शिखर का ध्वज 13 मिटर लंबा लगाया जाता है जो तेज हवा में लहराने पर बहुत ही शानदार दृश्य प्रस्तुत करता है। यदि आपकी भी कोई मन्नत पूरी हो जाती है तो आप भी यहां यह ध्वजा चढ़ा सकते हैं।
– अजय सिंह चौहान