अजय सिंह चौहान | आजकल देखने में आता है कि दुनियाभर में बनने वाली किसी भी देश और किसी भी भाषा की फिल्मों को डबिंग करके किसी भी दूसरी भाषा या दूसरे देश के कल्चर के सामने परोसकर अपना हुनर दिखाया जा सकता है, या अपनी बात रखी जा सकती है। उसी तरह से अगर हम सिर्फ भारतीय सिनेमा उद्योग की बात करें तो यहां बनने वाली करीब-करीब हर भाषा की फिल्मों की डबिंग का चलन भी शुरू हो चुका है। और ये भी एक प्रकार का उद्योग और प्रोफेशन बन चुका है। क्योंकि डबिंग उद्योग से भी अब बड़े से बड़े स्टार भी ज्यादा से ज्यादा संख्या में जुड़ने लग गये हैं।
भारत की डबिंग इंडस्ट्री के आर्टिस्टों ने जहां एक ओर साउथ की सिनेमा को नार्थ इंडिया में, यानी के उत्तर भारत में पापुलर बनाने में योगदान देना शुरू कर दिया है वहीं, नार्थ इंडिया में और खास कर बालीवुड में बनने वाली फिल्मों को भी साउथ के दर्शकों के लिए मसाले के रूप में परौसने का काम करना शुरू कर दिया है।
अब अगर हम यहां डबिंग उद्योग की बात करें तो सबसे पहले तो बात आती है कि जहां आज से करीब 10 या 12 वर्ष पहले तक हमारे लिए यानी कि नार्थ इंडियन्स दर्शकों के लिए दक्षिण भारतीय सिनेमा जगत के कलाकारों को ठीक से पहचानना इतना आसान नहीं होता था जितना की हम बालीवुड के कलाकारों को जानते हैं। या फिर हम अपनी किसी भी क्षेत्रीय भाषा या बोली की फिल्मों के कलाकारों को जानते हैं। लेकिन, अब करीब-करीब साउथ के उन हर छोटे-बड़े कलाकारों को नाम से भले ही ना जान पाते हों, लेकिन, उनके काम से या उनकी फिल्मों के नाम से तो जरूर जानने लगे हैं।
ऐसा इसलिए भी संभव हो रहा है क्योंकि, आज अगर हम अपने घर में टीवी का रिमोट उठाकर, कोई भी या किसी भी मूवी चैनल पर जाते हैं तो किसी न किसी चैनल पर तो हमको साउथ की डब की हुई मूवीस को हिन्दी में देखने का मौका मिल ही जाता है। और अगर टीवी चैनल पर नहीं भी देखते हों तो यूट्यूब पर तो इन फिल्मों को या इन कलाकारों के बारे में जान पाना अब और भी आसान हो गया है। और इसके अलावा आजकल तो OTT जैसे ऑनलाइन प्लेटफार्म पर हम किसी भी लेटेस्ट रिलीज़ मूवी को घर बैठे देख ही लेते हैं।
दरअसल, यहाँ में खासतौर पर सिर्फ साउथ के फिल्म जगत की ही बात करना चाहता हूँ। क्योंकि आप लोगों का तो पता नहीं लेकिन, मुझे इनकी फ़िल्में बेहद पसंद आतीं हैं, और खासतौर पर इनकी बहुत ही कम बजट वाली वो फ़िल्में जिनको की किसी छोटे से गांव या मोहल्ले में फिल्माया जाता है। जबकि बॉलीवुड के साथ इस विषय में समस्या कुछ और ही है।
साउथ की फिल्मों को हिन्दी में देखना अब हमारे लिए इतना आसान इसलिए भी हो गया है क्योंकि करीब-करीब साउथ की हर मूवी को अब हिन्दी में डब करना शुरू कर दिया गया है, और इसका कारण भी साफ है कि पहले के मुकाबले अब ये प्रोसेस थोड़ा सस्ता भी हो गया है और इसमें कम्प्यूटर एडिटींग टेक्नोलाजी से भी ये काम काफी आसान हो गया है।
यहां ना तो हम डबिंग इंडस्ट्री की बात करने वाले हैं और ना ही उससे होने वाली इनकम की। बल्कि यहां हम बात करने वाले हैं इस डबिंग इंडस्ट्री से होने वाले उन फायदों की जो हमारे लिए सामाजिक, बॉलीवुड के दूषित और एजेंडापरस्त वातावरण से निकलकर, प्राकृतिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक और कलात्मक रूप से एक वरदान के समान साबित होता जा रहा है।
दरअसल, साउथ की 99 प्रतिशत फिल्में आज भी अपनी उस परंपरा, संस्कृति, भाषा और गांवों की जिंदगी से जुड़ी हुई सच्चाई पर या फिर उन कहानियों के आधार पर बनी हुई होती हैं जो हमारे समाज के लिए एक अच्छी सोच और संस्कार देने का काम करतीं हैं। जबकि साउथ की उन्हीं फिल्मों के मुकाबले अगर हम बालीवुड उद्योग की बात करें तो ये फिल्में हमारे समाज और हमारी संस्कृति के लिए साउथ की फिल्मों से ठीक उल्टा यानी 99 परसेंट ही कही जा सकतीं हैं।
बालीवुड की फिल्में चाहे किसी भी बड़े से बड़े नामचीन कलाकार की हों या फिर किसी भी न्यूकमर कलाकार की ही क्यों न हों। इनकी करीब-करीब हर एक फिल्मों के विषय में आज भी वही घीसा-पिटा भ्रष्ट तंत्र, गलत व्यवहार, नंगापन यानी कि बेमतलब की वल्गरिटी, गाली-गलौच, अनाप-शनाप की मारधाड़, बेमतलब की विदेशी लोकेशन को फिल्माना, शहरों की भागदौड़ को ही दिखाना, बेवजह के नाच-गाने, बेसुरे आइटम सांग्स और बेमतलब की फूहड़ता से भरी हुई बोरिंग फ़िल्में ही होतीं हैं।
अब अगर हम बालीवुड और साउथ की फिल्म इंडस्ट्री को लेकर बजट की बात करें तो जहां बालीवुड की अधिकतर फिल्मों का बजट जरूरत से ज्यादा होता है उसके बाद भी वे ज्यादा मुनाफा नहीं कमा पातीं हैं। लेकिन, हैरानी की बात तो ये है कि बालीवुड की भारीभरकम बजट वाली फिल्में देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई दूसरे देशों में भी एक साथ रिलीज होतीं है। जबकि, दूसरी तरफ साउथ की फिल्मों में बजट कम से कम होता है और कमाई उससे भी कहीं ज्यादा होती है। और तो और, साउथ की ये फिल्में सिर्फ तीन से चार राज्यों के दर्शकों तक ही पहुंच पाती है।
इस बात से तो साफ पता चलता है कि आज भी हमारे देश के सिनेमा प्रेमी दर्शक अपनी माटी से जुड़े हुए हैं। अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को ही प्राथमिकता देना जानते हैं। दक्षिण भारतीय दर्शकों को आज भी वही सामाजिक परंपरा, संस्कृति, भाषा और गांवों की साधारण जिंदगी वाली कहानियां पसंद हैं, ना कि बालीवुडिया फूहड़ता और बेमतलब के मसाले और आइटम सांग।
यहाँ ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जहां एक तरफ बालीवुड फिल्म इंडस्ट्री ने सामाजिक परंपरा, संस्कृति, भाषा और गांवों की जिंदगी से बिल्कुल रिश्ता तोड़ लिया है, वहीं, दक्षिण भारत की किसी भी फिल्म को देखकर लगता है कि ये फिल्में हमारे मन की बात को इतने बेहतर से ढंग से परदे पर दिखा रहीं हैं कि हम इनकी कहानियों में और इनके किरदारों में उस सच को सीधे तौर पर देख पाते हैं जो हमारे जीवन की सच्चाई से जुड़ी होती हैं। और साउथ की इन फिल्मों में आज भी हम लोग उसी सामाजिक परंपरा, संस्कृति, भाषा और गांवों की जिंदगी को सीधे देख पाते हैं।
साउथ की फिल्मों में हर कलाकार को कला की एहमियत पता होती है और, वे कलाकार, अपने उस किरदार में खुद को जिंदा करने की कोशिश करते हैं। तभी तो साउथ की इन फिल्मों में बेमतलब के मसाले और आइटम सांग या फूहड़ता की जरूरत ही नहीं होती। और अभी तक वो घटिया सोच और हिरोइनों के छोटे कपड़े आधुनिकता की निशानी भी नहीं बन पाये हैं। जबकि वहीं, दूसर तरफ, बालीवुड की फिल्मों में न तो कहानी होती है और ना ही परिवार या समाज हित से जुड़े वो डायलाग होते हैं जो किसी भी दक्षिण भारत की फिल्म की पहचान और कहानी की जान माने जाते हैं।
यहाँ हमें एक और खास बात देखने को मिलती है कि साउथ इंडियन फिल्म इंडस्ट्री ने अभी तक ना तो बालीवुड के और ना ही वेस्टर्न यानी कि हालीवुड सिनेमा के पीछे भागना शुरू किया है और ना ही उनके विचारों को अपने आसपास भी फटकने दिया है। लेकिन, यहां इसका मतलब ये भी नहीं है कि उन्हें कापी करना नहीं आता, या फिर वे ऐसा नहीं कर सकते, बल्कि सच तो ये है कि वे ऐसा करना ही नहीं चाहते। इसका कारण साफ है कि वे अपनेआप को भारतीय फिल्म उद्योग में एक उदाहरण के रूप में सबसे अलग और सबसे आगे रखना चाहते हैं।
इसके अलावा साउथ की फिल्मों में एक और बात देखने को मिलती है कि इनकी कहानियों में आम नागरिक के छोटे-छोटे मुद्दों को दमदार तरीकों से बिना किसी जाति, धर्म या भेदभाव के सामाजिक स्तर पर उठाया जाता है। जबकि बालीवुड में देखने में आता है कि यहां तो करीब करीब हर दूसरी फिल्म में सीधे-सीधे अपने ही देश, अपने ही समाज या, अपने ही धर्म को सीधे-सीधे साफ्ट टारगेट किया जाता है।
और तो और, फेमिनिज्म के नाम पर इनमें कुछ ऐसे डायलाग या कुछ ऐसे सीन्स भी दिखा दिये जाते हैं जो परिवार के साथ बैठकर बिल्कुल भी देखने के लायक नहीं होते। लेकिन, धन्यवाद उस साउथ इंडियन फिल्म इंडस्ट्री का जिसकी हर फिल्म को हम आज भी अपने परिवार के हर छोटे-बड़े सदस्य के साथ बैठकर देख सकते हैं और उस पर खुल कर चर्चा भी कर सकते हैं।
सीधे-सीधे कहा जाये तो ये कि, बालीवुड की फिल्में समाज को बिगाड़ रही हैं, हमारी सभ्यता और संस्कृति की छवि को बदनाम कर रहीं हैं। जबकि साउथ का सिनेमा जगत हमारे समाज को बिगड़ने से बचा रहा है, हमारी सभ्यता और संस्कृति की असली छवि को पर्दे पर दिखा रहा है।
यदि आप में से किसी को भी विश्वास ना हो तो आज ही कोशिश करें और कोई भी साउथ इंडियन मूवी देखें। चाहे टीवी में देखें या यूट्यूब पर, या कहीं और, लेकिन समाज को बचाना है तो बालीवुड की फिल्मों से परहेज करना ही होगा।