स्फटकीय वर्ग के अन्तर्गत बहुत से अल्पमोली रत्न आते हैं जिनके भिन्न-भिन्न नाम हैं। बहुत-से-जाने-पहचाने और सस्ते आभूषणों में दिखाई देते हैं। इस वर्ग के रत्न सस्ते होते हुए भी आकर्षक और टिकाऊ होते हैं। उनमें बनावट और रंगों का आकर्षण भी होता है। उनमें से कुछ तो जैसे हेमस्फटिक (बिल्लौर) या रंगविहीन स्फटिक पत्थर और एमीथिस्ट (नीलराग मणि) तो प्राचीन काल से ही प्रचलन में हैं।
थियोफ्रैस्टस ने लिखा था, ‘’एमीथिस्ट नक्काशी के काम में इस्तेमाल होता था, पारदर्शी था और उसका रंग गहरी लाल शराब के समान था’’। यघपि स्फटिक कितने ही प्रकार और रंगों का होता है। उसका रासायनिक संगठन बहुत सादा है। वह है सिलाकान का आक्साइड अर्थात् सिलिका और यही संगठन सब प्रकार के रत्नीय पत्थरों में पाया जाता है। कठोरता, आपेक्षिक गुरुत्व, दुहरावर्तन यद्यपि कुछ भिन्नता रखता है, परन्तु ऐसा अन्तर भी बहुत कम है। स्फटिक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले रत्नीय पत्थरों को दो बड़ी श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।
1 मणिभीय श्रेणी- इसमें स्फटिक के कांचरितय मणिभीय और अधिक या कम पारदर्शक विभेद रखे गये हैं।
2 गुप्त मणिभीय श्रेणी- इस श्रेणी के स्फटिक सघन तथा संभाग होते हैं। इनका भी मणिभीय रूप होता है। पर वह सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखा जा सकता है। इस श्रेणी को केलसेडोनी भी कहते हैं।
मणिभीय स्फटिक- यह मणिभ षड्कोणीय संक्षेत्र तथा षड्कोणीय द्विस्तूप बनाते हैं। कभी यह एक ओर मुड़े हुए होते हैं और कभी दोनों ओर मुड़े होते हें। बहुधा यमज मणिभी भी देखे गये हैं। ये मणिम षड्भुजीय समूह के अंतर्गत आते हैं। इस श्रेणी के अंतर्गत निम्नलिखित रत्न आते हैं।
पारदर्शी रत्न- हेम स्फटिक या बिल्लौर, धुनैला स्फटिक, सुनैला और कटैला या एमीथिस्ट। (ख) वह रत्न जिनमें प्रकाश फिरता दिखाई देता है, जैसे स्फटिक वर्ग का लहसुनिया, व्यघ्राक्ष। (ग) जो रत्न बड़े आकारों में पाये जाते हैं, जैसे गुलाबी स्फटिक और ऐवेन्च्यूरीन।
केलसेडोनी- इस श्रेणी में आते हैं कार्नीलियन मांस रत्नों क्राइसो प्रेज, सार्ड, जैस्पर (रतवां) प्लाजमा, वल्डस्टोन (पितौनिया) और अगेट (हकीक)।
हेम स्फटिक या बिल्लौर-
यह एक ऐसा रंगविहीन अल्पमोली रत्नीय पत्थर है जो प्रचुर मात्र में प्राप्त होता है। कटाई और पालिश के बाद यह एक स्निग्ध, सुन्दर तथा अत्यन्त आकर्षक रत्न लगता है, परन्तु इसमें दमक की कमी होती है। दमक की कमी होने पर भी जब इसके अनीक बनाये जाते हैं तो कानों के झूमकों या गले के नेकलसों में यह बड़े आकर्षक लगते हैं, क्योंकि बिल्लौर प्रचुर मात्र में प्राप्त होता है। अतः रत्न वही काट कर बनते हैं जो निर्दोष हों। आभूषणों के अतिरिक्त इनका उपयोग चश्मे के शीशे और चश्मे सम्बन्धी यंत्रों में होता है।
बिल्लौर से बने चश्मे के शीशों के पालिश काफी समय तक नहीं बिगड़ती जबकि साधारण कांच में थोड़े ही समय में खरोंच पड़ जाती है। बिल्लौर के दाम उसकी मांग के अनुसार कम अधिक होते रहते हैं, परन्तु यह एक काफी सस्ता रत्नीय पत्थर है। कांच और बिल्लौर की पहचान यह है, बिल्लौर स्पर्श में ठंडा लगता है, कठोर अधिक होता है और उसके किनारे (अनीक) तेज और सफाई से कटे होते हैं। यह कभी बिल्कुल भरा हुआ नहीं दिखाई देता जैसा कि कांच होता है।
बिल्लौर के बड़े सुंदर आभूषण, प्याले आदि अनेकों संग्रहालयों में देखे गये हैं। प्राचीन काल में मोहर बनाने के काम में यह आता रहा है। जब से कांच का आगमन हुआ, बिल्लौर पर नक्काशी का काम बहुत कम हो गया। एक जमाने में तो रईस लोग बिल्लौर के गिलासों और प्यालों में पानी, शर्बत या शराब पिया करते थे। बिल्लौर के गोले अब भी ब्राजील और जापान से प्राप्त पत्थरों के काटकर बनाये जाते हैं।
बिल्लौर का सबसे अधिक विशेष गुण है उसमें प्रकाश का चमचम होना। वह उसकी बनावट के कारण है। चश्मों में तो बिल्लौर इस्तेमाल होता ही है, उसके तापस्फट विद्युत के कारण रेडियो तथा अन्य विद्युत दर्शन यन्त्रों के लिये प्रदोलित स्फटिक पट्टियां बनाई जाती हैं। नील लोस्तिकोर प्रकाश में अपनी पारदर्शिता के कारण उसका उपयोग फोटोग्राफी के ताल में भी किया जाता है।
प्राप्ति स्थान- बिल्लौर के करड़ कभी-कभी बड़े-बड़े आकारों में प्राप्त होते हैं। कभी-कभी वे पूर्ण रूप से समाकार होते हैं। वे आग्नेय शिलाओं, लाइम स्टोन तथा ग्रेनाइट शिलाओं की तरारों में ब्राजील, मैडगास्कर, जापान, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड के आल्प पर्वत प्रदेश, फ्रांस और हंगरी में मुख्य रूप से प्राप्त होता है। आल्पस पर्वत प्रदेश से समय-समय पर बिल्लौर के बड़े सुन्दर मणिभ प्राप्त हुए हैं, परंतु जब से दक्षिण अमेरिका और मैडगास्कर में यह प्राप्त होने लगा तो आल्प पर्वत प्रदेश का महत्व कम हो गया।
कुछ बिल्लौर इंग्लैण्ड में सोमेरसेट, वेल्स, कार्नवाल, डरबीशायर और वाइट द्वीप के क्षेत्रें में प्राप्त हुआ। वहां प्राप्त बिल्लौर को हीरे के नाम दिये गये जिनके नाम हैं- ब्रिस्टल हीरा, कार्निश हीरा, बक्सटन हीरा। स्फटिक (बिल्लौर) भारत के उत्तरी प्रदेशों, जैसे कश्मीर, कुल्लू, शिमला, स्पिति, मध्य प्रदेश में सतपुड़ा तथा बिन्ध्याचल श्रेणी के अंचलों में भी प्राप्त होता है।
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सुनैला –
एक विलक्षण अंतरीय बनावट का यह एक पीला स्फटिक है। इसमें पीला रंग कदाचित् कुछ मात्र में फैरिक आॅक्साइड होने के कारण है। प्राकृत सुनैला रत्नीय पत्थर बहुत कम मात्र में प्राप्त होता है और बाजार में जो सुनैला दिखाई देता है वह अधिकतर धुनैले से बनाया हुआ होता है। बहुत- से लोग इसके रंग को देखकर पीला पुखराज कहते हैं, परंतु यह भ्रमात्मक है। सुनैला एक बहुत साधारण अल्पमोली रत्नीय पत्थर है। इसके अतिरिक्त वह पुखराज की अपेक्षा बहुत नरम पत्थर है। इसका आपेक्षिक गुरुत्व भी बहुत कम है।
यह अवश्य है कि सुनैला यदि सफाई से कटा हो तो देखने में टोपाज या पुखराज से कमजोर नहीं लगता, परंतु दोनों को सामने रखने से अन्तर स्पष्ट दिखाई दे जाता है। पुखराज इतना और निर्दोष नहीं होता जितना सुनैला होता है। इसका एक कारण यह है कि सुनैले के वही टकड़े काटकर रत्न का रूप पाते हैं जो बिल्कुल निर्मल होते हैं। यह निर्मल टुकड़े पालिश हो जाने के बाद निर्दोष और बिल्कुल पारदर्शक दिखाई देते हैं। सुनैला ब्राजील, यराग्वे, यूराल पर्वत प्रदेश फ्रांस और मेडागास्कर से प्राप्त होता है।
धुनैला –
यह धुनैले-भुरे रंग का बिल्लौर ही है, और इस प्रकार के बिल्लौर के रंग भूरे से लेकर काले तक होते हैं जो गहरे रंग या काले होते हैं, उन्हें मोरियोन कहते हैं। भूरे-पीले और लाल भूरे होते हैं, वे कैर्नगाम या स्काच टोपाज कहलाते हैं। हल्के पीले रंग वाले पत्थर क्वार्ट्ज टोपाज, फाल्स टोपाज (नकली टोपाज) या स्पेनिक टोपाज कहे जाते हैं। इनमें आपस में गुणों में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार के बिल्लौर में शायद उसमें वर्तमान सोडियम के कारण होता है। ताप से रंग या तो हल्का हो जाता है या बिल्कुल उड़ जाता है। कुछ पत्थर हल्के ताप से लाल या पीले-भूरे हो जाते हैं। यह बदला हुआ रंग स्थायी होता है। इन पत्थरों में द्विवर्णिता होती है जो गहरे रंग के पत्थरों में विशेष रूप से देखी जा सकती है।
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कटैला –
बैंजनी रंग का रत्नीय पत्थर है और कदाचित् अन्य स्फटिक रत्नों से मूल्यवान भी है। इसका रंग गहरे लाल से बैंजनी तक होते हैं, परंतु प्रायः इन पत्थरों में रंग एक-सा नहीं होता अर्थात् एक ही पत्थर में कहीं पर हल्का और कहीं पर गहरा होता है। पत्थर सदोष भी होते हैं या उनमें पर होते हैं और तेज सूर्य के प्रकाश में इनका रंग भी कम हो आता है। कुछ लोगों का ख्याल है कि इन पत्थरों में कृत्रिम रंगाई होती है इसलिए उसका रंग उड़ जाता है। वास्तविक बात यह है कि चाहे रंग कृत्रिम हो या प्राकृत वह सूर्य के तेज प्रकाश में हल्का अवश्य पड़ जाता है।
यदि इन पत्थरों को ताप दिया जाये तो ये रंग-विहीन हो जाते हैं। कुछ भूरे पीले भी पड़ जाते हैं। बहुत से सुनैल ताप किये हुये कटैले होते हैं और इनमें द्विवर्णिता नहीं होती। प्रकृत सुनैल में स्पष्ट द्विर्णिता होती है।
गहरे रंग के पत्थरों में द्विवर्णिता होती है और उनसे गहरा रंग कदाचित् उसमें मेंगनीज आक्साइड होने के कारण होता है। इस रत्नीय पत्थर में और कुरुन्दम जाति के नीलम से बहुत अंतर होता है। नीलम कहीं अधिक कठोर, दड़कदार होता है और कृत्रिम प्रकाश में सलेटी रंग का नहीं दिखाई देता।
कटैलों को अधिकतर स्टेप या मिश्रित काट का रूप दिया जाता है। इनकी मेखला विभिन्न आकार और साइज की होती है। साइबेरिया से प्राप्त कटैले अधिक गहराई से काटे जाते हैं और उनमें एक विशेष प्रकार की धातुई चमक होती है जो इस प्रकार के अन्य रत्नीय पत्थरों में नहीं पायी जाती। पहले जमाने से इस रत्नीय पत्थर पर नक्काशी का काम होता था।
इसके मुख्य प्राप्ति स्थान ब्राजील, यरेग्वे, साइबेरिया, भारत, श्रीलंका, मेडागास्कर, ईरान, मैक्सिको, संयुक्त राष्ट्र, अमरीका के मेन, न्यू हैम्पशायर पेनसिल वेनियां, उत्तरी केरोलिना तथा सुपीरियर झील प्रदेश हैं। सबसे सुंदर एमीथिस्ट ब्राजील में प्राप्त होते हैं। अच्छे रत्न यूराल पर्वत में भी मिलते हैं। भारत तथा श्रीलंका के एमीथिस्ट भी उत्तम जाति के होते हैं। ब्राजील का एक अत्यन्त उत्तम एमीथिस्ट जिसका वजन 334 कैरट है, दो रूसी रत्न जो वजन में 88 तथा 73 कैरट हैं, ब्रिटिश म्यूजियम में संग्रहीत हैं।
– आचार्य शैलेष