हमारा देश भारत अतीत में क्या था, वर्तमान में क्या है और भविष्य में क्या होगा? इस बात का यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वर्तमान में वैश्विक परिदृश्य में भारत की स्थिति चाहे कुछ भी हो किन्तु अतीत में अपने देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था। सोने की चिड़िया कहने का आशय इस बात से है कि भारत सर्वदृष्टि से संपन्न एवं सुखी राष्ट्र था। इसके साथ ही भारत अतीत में विश्व गुरु के आसन पर विराजमान रहा है। विश्व गुरु होने का आशय सीधे-सीधे इस बात से है कि खेती, किसानी स्वास्थ्य, शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, कला, खेल, धर्म-अध्यात्म एवं अन्य सभी क्षेत्रों में पूरी दुनिया का मार्गदर्शन करता था।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम दुनिया की मानसिकता से न चलें, हमारा प्रयास और लक्ष्य यह होना चाहिए कि जैसे प्राचीन काल में हम दुनिया को अपनी मानसिकता से चलाया करते थे। वर्तमान में भी उसकी पुनरावृत्ति करके ही हम विश्व गुरु कहला सकते हैं। विश्व की मानसिक अधीनता को स्वीकार न करते हुए हमें विश्व को अपनी मानसिक अधीनता में लाने के लिए कूटनीतिक ताना-बाना बुनना ही होगा।
आज तमाम लोग इस बात पर बहस करते हुए मिल जाते हैं कि क्या भारत पुनः विश्व गुरु के आसन पर विराजमान हो सकता है। इस संबंध में तमाम तरह के तर्क-वितर्क सुनने एवं देखने को मिलते रहते हैं किन्तु इस संबंध में एक बात बिना किसी लाग-लपेट के कही जा सकती है कि हम विश्व गुरु तो बन सकते हैं किन्तु ऐसा तभी संभव है जब हम अपनी अतीत की डोर को फिर से कस कर पकड़ लें यानी अपनी अतीत की महान विरासत एवं क्षमताओं की जब बात आती है तो उसका सीधा सा आशय मानसिक क्षमताओं से है। सम्राट अशोक से लेकर विक्रमादित्य के शासन काल तक भारत पूरे विश्व में सर्वदृष्टि से अग्रणी स्थान रखता था।
यह वह दौर था, जब भारत अपने आपमें सर्वदृष्टि से आत्मनिर्भर था। हमारे पास उधार का कुछ भी नहीं था, चाहे वह सभ्यता-संस्कृति हो, अर्थव्यवस्था हो या फिर हमारी मानसिक क्षमता, सब कुछ हमारा अपना था। सोने की चिड़िया भारत अपने बूते था। उस समय हम विदेशियों द्वारा तारीफ के लिए लालायित नहीं रहा करते थे किन्तु सातवीं सदी में जब से मुस्लिम आक्रांताओं की नजर भारत पर पड़ी तब से भारत को सर्वदृष्टि से लूटने का दौर प्रारंभ हुआ। मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, चंगेज खान, तैमूल लंग, नादिर शाह, अहमदशाह अब्दाली से लेकर औरंगजेब तक ने भारत को तबाह करने का काम किया है। इसके बाद जो बची-खुची कोर-कसर थी, उसे अंग्रेजों ने पूरा कर दिया और आज तक उस काम को पूरा कर रहे हैं आजाद भारत में यहां बैठे हुए मानसिक रूप से अंग्रेज। मानसिक अंग्रेज से आशय इस बात से है कि यहां के तमाम भारतीयों की बोली-भाषा, रीति-रिवाज, रहन-सहन, एवं मानसिकता बिल्कुल वैसी ही है जैसी आजादी से पहले अंग्रेजों की थी। इसे चाहे आप पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव कहिये या अपने पुरातत्व ज्ञान से अनभिग्यता या मानसिक गुलामी की अदूरदर्शिता।
अतीत में हमारे गुरुकुलों एवं ऋषियों-मुनियों के माध्यम से जो शिक्षा एवं संस्कार बच्चों को मिल जाते थे, आज उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विदेशी हमारे गं्रथों को यहां से उठाकर ले गये, उसका अध्ययन करके हमारे ऊपर अपना ज्ञान थोपने लगे और यह बताने लगे कि ज्ञान-विज्ञान में जैसे वे हमसे आगे हों। भारत लंबे समय तक गुलामी के दौर में रहा। इतनी लंबी गुलामी के बाद भी आक्रांता जब यहां की सभ्यता-संस्कृति एवं जड़ों को हिला नहीं पाये तो वे अपनी शिक्षा पद्धति के माध्यम से यहां के लोगों की मानसिकता बदलने में लग गये। लार्ड मैकाले ने तो यहां तक कह दिया था कि यहां की सभ्यता-संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इतनी आसानी से यहां के लोगों को नहीं बदला जा सकता है, इसके लिए अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से यहां के लोगों का मानसिक परिवर्तन करना होगा। हालांकि, इस मामले में वह काफी हद तक कामयाब भी रहा।
आज हमारे देश में गोरों का शासन भले ही न हो किन्तु गोरों की मानसिकता वाले काफी संख्या में भारतीय हैं जिनकी मानसिक सोच, रहन-सहन एवं कार्यपद्धति गोरों जैसी ही है। पाश्चात्य संस्कृति भारतीयों को वर्तमान में जीने की सलाह देती है जबकि हमारी सनातन संस्कृति अतीत से सीख लेते हुए एवं भविष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में जीने की सीख देती है। उदाहरण के तौर पर भारतीय समाज में महिलाएं जब अचार बनाती हैं तो वे यह सोचकर बनाती हैं कि यह कम से कम पांच-दस वर्षों तक तो रहेगा ही क्योंकि अचार जितना पुराना होता है, उतना ही अच्छा माना जाता है। आज भी शादी-ब्याह या अन्य किसी कार्य में मेहमानों के लिए सबसे पुराना चावल एवं अचार उपयोग में लाया जाता है।
यह बात लिखने का आशय मेरा इस बात से है कि थोड़ा-बहुत भविष्य को भी ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए। पैर उतना ही फैलाना चाहिए, जितनी बड़ी चादर हो, ऋण लेकर घी पीने की आदत ठीक नहीं है, अपने ऊपर किसी का कर्ज लेकर दुनिया छोड़ जाना ठीक नहीं, नेकी कर दरिया में डाल, जैसा बोओगे-वैसा ही काटोगे, मां-बाप यदि दुखी होंगे तो किसी भी पूजा-पाठ का कोई लाभ नहीं मिलेगा, तीर्थ-व्रत यथासंभव अपने पैसे से ही करना चाहिए, अनाप-शनाप कमाई हराम है आदि तमाम तरह की बातें सनातन संस्कृति में बच्चों के दिलो-दिमाग में बचपन में ही आ जाती थीं। बच्चों को यह सब बताने का मात्र आशय यही होता था कि भविष्य में उन पर किसी बुरी संगत का कोई असर न पड़े। ये सब बातें देखने-सुनने में भले ही मामूली सी लगें किन्तु इन्हीं मामूली सी मानसिक क्षमताओं को सहेज कर श्रेष्ठ व्यक्ति, श्रेष्ठ परिवार, श्रेष्ठ समाज एवं श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण किया जाता था।
शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी तथा विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धतियां पूरी दुनिया को भारत की ही देन हैं। आज किसी भी बीमारी में जब तक तमाम तरह के टेस्ट न हो जायें, तब तक बीमारी का पता ही नहीं चलता है किन्तु अतीत में एक ही वैद्य नाड़ी पकड़कर सभी बीमारियां बता देते थे और उसका इलाज भी कर देते थे। आज अस्पतालों एवं डाॅक्टरों के चक्कर लगा कर लोग थक जाते हैं किन्तु बीमारी जाने का नाम नहीं लेती है। इसका सीधा सा आशय यही है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में भी मानसिक रूप से भारत विश्व में सबसे आगे था। घरेलू कुटीर उद्योगों एवं कृषि के बल पर आर्थिक रूप से भारत वैश्विक स्तर पर सबसे ऊंचे आसन पर विराजमान रह चुका है।
गुलामी के पहले हमारे देश की न्याय एवं सुरक्षा व्यवस्था का पूरा दुनिया लोहा मानती थी। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति हमारी अतीत की संस्कृति में नहीं थी। यह सब हमने गुलामी के दौर में देखा एवं सीखा। हमारी संस्कृति तो ऐसी रही है कि ऋषि दधीचि ने समाज कल्याण के लिए अपनी हड्डियां दान कर दीं, मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम राज-पाट त्याग कर समाज एवं राष्ट्र के कल्याण के लिए वन में चल दिये, समाज के कल्याण के लिए भगवान भोलेनाथ ने विषपान कर लिया, राजा बलि एवं राजा हरिश्चन्द्र ने ब्राह्मण के भेष में आये भगवान को अपना पूरा राज-पाट दान में दे दिया। इस दृष्टि से आधुनिक भारत की यदि बात की जाये तो जैन मुनियों ने समाज को त्याग, तपस्या, अहिंसा, परोपकार, क्षमा एवं अल्प संसाधनों में जीवन जीने का जो तौर-तरीका पूरे समाज को दिया है, वह अपने आप में बेहद महान कार्य है।
यह सब लिखने का मेरा आशय यही है कि हमारी सनातन संस्कृति में ऐसे तमाम उदाहरण भरे हैं जहां समाज एवं राष्ट्र को प्रधानता दी गई है और अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कोई स्थान ही नहीं है। सही मायनों में विश्लेषण किया जाये तो यह सब हमारी पूंजी है। अपनी इसी मानसिक पूंजी की बदौलत हम पुनः विश्व गुरु बन सकते हैं। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि हम अपनी मानसिक क्षमताओं को जानें-पहचानें और उस पर आगे बढ़ें। सिर्फ सर्जरी ही नहीं बल्कि योग भी भारत की ही देन है। शून्य की यदि बात की जाये तो इसकी खोज भारत ने ही की है।
गौरतलब है कि शून्य की खोज आर्य भट्ट ने की थी जो कि भारतीय थे। ज्योतिष विद्या भी भारत की ही देन है। भारतीय जीवन दर्शन की बदौलत पूरी दुनिया को जीने की कला मालूम हुई। पंच तत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा के माध्यम से पूरी दुनिया को जीवन जीने का तरीका भारत ने ही बताया है। इन सारी बातों पर गौर करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि विश्व गुरु बनने के लिए भारत को दुनिया के किसी भी देश से सलाह-मशविरा की आवश्यकता नहीं है, वह सिर्फ अपने अतीत की डोर को जकड़कर पकड़ ले, इतने से ही भारत का कल्याण हो सकता है।
आज वैश्विक स्तर पर भले ही तमाम तरह के संगठन विश्व शांति के लिए बने हैं या बन रहे हैं किन्तु हमारी सनातन संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो’ की भावना प्राचीन काल से ही विद्यमान है। आज भी मंदिरों में जय घोष किया जाता है तो उसमें ‘विश्व का कल्याण हो’ का घोष किया जाता है यानी विश्व शांति के लिए आज पूरी दुनिया में जो बात कही जा रही है, वह अतीत से हमारी संस्कृति का आधार स्तंभ रही है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि हमें अपनी भूली-बिसरी मानसिक क्षमताओं को जान-पहचान एवं समझ कर उसी पर आगे बढ़ना होगा।
धर्म-अध्यात्म की बात की जाये तो हम इस मामले में इतने समृद्ध रहे हैं कि हमारे तमाम ऋषि-मुनि किसी भी व्यक्ति का भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ बता देते थे किन्तु क्या आज ऐसा मूल्यांकन एवं विश्लेषण संभव है। आज के विज्ञान की बात की जाये तो हमारे ऋषियों-मुनियों के ज्ञान-विज्ञान के समक्ष कहीं टिकता नहीं है। उन्होंने जो कुछ कर दिया है, विज्ञान उस पर सिर्फ रिसर्च कर के अपनी मुहर लगा रहा है। ताज्जुब की बात तो यह है कि अतीत के हमारे किसी ज्ञान, विज्ञान एवं बात पर आज का विज्ञान यदि अपनी मुहर लगा देता है तो उसे हम प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा मान लेते हैं, जबकि यह पूरी दुनिया को पता है कि हमारे ऋषियों-मुनियों के ज्ञान के आगे वर्तमान विज्ञान पूरी तरह नतमस्तक है। कोरोना काल में यह साबित भी हो चुका है। कोरोना काल में जब आधुनिक विज्ञान एवं चिकित्सा व्यवस्था घुटनों के बल लेट गयी तो हमारा अतीत ही काम आया। प्राचीन योग, भारतीय जीवनशैली, खान-पान, रहन-सहन और हमारे उसी अतीत के ज्ञान के बदौलत दुनिया राहत की सांस ले पाई।
हमारे ऋषियों-मुनिया द्वारा ईजाद किये गये मंत्रों के माध्यम से आज भी जो चाहा जाये, उसे हासिल किया जा सकता है। क्या इसे विज्ञान नहीं माना जा सकता? इस प्रकार देखा जाये तो यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है कि अतीत में हम मानसिक रूप से या किसी भी दृष्टि से इतने मजबूत रहे हैं कि हमें किसी के पीछे चलने की बजाय अपने गौरवमयी अतीत के सहारे अगुवा बनकर आगे चलना होगा। इसी रास्ते पर चलकर ही भारत पुनः विश्व गुरु बन सकता है और भारत के साथ पूरे विश्व का कल्याण हो सकता है। इसके अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)