अजय सिंह चौहान | मानव सभ्यता के प्रारंभिक दौर और प्राचीन काल से लेकर आजतक के काल में भी भारत भूमि दो भागों में बंटी हुई है जिसमें से एक भाग जो भारतवर्ष सिन्धु नदी से पूर्व की ओर दर्शाया गया है, वेद एवम पुराणों में इसे ‘‘ऐन्द्र’’ कहा गया है। यानी इंद्र के अनुयायियों की भूमि। इंद्र के अनुयायी से अभिप्राय है देवताओं की पूजा करने वालों की भूमि। इसी भूमि पर आज का भारत, पाकिस्तान बांग्लादेश आदि हैं।
भारतवर्ष का दूसरा भाग है ‘‘वारुण’’। वारुण भाग की भूमि सिन्धु नदी से पश्चिम दिशा का भारतवर्ष है, यह भूमि वेदों और पुराणों में वारुण कहलाती है। यह भी भारत भूमि ही है। इस भूमि का भू-भाग भूमध्य सागर से पूर्व, सिन्धु नदी से पश्चिम, दक्षिण समुद्र से उत्तर और आराल पर्वत तथा काश्यपीयन समुद्र से दक्षिण तक का भाग है। इसी वारुण भाग को म्लेच्छ लोग ‘‘ओरियंस’’ कहते हैं, परन्तु वास्तव में तो यही प्राचीन काल में भारतवर्ष का भाग था।
वरुण देव के विषय में पौराणिक तथ्य मिलते हैं की उन्होंने देवताओं से रूष्ट होकर ही देवभूमि अर्थात भारत भूमि छोड़ दी थी और आज के अरब देशों यानी मीडिल इस्ट देशों की भूमि को अपने निवास स्थान के लिए चुना था। इसीलिए आज भी वर्तमान भारत भूमि पर वरुणदेव के मंदिर बहुत कम हैं जबकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित मिडिल ईस्ट में उनके कई मंदिरों के पौराणिक साक्ष्य प्राप्त होते रहते हैं। कराची का वरुण देव मंदिर आज भी एक हजार वर्षों से खड़ा है।
इसी वारुण क्षेत्र में प्राचीन काल में गन्धर्व भी निवास करते थे इसलिए आज भी इसे गंधर्वों की भूमि कहा जाता है। युग परिवर्तनों के दौर में यहां की प्रकृति में बदलाव आते गए और उसी के आधार पर यहां की जलवायु और आबादी के स्वभाव में भी बदलाव आते गए।
यही गन्धर्व भूमि आगे चलकर गंधर्वों का देश कहलाया और फिर गन्धर्व से सिमट कर यह अपनी राजधानी के भूभाग तक ही रह गया। एक छोटे भू-भाग में रहने के कारण इसका नाम गांधार प्रसिद्ध हो गया। प्राचीनकाल में गान्धार के पूर्व में वर्णु, पंचगौर, जाह्नव, उज्जिहान, हाटक और ऐसे अनेक नाम वाले छोटे-बड़े स्वतंत्र देश हुआ करते थे। जबकि गान्धार के उत्तर में, मद्र और उत्तर-मद्र नाम के देश थे। आगे चालकर म्लेच्छों द्वारा यही उत्तर-मद्र देश मिदिया और मद्र को माद नामों से पहचान मिली। इस प्रकार दोनों ही तरह से प्राचीन और वर्तमान मद्र देश भारतवर्ष के ही पश्चिमी देश रहे हैं।
सिन्धु नदी के पश्चिमी भाग में गान्धार-मद्र-देश में यवनों और म्लेच्छों के बढ़ते आक्रमण के कारण आज वहां आर्य लोग अत्यन्त अल्प मात्रा में निवास करते हैं। इस विषय में भी पुराण लिखते हैं कि – ‘‘सिंधु के पार आज भी चित्रा प्रांत में दस्यु लोग छिपे रहते हैं जो पश्चिमोत्तर लोगों की आबादी में से कुछ सभ्य लोगों को बलपूर्वक पीड़ित और प्रताड़ित करते रहते हैं।
इन्हीं ध्रष्ट और भीषण क्रुर दस्यु लोगों को अमरावती के स्वामी इंद्र ने आकर पीड़ित किया अथवा दण्ड दिया। तत्पश्चात इंद्र पुनः स्वर्ग में लौट गये। यानी सिंधु के पार रहने वाले और लुटेरों द्वारा लूटे गए कुत्स यानी ऋषि-मुनि आदि की रक्षा के लिए कुत्स आदि की प्रार्थना किए जाने पर इंद्र ने यहां के दस्युओं का नाश किया।
इन मारने योग्य निर्दय लोगों को आधुनिक इतिहासकार भारतीय ही कहते हैं, परंतु वास्तव में तो ये दस्यु अर्थात डाकू या लुटेरे जिन्हें प्राचीनकाल में ‘‘दास’’ भी कहा जाता था। ये दास भारत की सीमा से बाहर के निवासी थे और भारतीय सीमा से सटे प्रांतों में निवास करते थे और अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे। आज भी देखा जाय तो उसी प्रकार से लुटेरे एक राज्य से आकर दूसरे राज्यों में अपराध करते हैं और लौट जाते हैं।
वर्तमान में हम अपने आसपास जो उसी प्राचीन लुटेरी और अपराधी प्रवत्ति को देख रहे हैं वास्तव में तो आज की यह प्रवत्ति साधारण बात हो चुकी है। किंतु इस प्रवत्ति में आज भी शुद्ध आर्य कहीं से भी शामिल नहीं हैं। स्वभावतः आर्य आज भी हमारे समाज में लुटेरे अथवा किसी बड़े अपराध प्रवत्ति के नहीं हैं। किंतु यदि कोई हैं भी तो इनपर किसी न किसी प्रकार से वर्णशंकर अथवा कुसंस्कारों की छाप स्पष्ट कही जा सकती है।