भविष्यपुराण से सम्बन्धित अपना मत लिखने के पूर्व यह कहना आवश्यक है कि विद्वानों का कथन है कि “इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्” कि इतिहास तथा पुराण वेद के उपबृंहित रूप हैं। यहाँ इतिहास तथा पुराण इन दो शब्दों का प्रयोग ध्यान देने योग्य तथ्य है। दोनों एक ही अर्थ के द्योतक नहीं हैं। इतिहास अलग और पुराण उससे अलग है। बृहदारण्यकउपनिषद् के शांकरभाष्य के अनुसार जगत् के प्रारम्भ की अवस्था से लेकर सृष्टि कार्य का प्रारम्भ होने तक का वर्णन पुराण है। अर्थात् पहले कुछ नहीं था, असत् था इत्यादि सृष्टि पूर्व का वर्णन ही पुराण है। तदनन्तर जो कथा तथा संवादात्मक धारा चली, वह इतिहास है। वायुपुराण में “पुराण” शब्द की व्युत्पत्ति है पुरा (प्राचीन—पहले) तथा अन् धातु साँस लेना अर्थात् जो अतीत में जीवित है। जो प्राचीन काल में साँस ले रहा है, वह पुराण है। पद्मपुराण के अनुसार “जो अतीत को चाहे, वह पुराण है।”
पुराणों का महत्त्व हमारे यहाँ वेदों से कदापि कम नहीं है। वेदोक्त अतीव गूढ़ तथा रहस्यावृत मन्त्रों का सरलीकरण तथा उनको जनसामान्य के लिए उपयोगी बनाने का महान् कार्य पुराणों द्वारा किया गया है। शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि पुराण वेद ही हैं। यह वही है। ‘ तैत्तिरीय आरण्यक में पुराण हेतु बहुवचन का प्रयोग है, अर्थात् इससे कई पुराणों की स्थिति का द्योतन होता है।
कौटिल्य (चाणक्य) ने अपने ग्रन्थ “अर्थशास्त्र” में कहा है कि वेदत्रयी के अतिरिक्त इतिहास भी वेद है।
विद्वान् शबर (२०० ई० से ३०० ई० के बीच), कुमारिल (सप्तम शती ई०), आचार्य शंकर (सप्तम शती अथवा अष्टम शती) ने भी पुराण शब्द का व्यवहार पुराणों के सम्बन्ध में किया है। बाणभट्ट (सप्तम शती) ने भी पुराणों का उल्लेख किया है। अलबरूनी ने (१०३० ई०) अपने ग्रन्थ में पुराण सूची का उल्लेख किया है। तथापि पुराणों को इन पाश्चात्य बुद्धि से उपजी काल सीमा में बाँधा जाना उचित नहीं है। इनके पश्चात् के संस्करणों की संरचना के आधार पर जो इनका कालमान तय किया जाता है वह वस्तुतः उन पुराणों के उन मूलभागों की अनदेखी करके किया जाता है, जिनमें कालजनित परिवर्तन तथा परिवर्द्धन नहीं है। तथापि यहाँ पुराणों का काल निर्धारण करना मेरा उद्देश्य नहीं है।
भविष्य के अनुत्सन्धित्सु जिज्ञासु वर्ग के लिये यह एक दिशा संकेत मात्र है कि पुराणों के काल के निर्धारण में पाश्चात्य चश्मे तथा उनके मानदण्ड की जगह स्वदेशी एवं स्वतन्त्र दृष्टिकोण को अपनाया जाये। भारत के श्रद्धालु वर्ग के अनुसार ये पुराण सनातन काल से चले आ रहे हैं। उनका मूलतत्त्व एक हजार वर्ष ही पुराना नहीं है। वह तो शाश्वत अतिप्राचीन है। तदनुसार मानव वानर का विकसित रूप नहीं है। वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही रहा है।
जो लोग स्वयं को वानरों का विकसित रूप डार्विन के विकासवाद के अनुसार मानते हैं, उनकी वानरी प्रज्ञा ही पुराणों को एक हजार वर्ष प्राचीन मानती है। हम आर्य वंशज वानरों की सन्तान न होने के कारण इसे अनादिकालीन मानते हैं। इस सम्बन्ध में आस्था तथा श्रद्धा ही विजयिनी है।
पुराणों का प्राचीन भारतीय समाज में यह महत्त्व था कि याज्ञवल्क्य ने यह व्यवस्था (१/१०१) दी है कि वैदिक गृहस्थ स्नानादि के उपरान्त वेदत्रयी, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, उपनिषद् के कुछ-कुछ अंश का जप करे। भारतीय धर्म-व्यवस्था में पुराणों का महत्त्व अधिकांशतः वेद से भी बढ़कर माना गया है। कूर्मपुराण का कथन है कि इतिहास-पुराणों को तराजू के एक ओर रखा जाये, दूसरी ओर वेदों को। वेद से पुराण भारी पड़ेंगे। अर्थात् उनका महत्त्व अधिक है। देवी भागवत में कहा गया है कि जब ब्रह्मा ने सभी शास्त्रों से पूर्व पुराणों का चिन्तन किया, तभी वेद उनके अधरों से निःसृत हो सके।
अब यह जानना है कि पुराण किसे कहते हैं? अमरकोश ने पुरावृत्त तथा पुराणों को पंचलक्षणात्मक कहा है। वे हैं सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलयोपरान्त पुनः सृष्टि), वंश (देवताओं-सूर्य तथा चन्द्र एवं कुलपति अर्थात् ऋषि आदि के वंश), मन्वन्तर (काल का विस्तारपूर्ण सीमांकन), वंशानुचरित (उपर्युक्त वंशजों के कार्य तथा उनका इतिवृत्त)। लेकिन भागवतपुराण का कथन है कि पुराणों में दस लक्षण हों-सर्ग (सृष्टि), विसर्ग (नाशोपरान्त सृष्टि), वृत्ति (शास्त्रोक्त जीवन वृत्ति, जीवित रहने के साधन), रक्षा (वेद निन्दकादि का अवतारी आत्माओं द्वारा नाश), अन्तर वंश – वंशचरित तथा लय के चार प्रकार (अन्तर अर्थात् मन्वन्तर), हेतु (सृष्टि का कारण जैसे आत्मा अविद्या के कारण कर्म एवं कर्मफल एकत्र करता है), अपाश्रय (आत्मा का आश्रय परमात्मा)।
पुराणों के सम्बन्ध में स्वयं को वानर से विकसित मानने वाले विद्वानों ने प्रभूत चर्चा की है, विल्सन, एफ० ई० पार्जिटर, डब्लू किर्केल, ब्रीज, विनित्ज, मैकडोनेल आदि ने प्रभूत विद्वत्ता का प्रदर्शन किया है। इन वानर से विकसित सिद्धान्त को मानने वाले इनके भारतीय अनुगामीगण प्रो० रामचन्द्र दीक्षितार, प्रो० एच० सी० हज्रा, डॉ० पुसल्कर, प्रो० मनकड़, डॉ० धुर्ये आदि-आदि विद्वानों की ऐसी टोली है जो सभी पुराणों की अर्वाचीनता सिद्ध करने के लिये उद्यत हैं। वे हमारी धर्म सभ्यता का काल परिमाण २००० वर्ष से पीछे देखने के दृष्टिकोण का पूर्ण प्रतिवाद करते हैं। उनका मत है जब आंग्लवंशी पथप्रदर्शक ईसामसीह से अनुप्राणित होकर सभ्य बने तभी से भारत में पौराणिक आख्यान लिखा जाने लगा। उसके पहले व्यास, लोमहर्षण आदि पुराण व्याख्याताओं का अता-पता ही नहीं था? ऐसी स्थिति में पुराणों को शाश्वत मानने वालों की आवाज “नक्कारखाने में तूती की आवाज” से अधिक मायने नहीं रखती, इसलिये सभी पुराणों की आयु को पाश्चात्यों की धारणा के अनुरूप एक हजार वर्ष की अधिकतम आयु सीमा में बाँध दिया गया है। यही इन वानर-वंशियों का पराक्रम है।
अब ‘भविष्यपुराण’ से सम्बन्धित कतिपय शब्द कहना उचित समझता हूँ। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (१/६/१९/ १३) में भविष्यत्पुराण का उल्लेख मिलता है। यहाँ एक मतभेद परिलक्षित होता है जो ‘भविष्यत्’ तथा ‘पुराण’ को लेकर है। पुराण का तात्पर्य है प्राचीन, भविष्य का अर्थ है आगे होने वाला। एक ही स्थान पर पुराण तथा भविष्यत् कैसे हो सकता है? जो पुराना है, वह भविष्यत् कैसे, जो भविष्यत् है, वह पुराना (पुराण) कैसे? इसका तात्पर्य है कि सृष्टि के अविरल प्रवाह में जो भविष्यत् है, वह क्रमशः भूतकाल हो जाता है, पुराण हो जाता है। भविष्य की प्रत्येक घटनाओं को कालप्रवाह में बहते-बहते भूतकाल, पुराण, पुरातन हो ही जाना है।
भविष्य की कोई सीमा नहीं है, उसी प्रकार पुरातन, भूत, पुराण की भी कोई सीमा नहीं है। आज भविष्य के लिये चला कालप्रवाह भविष्य पर पहुँचते ही उसे अपने क्रोड़ (गोद) में समेट कर ‘पुराण’ पुरातन प्राचीन बना देता है। उधर भविष्य भी अपने इस पुराण-प्राचीन हो गये रूप को प्रतिक्षण भूत में विलीन होते देखकर आगे बढ़कर अन्य भविष्य की संरचना करता ही रहता है। पुराण एवं भविष्य की ये स्पर्द्धा अनन्त हैं। इनमें से पुराण भविष्य को, उधर भविष्य भी पुराण (पुरातन) को आज तक पराभूत नहीं कर सका। दोनों सूर्य के रथ के समान युगयुगान्तर से इसी प्रकार गतिशील होते रहे हैं। यही ‘भविष्य पुराण’ नाम से इन दोनों भविष्य एवं पुरातन बिन्दु का समाहार है। यह जगत् चक्र है। यह अविराम प्रतिक्षण अनन्तकाल से घूर्णित होता जा रहा है। पता नहीं कब तक ऐसे ही चलता रहेगा?
भविष्यपुराण चार पर्वों में मिलता है। ब्राह्म, मध्यम, प्रतिसर्ग तथा उत्तर। कहीं-कहीं भविष्योत्तरपुराण की भी चर्चा पढ़ी जाती है। वराहपुराण में भविष्यत्पुराण का नाम आया है। किसी के मत से भविष्यपुराण साम्ब द्वारा शोधित किया गया। अपरार्क ने अपने ग्रन्थ में भविष्योत्तर नामक पुराण के एक सौ साठ श्लोकों का उल्लेख किया है। अतः लगता है कि भविष्यपुराण के विविध रूप भारत में उपलब्ध रहे होंगे। अतः यदि इस प्रतिसर्गपर्व को देखे बिना बाकी सभी पर्वों में देखता हूँ, तब यह महापुराण सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, में अपूर्ण भविष्यपुराण हस्तलिपि में संकलित है। इसमें सभी पर्वों का पूर्ण रूप नहीं मिलता। यह अपूर्ण है। लन्दन के इण्डिया ऑफिस में इसकी जो प्रति संकलित है, उसमें ‘सप्तमी व्रत कल्प’ तक की ही सामग्री होने के कारण वह अपूर्ण है। उसमें प्रतिसर्गपर्व नहीं होने का संकेत दिया गया है। बिहार के हथुआराज पुस्तकालय में भी इसकी अपूर्ण प्रति है। इस समय वेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई, की मूल श्लोकों वाली प्रति उपलब्ध है, जिसके आधार पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, ने अपना संस्करण प्रकाशित कराया था। वेंकटेश्वर प्रेस को जो भविष्य महापुराण की प्रति मिली थी, वह प्रतिसर्गपर्व रहित थी। अमृतसर के ठाकुर चन्दर के यहाँ से प्रतिसर्गपर्व मिला था। लेकिन उसकी प्रामाणिकता जो भी हो, वेंकटेश्वर प्रेस ने उसी आधार पर अपना संस्करण उससे युक्त कर दिया। बाकी समस्त पर्व तो प्रामाणिक थे। जब यह प्रतिसगपर्व उसमें जोड़ दिया गया तब वह भी प्रामाणिक मान लिया गया क्योंकि गंगा में जो कोई भी जल छोड़े वह गंगाजल ही कहा जायेगा। इस सम्बन्ध में और क्या कहा जा सकता है, तथापि इस प्रतिसर्गपर्व को बुद्धि की कसौटी पर खरा मानने में हिचकिचाहट लग रही है। प्रामाणिकता- प्राचीनता में बिन्दुमात्र सन्देह भी नहीं रह जाता।
भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व में एक आश्चर्यजनक सिद्धान्त स्थापित किया गया है। यह सिद्धान्त प्रायशः अन्य पुराणों में परिलक्षित नहीं होता। इस पर्व में यह विधान है कि कर्म ही प्रधान है। व्यक्ति कोई भी वर्ण वाला भले ही हो, यदि वह श्रेष्ठ कर्मानुसरण करता है, तब जाति उसमें बाधक नहीं है। यहाँ यह प्रतिपादित है कि अनेक ऋषिगण जाति से हीन होकर भी अपने कर्म के कारण सर्वमान्य हो गये। षष्ठीकल्प के अनुसार (भविष्यपुराणान्तर्गत) वर्ण-जाति का क्रम वर्णन जन्मतः न होकर कर्मतः हो। शूद्र भी यदि त्याग तथा दया से अनुप्राणित है, तब वह ब्राह्मण ही है। ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मज्ञानयुक्त व्यक्ति। तदनुसार वृषली, रावण, चाण्डालादि भी वेदाध्ययन कर सकते हैं यदि वे गुणसम्पन्न हैं। (भविष्यपुराण १/४१/१-३) वेदाध्यायी शूद्र अन्य देश में जाकर स्वयं को ब्राह्मण घोषित करने हेतु अधिकारी है। अन्य जाति का विद्वान् तथा सत्कर्मी शुद्ध कुलोत्पन्न ब्राह्मण कन्या से विवाह का पात्र है। (वही, १-४१-४-५)।
इस प्रकार भविष्यपुराण का यह विचार मध्यकालीन रूढ़िवादी परम्परा से अलग हटकर है। इसमें समाज के उपेक्षित तथा निकृष्ट समझे जाने वाले वर्ग के दुःख को बाँटा गया है। यह ब्राह्मपर्व की विशेषता है। इसमें ब्रह्मा के पंचम मुख से पुराणोत्पत्ति का कथानक अंकित है। साथ ही सामुद्रिक जैसे दृष्टिकोण को लेकर स्त्रियों के शुभाशुभलक्षणों का भी निर्देश दिया गया है। इसके प्रारम्भ में सर्वसंस्कारयुक्त मानव जीवन का ढाँचा खड़ा किया गया है। इसके साथ ही गायत्री एवं सावित्री माहात्म्य तथा प्रणवार्थ भी विवेचित हैं। इससे यह द्योतित होता है कि लौकिक संस्कारों के साथ मानव का आन्तरिक संस्कार भी आवश्यक है जो प्रणव (ओ३म्) मन्त्र एवं गायत्री द्वारा सुसाध्य हो सकता है। इसी के पश्चात् लौकिक जीवन की शुद्धि हेतु विभिन्न व्रत एवं कल्पों का वर्णन भी किया गया है।
यह ब्रह्मखण्ड अधिकांशतः सूर्यपूजा पर आधारित है। यह खण्ड एक प्रकार से सौर सम्प्रदायानुमोदित साधन-विधान का प्रामाणिक प्रतिपादन करता है। साथ ही यह खण्ड व्रत एवं पूजन प्रधान है। यह व्रताचरण मात्र पौराणिक परम्परा ही नहीं है अपितु वेदों में भी इसका उल्लेख मिलता है। ‘वृ’ से व्रत उत्पन्न है। ‘वृञ् वरणे’ वरण करना अर्थात् चुनना। आप्टे के कोशानुसार यह सम्यक् अर्थ नहीं है। व्रत का तात्पर्य मात्र विधि-विधान-संकल्पादि ही नहीं हो सकता। इनके अनुसार ऋग्वेद में वर्णित दिव्यव्रत अर्थात् “दैवीमार्ग” है। लेकिन अन्य विद्वानों का कथन है जो संकल्पित है। संकल्प अथवा इच्छा, अतः व्रत का अर्थ है वह विधि, जो देवों द्वारा निर्दिष्ट है। कालान्तर में किसी व्यक्ति द्वारा आचरित पुनीत संकल्प तथा आचरण नियम ही व्रत कहा गया।
ऋग्वेद के सूत्र १/२२/१९ तथा तैत्तिरीय संहिता सूत्र १/३/६/२ में कहा गया है कि विष्णु के कर्म देखो जिससे वह अपने व्रत की रक्षा करता है। कालान्तर में ब्राह्मण ग्रन्थों में व्रत व्यक्ति के आचरणार्थ उचित व्यवस्था का रूप ले चुका था। दूसरा इसका अर्थ उपवास भी है। (ऐतरेयब्राह्मण ७/२)। प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का व्रत ही है। व्रत न्यूटेस्टामेन्ट में भी वर्णित है (इसैआह १९/२१, जाब २२/२७)। जैनगण का पंचमहाव्रत तथा बौद्ध का पंचशील तथा मुसलमान रोजा रूपी जो नियत बांधते हैं वह भी प्रकारान्तर से व्रत ही है। शबर का कथन है कि व्रत मानस क्रिया है। यह एक प्रतिज्ञा है। (जैमिनी, ६/२/२४)। अमरकोश के अनुसार व्रत तथा नियम समानार्थक हैं। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य १/१२९) के मत से यह एक मानसिक संकल्प है। अतः भविष्यपुराणोक्त ब्राह्मखण्ड में सप्तमी आदि तिथियों का जो भी अनुष्ठान है, वह ऐसे मानसिक संकल्परूप व्रत का ही अन्य रूप है। पृथक् कदापि नहीं है।
इस महाग्रन्थ में स्थान-स्थान पर देव पूजा तथा होम का वर्णन आया है। होम तथा पूजा समानार्थक नहीं है। मनु (२/१७६) तथा याज्ञवल्क्यस्मृति (१/९९/१००) का कथन है कि देवतापूजा होम के उपरान्त करे। इसमें से देवतापूजा के ५, १०, १२, १४, १३, १६, ३६, ३८ उपचार अथवा १२ उपचार भी हो सकते हैं।
इस पर्व में यह भी उत्तम विधान है कि पूजा के पुष्प क्या हों? उन पूजा पुष्पों को अर्पित करने का क्या फल है। यथा मालती पुष्प से देवता का सामीप्य, कनेर पुष्पार्पण से स्वास्थ्य एवं अतुलित सम्पत्ति लाभ आदि। इसी प्रकार कुण्डक सर्वोपरि धूप है, गन्ध में चन्दन, दीप में घृतदीप, सुगन्धों में केसर सर्वोपरि है, इत्यादि। इन सब का पर्यावरण पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यह ज्ञातव्य है।
ब्राह्मपर्वखण्ड में सर्पविष आदि पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है। भुवनकोश, भुवन वर्णन, व्योम माहात्म्य आदि का वर्णन करके ब्रह्माण्ड के अभेद्य रहस्यों को प्रकट करके उसकी आध्यात्मिकता का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार यह खण्ड एक प्रकार से पूजा, व्रत तथा सौरमार्ग का विशेष विवरण प्रस्तुत करता है।
इस ब्राह्मपर्व में शतानीक-सुमन्तु का संवाद ध्यान देने योग्य है। सुमन्तु कहते हैं कि “चारों वर्ण विशेषतः शूद्र हेतु जो शास्त्र कहे गए हैं वे हैं – अष्टादश पुराण, रामायण, महाभारत। इनमें वेद तथा धर्मशास्त्र का सम्पूर्ण अर्थ समाहित है। यह भवसागर में डूब रहे सभी वर्णों हेतु उत्तम नौका है।” यह व्यवस्था वेदाध्ययनादि से वंचित शूद्रों के लिये एक प्रकाश-प्रदीप रूप हो गयी। यही भविष्यपुराण के प्रथम खण्ड की विशेषता है।
श्रीभविष्यमहापुराणम्: Bhavishya Purana (Set of 3 Volumes)
– एस०एन० खण्डेलवाल (साभार – “श्रीभविष्यमहापुराणनम” चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान)