एक समय ऐसा था जब भारत ज्ञान-विज्ञान, धर्म-अध्यात्म, नैतिक मूल्य, इंसानियत, मानवता एवं अन्य कई मामलों में पूरी दुनिया में नंबर ‘वन’ के सिहांसन पर विराजमान था। इन सभी क्षेत्रों में अपनी महान उपलब्धियों के कारण ही भारत को विश्व गुरु का दर्जा हासिल था और भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। शिक्षा के क्षेत्र में नालंदा एवं तक्षशिला की गणना पूरे विश्व में होती थी। इन शिक्षा केन्द्रों को बर्बाद करने का काम विदेशी आक्रांताओं ने किया था। पुनः विश्व गुरु बनने के लिए भारत को शिक्षित, संस्कारित, स्वस्थ, स्वावलंबी, संगठित, समरस एवं सुरक्षित बनना होगा। भारत के नागरिक जब तक इन गुणों से परिपूर्ण नहीं होंगे तब तक देश पुनः विश्व गुरु नहीं बन सकता। उपरोक्त गुणों से पूर्ण भारत तभी हो सकता है, जब यहां की शिक्षा व्यववस्था वैसी हो। शिक्षा ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा बच्चा श्रवण कुमार जैसा आज्ञाकारी, मातृ एवं पितृ भक्त बन सकता है अन्यथा धन-वैभव की चाह में तमाम बच्चे अपने मां-बाप को उन्हीं के घर से ही बेदखल कर चुके हैं या फिर काफी संख्या में ऐसा करने के लिए तैयार हैं।
आज की शिक्षा व्यवस्था की यदि प्राचीन शिक्षा व्यवस्था से तुलना की जाये तो आज की शिक्षा पुरानी शिक्षा के मुकाबले कहीं टिकती नहीं है। इसके कारणों का यदि विश्लेषण किया जाये तो बहुत से कारण मिलेंगे। विदेशी आक्रांताओं से लेकर मुगलों और अंग्रेजों तक तमाम कारण इसके लिए जिम्मेदार मिलेंगे किंतु आजाद भारत की बात की जाये तो 1947 से लेकर 2024 तक भारत की शिक्षा व्यवस्था को भारतीयता के अनुरूप पटरी पर लाने के लिए कितना प्रयास हुआ? कहने के लिए हम भले ही कहें कि भारत की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने का कार्य सबसे अधिक लार्ड मैकाले ने किया किंतु ईमानदारी से विश्लेषण किया जाये तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आजाद भारत में भी तमाम लार्ड मैकाले मिलेंगे। भारत के लार्ड मैकालों की बात की जाये तो कहा जा सकता है कि ये हैं तो भारतीय किंतु इनके सोचने-समझने, कार्य करने एवं रहने का तौर-तरीका बिल्कुल अंग्रेजों जैसा ही है। इन परिस्थितियों में यदि बिना किसी लाग-लपेट के आज की शिक्षा व्यवस्था का विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाये तो कहा जा सकता है कि शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण हो चुका है।
जाहिर सी बात है कि शिक्षा व्यवस्था यदि अर्थव्यवस्था से जुड़ेगी तो उसके परिणाम भी उसी के अनुरूप मिलेंगे यानी ऐसी परिस्थिति में सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि जिसके पास पैसा होगा, वह शिक्षा अर्जित कर पायेगा, जिसके पास पैसा नहीं होगा वह नहीं कर पायेगा। जब बात पैसे की आयेगी तो जरूरी नहीं कि सभी लोगों के पास पैसा होगा? आज अपने समाज में तमाम लोग ऐसे मिल जायेंगे, जिनका कहना है कि तमाम बच्चे ऐसे हैं जो पढ़ना तो चाहते हैं किंतु पैसे के अभाव में पढ़ नहीं पा रहे हैं और तमाम बच्चे ऐसे हैं जो पढ़ना ही नहीं चाहते किंतु उन्हें जबर्दस्ती पढ़ाने का काम किया जा रहा है यानी कहा जा सकता है कि प्रतिभाओं को कदम-कदम पर कुचला जा रहा है।
आज हमारी शिक्षा व्यवस्था की बात की जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि बच्चे अपनी रुचि के मुताबिक शिक्षा नहीं ग्रहण कर पा रहे हैं। बच्चा पढ़ना चाहता है कुछ किंतु सिस्टम की कमियों के कारण उसे पढ़ना पड़ता है कुछ और। शिक्षा को लेकर भारत में एक धारणा और प्रचलित होती जा रही है कि जो बच्चे विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं या वहां से पढ़कर आये हैं, उनका महिमामंडन बहुत अधिक हो रहा है। और तो और, व्यावसायिक संस्थाओं में भी विदेशों में पढ़े बच्चों को प्राथमिकता दी जा रही है और सम्मान की नजर से देखा जा रहा है। यह हमारे देश के लिए दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है? समझ में नहीं आता कि भारतीय पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति के गुलाम क्यों होते जा रहे हैं? क्या विदेशी सभ्यता-संस्कृति एवं शिक्षा में इतनी क्षमता है कि वह श्रवण कुमार एवं भक्त प्रहलाद जैसे संस्कारी बालक बना सके।
हमारे संविधान में अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों की भी बात कही गई है किंतु आज की शिक्षा व्यवस्था, कर्तव्यों को दरकिनार कर सिर्फ अधिकारों की तरफ ही अग्रसर कर रही है। वर्तमान समय में विडंबना यह है कि कोई भी स्कूल जितना महंगा है, उतना ही अच्छा और स्टेटस का प्रतीक माना जा रहा है। सरकारों की गैर जिम्मेदाराना नीतियों के कारण सरकारी स्कूल दिन-प्रतिदिन गिरावट की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। इस गिरावट के कारणों पर यदि चर्चा की जाये तो मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सरकारी स्कूलों को अच्छा बनाने की जिनकी जिम्मेदारी है, उनमें से तमाम लोगों ने स्वयं महंगे-महंगे प्राइवेट स्कूल खोल लिये हैं। इन लोगों को यह अच्छी तरह पता है कि यदि सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी होगी तो उनके महंगे प्राइवेट स्कूलों का क्या होगा? उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि सरकारी स्कूलों में नौकरी चाहिए तो सभी को किंतु अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना किसी को नहीं है। आखिर समाज का यह दोहरा रवैया देश को कहां ले जायेगा। सरकारी स्कूलों में जितने लोग शिक्षक हैं, यदि उनसे पूछा जाये कि उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं या नहीं तो परिणाम शायद नहीं के बराबर ही आयेगा।
एक बात यह भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की विधिवत ट्रेनिंग होती है, किंतु प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की ट्रेनिंग क्या उस स्तर की होती है? ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि सरकारी स्कूलों के योग्य शिक्षक अपने बच्चों को अपने से कम योग्य शिक्षकों से पढ़वा रहे हैं। यदि अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूल प्राथमिकता में नहीं हैं तो सरकारी स्कूल की नौकरी किसलिए चाहिए? इस प्रकार के दोहरेपन से देश को उबारना होगा, अन्यथा भारत के विश्व गुरु बनने का सपना साकार नहीं होगा। आज की शिक्षा व्यवस्था जब पूरी तरह अर्थ पर आधारित हो गई है तो भारत के विश्व गुरु बनने की कल्पना ही बेमानी है। जो शिक्षा व्यक्ति को भोगवाद, भौतिकवाद, आधुनिकता, फैशनपरस्ती, मौज-मस्ती एवं स्व तक केंद्रित करे, क्या उससे किसी प्रकार की उम्मीद की जा सकती है?
नर्सरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक जितने प्राइवेट शिक्षा के केन्द्र हैं, उनमें अधिकांश की नीति यही होती है कि सभी सामान बच्चे वहीं से खरीदें। वहीं से खरीदने का मतलब है कि मनमाने तरीके से पैसा वसूल लिया जायेगा। जिस पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था की तरफ हम जाना चाहते हैं या काफी हद तक जा चुके हैं, वहां परिवार व्यवस्था बिल्कुल ध्वस्त हो चुकी है। परिवार व्यवस्था ध्वस्त होने का मतलब है संस्कारहीनता। आज की शिक्षा व्यवस्था युवाओं को भले ही एक अच्छा पैकेज दिला देती है किंतु वह लोगों को डिप्रेशन में जाने से रोक नहीं पा रही है।
आज के अच्छे से अच्छे स्कूल भी अकसर यह कहते हुए देखे जाते हैं कि बच्चा तो सिर्फ हमारे पास छह घंटे ही रहता है बाकी समय तो वह अपने मां-बाप के पास या घर पर ही रहता है, ऐसे में सारी जिम्मेदारी स्कूल की ही थोड़े बनती है किंतु क्या पहले गुरुकुलों में गुरुजन ऐसी बातें किया करते थे। गुरुकुलों में बच्चों के समग्र विकास को ध्यान में रखकर शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुलों में गुरुजन बच्चों की मानसिकता को भांपकर यह बता देते थे कि बच्चे की रुचि किस प्रकार की है और उसे कैसी शिक्षा दी जानी चाहिए? गुरुजन उसी के अनुरूप बच्चों को शिक्षा दिया करते थे किंतु आज की शिक्षा व्यवस्था में यदि कोई बच्चा यह बता भी दे कि उसकी रुचि अमुक विषय में है तो उस विषय में उसे क्या दाखिला मिल पायेगा तो जवाब यही सुनने को मिलेगा कि बच्चे के अभिभावक के पास यदि अकूत संपत्ति है तो सब कुछ संभव है, अन्यथा कुछ भी हो सकता है।
कहने का आशय यह है कि आज की शिक्षा व्यवस्था में बच्चा अपनी मर्जी से, अपनी इच्छा के अनुरूप विषय का चुनाव सिर्फ आर्थिक आधार पर ही कर सकता है तो ऐसी शिक्षा सबके लिए तो है ही नहीं। जब शिक्षा भी सिर्फ पैसे की बदौलत मिल सकती है तो सबको शिक्षा मिल पाना संभव ही नहीं है। यदि भारत में सभी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा दिलवानी है तो गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की तर्ज पर शिक्षा व्यवस्था को अग्रसर करना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में मेरा यह बिल्कुल भी कहना नहीं है कि शिक्षा व्यवस्था के नाम पर सिर्फ गुरुकुल शिक्षा प्रणाली होनी चाहिए किंतु मेरा इतना जरूर कहना है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी जरूर बने जिसमें बच्चा अपनी इच्छा के अनुरूप विषय का चुनाव कर सके और उसी के अनुरूप शिक्षा अर्जित कर सके।
आज देश में ऐसे तमाम लोग हैं जिनका कहना है कि वर्तमान परिस्थितियों में देशवासी शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बढ़ते खर्च से परेशान हैं। यदि सरकार इन दोनों व्यवस्थाओं को अपने हाथ में ले ले तो लोग बाकी की व्यवस्था स्वतः कर लेंगे किंतु शासन-प्रशासन, राजनीति एवं अन्य क्षेत्रों में शीर्ष स्थान पर विराजमान तमाम लोगों का आर्थिक साम्राज्य ही शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था पर टिका है। ऐसे में ऐसे लोगों से कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है।
एक दौर वह भी था जब श्रवण कुमार अपने अंधे मां-बाप को कांवड़ में बैठाकर तीर्थयात्रा को चल पड़े। एक दौर यह भी है कि जब तमाम बच्चे अपने मां-बाप से कह रहे हैं कि आपने हमारे लिए किया ही क्या? इसी प्रकार की भावनाओं के चलते लोगों को यह भय सताता रहता है कि आखिर उनका बुढ़ापा कैसे कटेगा या यूं कहें कि उनके कठिन दिनों का सहारा कौन बनेगा? अयोग्य लोगों को जबर्दस्ती ज्ञानी बनाने के जो प्रयास किये जा रहे हैं, उसकी कीमत भारत को चुकानी पड़ रही है।
दो साल की बच्ची से लेकर 80 साल की वृद्धा तक यदि सुरक्षित नहीं है तो यह सोचने का विषय है कि आखिर हमारी शिक्षा व्यवस्था कहां से कहां पहुंच गयी? इसके उलट गुरुकुलों की बात की जाये तो वहां पढ़ाई के साथ-साथ यह भी बताया एवं सिखाया जाता था कि सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक क्या करना है और कैसे रहना है? कहने का आशय यह है कि मात्र छह घंटे की सरकारी या नौकरी वाली ड्यूटी में शिक्षक उतना नहीं सिखा सकते हैं, जितना सिखाने की आवश्यकता है। यह सब लिखने का मेरा आशय मात्र इतना है कि दोष शिक्षकों का नहीं बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का है।
गुरुकुलों में सुबह उठते ही बच्चों को गुरुजन बताते थे कि अपनी हथेली का दर्शन करना चाहिए, धरती माता को प्रणाम करना चाहिए, अपने माता-पिता, गुरुजनों एवं वरिष्ठ लोगों का चरण स्पर्श करना चाहिए। भोजन के पहले मंत्रों का उच्चारण कराया जाता था। सोने से पहले भी मंत्रों का उच्चारण बच्चों को कराया जाता था। पर्यावरण की सुरक्षा के बारे में भी बच्चों को बताया एवं समझाया जाता था किंतु क्या आज वह सब बताया एवं समझाया जा रहा है? सिर्फ मुगलों, अंग्रेजों एवं लार्ड मैकाले को कोसने से ही बात बनने वाली नहीं है। इसके लिए कुछ करना भी होगा। धन के अभाव में यदि मेधावी-प्रतिभावान बच्चे इंजीनियर, डाॅक्टर, शिक्षक, वैज्ञानिक, अर्थ विशेषज्ञ, इतिहासकार एवं अन्य रूप में विशेषज्ञ नहीं बन पायेंगे तो भारत महान कैसे बनेगा? हमारे देश में एक धारणा यह प्रचलित है कि प्रतिभाओं को दबाना एवं उनका हनन करना पाप के समान है।
आज जिस पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को भारत में रोल माॅडल मान लिया गया है, उससे हमारा कोई मेल ही नहीं है, क्योंकि हमारे और उनके दृष्टिकोण में ही जमीन-आसमान का अंतर है। जो लोग दोनों संस्कृतियों को एक बनाने एवं एक बताने का प्रयास कर रहे हैं, वे अनर्थ कर रहे हैं, विनाश की ओर ले जा रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि मानव ब्रह्म का अंश है। मानव को पापी कहना ही पाप है, रामचरितमानस में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘ईश्वर अंश, जीव अविनाशी’ अर्थात हम भगवान के अंश हैं। घर के संबंध में भी हमारी सोच पश्चिम से भिन्न है। हमारे चिंतन के अनुसार जिस घर में हम रहते हैं, उसको हम मंदिर मानते हैं। हमारे ऋषियों ने मनुष्य को ‘अमृतस्य पुत्रम्’ माना है। पापियों का निवास तो नरक माना गया है। बात करते समय यदि हम किसी का उल्लेख कर रहे होते हैं, इतने में वह व्यक्ति आ जाता है तो हम कहते हैं कि इनकी लंबी आयु है, चिरंजीवी है’ परंतु अंग्रेजी में अभिव्यक्ति होती है तो – ज्ीपदा व िजीम क्मअपस ंदक ीम पे जीमतमण् अर्थात शैतान का नाम लो शैतान हाजिर।
यह सब लिखने का आशय मात्र इतना है कि यदि हमारी और पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति में इतना अंतर है तो उनकी अर्थ आधारित शिक्षा व्यवस्था को अपने यहां स्थापित कर हम भारत को किस रास्ते पर ले जाना चाहते हैं? इस संबंध में मेरा तो यही मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में हम विश्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अवश्य चलें किंतु अपना दर्शन एवं अपनी शिक्षा व्यवस्था अपनी मूलभूत सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप ही रखें अन्यथा विश्व गुरु बनने की चाहत मात्र सपना ही बनकर रह जायेगी, तो आइये, हम अपनी शिक्षा पद्धति को मात्र व्यवसाय बनने से रोकें और उसे ऐसा बनायें जो सबके लिए समान रूप से
उपलब्ध हो और जिसका लाभ सभी लोग ले सकें।
– सिम्मी जैन ( दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस। )